
रविवारीय: वाह री होली लखनऊ की!
वाह री होली लखनऊ की! नज़ाकत, नफासत, अदब और आदाब के साथ ही साथ गंगा जमुना तहज़ीब – यह है लखनऊ की पहचान।
इस बार होली में घर नहीं जाना हुआ। सोचा लखनऊ में ही होली बितायी जाए। वैसे होली का त्योहार भरे पूरे परिवार , रिश्तेदारों और दोस्तों के बीच ही मनाने में अच्छा लगता है, पर नौकरी पेशा वालों के लिए मुश्किल हो पाता है इन सबके बीच सामंजस्य बिठाना। सो इस बार की होली लखनऊ में ही मनी।
लगभग एक महीने से देख रहे थे। सरस्वती पूजा के दिन से ही चौक चौराहों पर अगजा (होलिका दहन) की तैयारियां शुरू हो गई थी। लकड़ियों इकट्ठी हो रहीं थीं। सजावट भी अपने अपने तरीके से किया जा रहा था।
होलिका दहन का मुहूर्त रात के ग्यारह बजे के बाद का था। हमने सोचा चलो शहर घूमते हैं और लखनऊ की होली के बारे में थोड़ा जानने की कोशिश करते हैं। निकल पड़े रात दस बजे के करीब लखनऊ के पुराने इलाके में जिसे आप लखनऊ कहते हैं, होली का मज़ा लेने। विस्तारित लखनऊ को आप वैसे तकनीकी तौर पर लखनऊ कह सकते हैं, पर जब बात नवाबों की हो रही हो, नज़ाकत और नफासत की बातें हम करने लगे और साथ ही साथ अगर हम अपनी तहजीब पर आ जाएं तो फ़िर लखनऊ तो हजरतगंज, कैसर बाग और चौक के ईर्द-गिर्द ही नज़र आता है। सिमट सा जाता है लखनऊ।
खैर! हम आ पहुंचे कैसरबाग चौराहे पर। वहां का नज़ारा देखते हुए जब हम अमीनाबाद की ओर बढ़े तब मुझे यकीनी तौर पर समझ में आ गया कि हम वाकई लखनऊ में हैं।
तमाम तरह की बातें जो हम सोशल मीडिया पर सुन रहे थे एकदम से ऐसा लगा कि सब बेमानी है। अद्भुत नजारा! गंगा जमुना तहज़ीब का संगम!
शायद हमारे शब्द कम पड़ जाएं। एक ही शब्द कह सकते हैं अद्भुत। पूरा क्षेत्र रौशनी से जगमगा रहा था। ऐसा लग रहा था मानो दीपावली की रात हो। जगह जगह पर डी जे की धुन पर लोग मस्ती में सराबोर डांस कर रहे थे।
अब आते हैं होली के दिन। पास पड़ोस से होली खेलने की आवाजें आ रहीं थीं, पर एक बात कहना चाहूंगा कि त्योहारों को हमारे मध्यवर्ग और उनके आसपास के वर्गों ने ही जीवंत रखा है। एक वर्ग तो अपने आप को इन सबसे परे मानता है। उन्हें तो बस औपचारिकता पूरी कर देनी है।
होली में अगर कोई आपको रंग ना लगाए तो यह आपकी बदकिस्मती है। हम तो राह चलते हुए लोगों को भी रंगों से सराबोर कर डालते हैं।
शाम में हम सपरिवार घर से निकले और हम लोगों ने तय किया कि चलो चौक की ओर चलते हैं कुछ खा पीकर कर वापस लौट आएंगे। चौक से कोई आधा किलोमीटर पहले ही हम बुरी तरह ट्रैफिक जाम में फंस गए। कहां मालूम था कि सारा लखनऊ ही चौक की ओर चल पड़ा है।
दरअसल, होली के दिन चौक के इलाके में होली का एक बड़ा जुलूस निकाला जाता है। इसे हुड़दंग कहते हैं। श्री अमृतलाल नागर जो एक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार थे, वो इसी चौक के निवासी थे। वो अपने आप को इस चौक का वाइस चांसलर कहा करते थे। लखनऊ उनकी रगों में था। आज भी चौक इलाके के मिर्जा मंडी गली में जहां वो रहते थे, हालांकि वो किराए का मकान था, उस मकान को नागर की हवेली के नाम से जाना जाता है ।
खैर! बड़ी मुश्किल से होली के दिन चौक के जाम से उबर कर हम बाहर आ पाए।
होली के दिन घूमने के दौरान ही मालूम पड़ा की कल मतलब होली के अगले दिन इसी अमृत लाल नागर चौक पर चकल्लस नाम से कवि सम्मेलन है जो सारी रात चलता है।
वाकई रात के बारह बजे जब हम पहुंचे तो हजारों की संख्या में लोग वहां कवि सम्मेलन का आनंद लें रहे थे। बड़ा सा मंच सजा था। एक के बाद एक कवि अपनी अपनी कविताओं के साथ प्रस्तुति दे रहे थे।
लखनऊ वास्तव में एक अलग ही दुनिया है। एक अलग ही मिजाज है यहां के लोगों का। एक अपनी ही खास पहचान है इसकी। आधुनिकता के साथ ही साथ परंपरा का अद्भुत संगम। होली की बात हो रही हो और बातें थोड़ी खाने पीने की ना हो तो बात कुछ जमती नहीं है। पूरा लखनऊ होली के अवसर पर गुझिया और पापड़ मय हो जाता है। किस्म किस्म की गुझिया और तमाम तरह के पापड़। लखनऊ की अपनी खासियत।
अमृतलाल नागर चौक लखनऊ के निवासी और हिंदी के सुपरिचित उपन्यासकार स्व. अमृतलाल नागर की स्मृति में साहित्यप्रेमियों ने नामकरण किया है।
उनके द्वारा मौलिक रचनात्मक साहित्यिक कृतियों में लखनऊ की सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन की जानकारी मिलती है।
श्री वर्मा जी के इस ब्लॉग में न केवल लखनऊ की ऐतिहासिक शहर की रंगीन और तहज़ीबदार होली का सजीव वर्णन है, अपितु यहाँ के लोगों की संस्कृति, उत्सवप्रियता और परंपरा का भी सुंदर वर्णन है।। ब्लॉग की भाषा प्रवाहमयी और भावनाओं से ओतप्रोत है। लेखन-शैली और संवादात्मक लहजा अत्यंत रोचक है। ब्लॉग केवल दृश्य-चित्रण ही नहीं करता बल्कि उत्सवों की सामाजिक परतें भी खोलता है। लखनऊ की गंगा जमुनी तहजीब/विभिन्न वर्गों की भागीदारी का उल्लेख उत्सवधर्मिता की वास्तविकता को उजागर करता है। कवि अमृतलाल नागर व चौक की हवेली आदि का उल्लेख होली के महापर्व को एक साहित्यिक गहराई से भी जोड़ते हैं। यह केवल होली का सजीव-वृत्तांत नहीं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना से भरी एक स्मृतिगाथा सी लगती है।
श्री वर्मा जी ने होली का ही वर्णन नहीं, बल्कि लखनऊ की आत्मा को पकड़ने का सफल प्रयास किया है। इसमें भाषा की रवानी, संस्कृति की मिठास और लोकजीवन की झलक मिलती है। लखनऊ की होली का इतना सजीव, आत्मीय व मनमोहक वर्णन पाठक को लखनऊ की गलियों में होली खेलने के लिए ललक जगाता है।