रविवारीय: सुपर बाजार में शॉप लिफ्टिंग
कभी सुपर बाजार में शॉप लिफ्टिंग की है? ऐसी एक क्लैपटोमैनियक का हाल का एक एक वाक्या याद आ रहा है।
यह बात है जब हम अपने घर के महीने भर के लिए जरूरी सामान लाने के लिए शहर के एक प्रतिष्ठित सुपर बाजार पहुंचे थे।
जब हम अपनी खरीददारी पूरी कर पेमेंट करने के लिए पंक्तिबद्ध थे तो अचानक से कुछ शोर-शराबा होने लगा। मैंने देखा एक सभ्रांत सी दिखने वाली महिला से सुपरबाजार का सिक्योरिटी गार्ड कुछ पूछताछ कर रहा है और वह महिला भी बड़े ही रोबीले अंदाज में उसे डांट रही है। महिला की वेशभूषा से ऐसा लग रहा था कि वो किसी रसूखदार परिवार से है। वैसे भी वो सुपरबाजार शहर का एक अति प्रतिष्ठित सुपरबाजार था। कोई भी ऐरा- गैरा नत्थू खैरा वहां जाने से पहले एक बार जरूर सोचता भले ही उसके जेब में पैसे हों।
खैर, वो महिला जोरदार आवाज में सिक्योरिटी वाले को डांटे जा रही थी – मुझे पहचानते नहीं हो मैं कौन हूं? बेचारे सिक्योरिटी गार्ड की क्या बिसात जो उस महिला से मुंह लगे। तब तक मेरा भी नंबर आ गया था। मैंने भी उधर से अपना ध्यान हटा कर पेमेंट करने के लिए काउंटर वाले से पूछा और उसके बाद अपना सामान पैक करा कर बाहर आ गया। तभी मैंने देखा बाहर भी कुछ हलचल हो रही है। एक बड़ी गाड़ी के अंदर की कुछ लोग फोटोग्राफी कर रहे हैं। मुझे ऐसा अहसास हुआ कि शायद कोई सेलिब्रिटी हो। कोई बड़ी बात नहीं थी वहां किसी सेलिब्रिटी का होना। वो जगह ही कुछ खास थी। पर नहीं, मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब मैंने देखा वही सभ्रांत और रसूखदार घर की दिखने वाली महिला चोरी करते हुए पकड़ी गई थी। सामान भी क्या? कुछ प्रसाधन सामग्रियां थी। इतनी महंगी गाड़ी से चलने वाली महिला कुछ इस तरह का काम करे? मुझे बड़ा अजीब लगा। मैं सोचने लगा। यह असामान्य सी बात थी। यहां पैसे की तंगी और भूख का मामला नहीं था। यह तो एक मनोविकृति का मामला था। एक तरह का मनोरोग है यह जिसे अंग्रेजी में क्लेप्टोमैनिया कहते हैं। मनोवैज्ञानिक विकार है। वह महिला भी मेरी समझ से शायद मनोवैज्ञानिक विकार से ग्रसित हो सकती है।
मनोविज्ञान में इस तरह के रोगी को ‘क्लैपटोमैनियक’ कहा जाता है। इस तरह के मामले में रोगी चोरी करने से पहले बहुत तनाव में होता है और चोरी करने के बाद उसे असीम संतुष्टि का अनुभव होता है। फिर शॉपलिफ्टिंग का एक एक अलग ही चस्का है।
वैसे देखा जाए तो हम सभी क्लैपटोमैनियक हैं। बचपन की बातें याद करें। किसी दूसरे के बगीचे के पेड़ से चोरी कर अमरूद खाने का मजा ही कुछ और हुआ करता था।
बचपन में हम लोगों ने एक कहानी पढ़ी थी। भूलते भागते क्षण। सरदार महीप सिंह की लिखी हुई कहानी थी। उन्होंने लिखा था चोरी करके मटर की फलियां खाने का आनन्द ही कुछ और होता है। बगीचे के मालिक और उसके दरबान की गालियां कोई फर्क नहीं डालती थीं।
सार यह है कि हर इंसान में एक हैवान छिपा होता है। उस हैवान को आपको कैसे रोकना है यह आपकी परवरिश, आपकी शिक्षा, आपका पारिवारिक माहौल और आपके संस्कार, जो हमें विरासत में मिलता है, जिन्हें आजकल हम सभी सौफ्ट स्किल के नाम से जानते हैं. इन सभी पर निर्भर करता है। ये सभी मिलकर आपके अंदर के हैवान को संतुलित रखती हैं।
प्रत्येक व्यक्ति अपने सामाजीकरण या जिसे परवरिश भी कह सकते हैं, के अनुसार ही व्यवहार करता है। क्लैप्टोमैनियक तो सभी होते हैं पर जैसा कि श्री वर्मा जी ने वर्णित किया है कि आपकी परवरिश/सामाजीकरण के अनुसार आपकी हैवानियत/अच्छाई के संदर्भ में आपका व्यवहार प्रकटित होता है।
श्री वर्मा जी ने अनछुये पहलू पर ध्यानाकर्षण कराते हुए परवरिश की महत्ता पर प्रकाश डाला है। मुझे लगता है कि सभी पाठक श्री वर्मा जी से सहमत होंगे।