रविवारीय: शताब्दी से यात्रा
भारत के प्रीमियम ट्रेनों में शुमार शताब्दी से लखनऊ से नई दिल्ली तक की यात्रा मुझे करनी थी। महीने भर पहले ही रिज़र्वेशन ले लिया गया था। यात्री मन शताब्दी में यात्रा को लेकर उत्साहित था। आप कितने भी बड़े हो जाएं दिल तो आपका आखिरकार बच्चा ही है।आज हम भले ही वन्दे भारत ट्रेन उसकी गति और उसमें उपलब्ध सुविधाओं की बातें करते हैं, पर एक समय था जब शताब्दी ट्रेन की अपनी एक अलग ही पहचान हुआ करती थी। दो बड़े शहरों को जोड़ती हुई शताब्दी ट्रेन। ट्रेन में डब्बे ज्यादा नहीं हुआ करते थे।एक दिन में अपने गंतव्य तक आना और जाना। राजधानी से भी ज्यादा तेज चलने वाली। सामान्य ज्ञान का प्रश्न हुआ करता था कि कौन सी ट्रेन ज्यादा तेज गति से चलती है राजधानी या फिर शताब्दी। राजधानी ट्रेन की अधिकतम रफ़्तार 120 किलोमीटर प्रति घंटे थी तो शताब्दी ट्रेन की अधिकतम रफ़्तार 140 किलोमीटर प्रति घंटे। गति भी ज्यादा और सुविधाएं भी अव्वल और तो और दिन – दिन का ही सफर। इतराने की बात तो थी।
हां, तो बात शुरू होती है स्वर्ण शताब्दी ट्रेन से लखनऊ से दिल्ली तक के सफर की। यह ट्रेन दिन के साढ़े तीन बजे लखनऊ से चलकर लगभग पांच सौ किलोमीटर से कुछ अधिक की दूरी तय कर नई दिल्ली रात के लगभग दस बजे पहुंचती है।
जिस दिन मुझे जाना था मैंने भी जल्दी जल्दी अपने काम निपटाए और ढाई बजे के आसपास स्टेशन के लिए निकलने की तैयारी करने लगा। अचानक से मोबाइल पर रेलवे की ओर से एक संदेश आता है – यह ट्रेन आज 3:30 की बजाय शाम के साढ़े पांच बजे खुलने की संभावना है। रेलवे ने तो संदेश भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली, पर मन थोड़ा खिन्न सा हो गया। हर दस मिनट पर ट्रेन का रनिंग स्टेटस अपडेट लिया जाने लगा।
खैर! रेलवे के संदेश पर भरोसा कर शाम पांच बजे स्टेशन पहुंच गए हालांकि ट्रेन अभी तक नहीं आई थी। रनिंग स्टेटस अपडेट भी अपडेट नहीं कर रहा था। शाम के लगभग पौने छह के आसपास ट्रेन प्लेटफार्म पर आकर लगी। उद्घोषणा हुई कि यह ट्रेन सवा छह बजे लखनऊ से दिल्ली रवाना होगी, पर ट्रेन लगभग सात बजे रवाना हुई। एक विश्वास था मन में कि प्रीमियम ट्रेन है अब बहुत देर नहीं करेगी और देर रात तक नई दिल्ली पहुंचा ही देगी।
चलिए ट्रेन लखनऊ से खुली और कानपुर तक ठीक-ठाक आई। तब तक ट्रेन में चाय नाश्ता दे दिया गया था।
अब ट्रेन से थोड़ा हटकर कुछ अंदर की बातें करते हैं। शताब्दी ट्रेन में दो प्रकार की श्रेणी होती है। एक सामान्य चेयर कार और दूसरी एक्जीक्यूटिव चेयर कार। मेरा रिज़र्वेशन सामान्य चेयर कार में था। शायद पहली बार मुझे बीच की सीट पर बैठना पड़ा था। और तो और आमने सामने की सीट थी। पैर फैलाने में भी नहीं बन रहा था।थोड़ा अटपटा सा लग रहा था। ऐसा लग रहा था कि मानो किसी ने मुझे बांध दिया हो। मेरे हिलने डुलने पर भी थोड़ी पाबंदी लग गई थी। ट्रेन शताब्दी हो, स्वर्ण शताब्दी हो या फिर वन्दे भारत , सामान्य श्रेणी में आप बिल्कुल अपनी सीट पर हलचल नहीं कर सकते हैं। आपकी सीमा सीमित कर दी जाती है। एक्जीक्यूटिव श्रेणी में आपको कुछ हद तक हिलने डुलने की स्वतंत्रता रहती है। वन्दे भारत में तो खैर आप अपनी सीट समेत घूम सकते हैं।
खैर, बायीं ओर खिड़की वाली सीट पर बैठा नौजवान मोबाइल पर अपनी ही दुनिया में व्यस्त था। मेरे दाहिने ओर की सीट पर लगभग सत्तर वर्षीय एक बुजुर्ग महिला बैठी थी जो अपने बेटे के पास दिल्ली जा रही थी। ऐसा उनकी बातों से लगा। कानपुर में ट्रेन रूकी। कुछ लोग उतरे और कुछ चढ़े। अब डिब्बे की लगभग सारी सीटें भर चुकी थी। गाड़ी अब बिल्कुल ही धीरे धीरे चल रही थी मानो गाड़ी अब हिम्मत हार चुकी हो। शायद इस बात को वो समझ गई थी कि अब किसी भी हालत में नई दिल्ली समय पर पहुंच पाना नामुमकिन है। गाड़ी की गति को देखते हुए हम लोगों ने भी संतोष कर लिया था कि रात में इस ठंड के मौसम में नई दिल्ली पहुंचे इससे तो अच्छा है कि सुबह पहुंचे ज्यादा बेहतर होगा।
खैर! यह सब उधेड़बुन चल ही रहा था कि अचानक से ऐसा लगा कि हमारे बगल में जो बुजुर्ग अम्मा बैठी हुई हैं सीट को पीछे करने को लेकर कुछ परेशान हो रही हैं। पीछे वाली सीट पर बैठा कम उम्र का नौजवान उन्हें ऐसा करने से रोक रहा है। खैर, लोगों के समझाने पर वो मान गया, पर अम्मा यह बात बिल्कुल ही बर्दाश्त नहीं कर सकीं कि कोई उनकी बातों की अवहेलना करने की जुर्रत करे। बुजुर्गों के संदर्भ में एक बात देखने को मिलती है कि वो इस बात को कतई बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं कि कोई कम उम्र का व्यक्ति उनके समक्ष किसी तरह की चुनौती पेश करे। यह उम्र का फासला जिसे हम जेनरेशन गैप कहें तो ज्यादा उचित रहेगा, वो इसे नहीं समझ पाते हैं।
अम्मा जो लखनऊ से ट्रेन पर सवार हुई थीं, उनकी भाषा से यह बात स्पष्ट हो रही थी कि वो ख़ालिस लखनवी हैं और उन्हें अपने लखनवी होने का इल्म भी है और नाज़ भी। नाज़ क्यों ना हो! पहले आप, पहले आप, की तहज़ीब के साथ आगे बढ़ता हुआ नवाबों का शहर लखनऊ। अपनी नज़ाकत और नफ़ासत के लिए मशहूर!
अम्मा ने तो उस नौजवान को सामने से तो कुछ नहीं कहा, पर हवा में ही तीर चला दिया –
” कनपुरिए हैं ना! उज्जड़ तो होंगे ही “
मैंने आजतक कानपुरी लड्डू के बारे में सुना था, पर यह एक नई जानकारी मुझे मिली।
हम सभी उनकी बातों को सुनकर मुसकुराए, पर कहा किसी ने भी कुछ नहीं। ट्रेन का सफर होता ही कुछ ऐसा है। आनंद के साथ ही साथ अनुभव भी। बस आप अपनी इन्द्रियों को खुला रखें।
अब गाड़ी भी धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी। जहां की दूरी उसे एक घंटे में तय करनी चाहिए थी वो दूरी दो से ढाई घंटे में तय हो रही थी। अब खाना भी आ चुका था। सभी लोग खाना खाकर किसी तरह बैठे बैठे ही सोने की कोशिश कर रहे थे।
गाड़ी की कम स्पीड को देख अम्मा ने फिर हवा में ही अपना बयान दर्ज कराया –
” ज़रूर ड्राइवर बिहार का होगा! तभी तो ट्रेन धीरे धीरे चला रहा है “
मैं क्या बोलता! हूँ तो मैं बिहार का ही। थोड़ा मन किया कि प्रतिकार करूं, पर अनजानों की बातों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना व्यर्थ है और ख़ासकर किसी बुजुर्ग की बात पर। बस हौले से मुस्कुराएं और वातावरण का मजा लें।
इसी तरह अम्मा अपने तीर हवा में चला रहीं थीं। हम सभी हौले हौले मुस्कुराते हुए उनकी बातों का लुत्फ़ उठा रहे थे। गाड़ी धीरे धीरे और लेट होती जा रही थी।हम लोग सभी अपने अपने तरीके से कयास लगा रहे थे कि गाड़ी कब दिल्ली पहुंचेगी। किसी को दिल्ली से कहीं और जाने के लिए सुबह वन्दे भारत ट्रेन पकड़नी थी तो किसी को फ्लाईट पकड़नी थी।
सभी के अनुमान को फेल करती हुई हमारी ट्रेन सुबह के लगभग नौ बजे नई दिल्ली स्टेशन पर पहुंचती है। कई लोगों की आगे की यात्रा की ट्रेन छूट गई तो कईयों की फ्लाइट। कहने को और सांत्वना देने के लिए तो शब्द – प्रारब्ध है ही, पर क्या सब कुछ प्रारब्ध मान लेना चाहिए? एक यक्ष प्रश्न!