रविवारीय: साइकिल वाली बाई
एक ऐसा रिश्ता, जो कहीं , कभी और किसी से कहा नहीं गया, समझाया नहीं गया, पर हर रोज़ जीया गया। जी हाँ, कुछ ऐसा ही रिश्ता था हमारा उस “साइकिल वाली बाई” के साथ — यही नाम तो रखा था हमने उसका। असल में नाम तो कभी पूछा ही नहीं, ज़रूरत भी नहीं पड़ी। फिर भी, एक अनकहे परिचय की डोर हम दोनों के बीच बंध गई थी, जो हर दिन के साथ थोड़ी और मजबूत होती जाती थी।
हमारे कार्यालय जाने का समय और शायद उसके काम पर निकलने का समय लगभग एक ही होता था। दो कदम आगे या पीछे, पर लगभग रोज़ हमारी मुलाक़ात हो ही जाती थी — सड़क किनारे, ट्रैफिक सिग्नल पर, या बस यूँ ही चलते-चलते। कभी वह मेरी नज़रों के सामने से गुज़रती और कभी मैं उसके सामने से निकल जाता।
पता नहीं, जैसे मैंने उसे नोटिस किया था, क्या उसने भी कभी मुझे देखा था ? शायद नहीं, शायद हाँ — कौन जाने। न कोई बात, न कोई अभिवादन। कोई रिश्ता नहीं था हमारा उसके साथ, पर रोज़-रोज़ आते-जाते एक अनाम-सा संबंध ज़रूर हमारे भीतर जन्म लेने लगा था। अगर किसी दिन वह नहीं दिखती, तो लगता जैसे शहर की चहल-पहल में कुछ अधूरा रह गया हो। जैसे किसी जाने-पहचाने चेहरे की अनुपस्थिति ने दिन को बेरंग कर दिया हो।
उसकी उम्र कोई पैंतालीस-पचास के आसपास रही होगी। न बहुत लंबी, न बहुत छोटी — एक औसत कद-काठी की महिला थी वह। चेहरा थोड़ा साँवला, पर आत्मविश्वास से भरा। पहनावे में सादगी थी, पर चाल में दृढ़ता। उसे कभी इधर-उधर देखते नहीं देखा — न कोई उत्सुकता, न कोई झिझक। ऐसा लगता था मानो वह एक मशीन की तरह यंत्रवत अपने तय रास्ते पर बढ़ती चली जा रही हो। न धूप की परवाह, न ट्रैफिक की चिंता। आँखें सीधी सड़क पर, और पैर पैडल पर मजबूती से टिके हुए।
कभी-कभी सोचता था — कहाँ जाती है वो ? क्या करती है? कौन लोग हैं उसके अपने? पर फिर खुद ही सवालों को धुँधला कर देता। शायद जान लेना उस अजनबीपन की मिठास को छीन लेता, जो इस रिश्ते की सबसे ख़ास बात थी।
भीड़-भाड़ के उस घंटे में, जब चारों ओर लोग ही लोग होते, कितनी अजीब बात है ना कि किसी एक की उपस्थिति जो इतनी साफ़ महसूस होती है।
कभी सोंचता हूँ , यह क्या था ? यह रिश्ता क्या था? शायद कुछ भी नहीं, शायद बहुत कुछ। रोज़ की एक आदत, या शायद एक मौन संवाद, जो न कभी कहा गया, न कभी सुना गया, बस — हर दिन महसूस किया गया।


Review of the Article: “Cycle Wali Maid”
The article “Cycle Wali Maid” offers a heartwarming and thought-provoking glimpse into the life of a domestic worker whose simplicity, dedication, and dignity stand as a silent lesson for many of us. Through the lens of her humble daily routine—riding her cycle from home to work—the writer captures the essence of perseverance, self-respect, and quiet resilience.
More than just a narrative about a maid, the article subtly challenges the reader to reflect on societal attitudes towards labour, class distinctions, and what truly defines success. The protagonist, though economically modest, is emotionally rich—strong in values, unwavering in discipline, and proud of her independence.
The story is both inspiring and humbling, reminding us that real dignity lies not in one’s wealth or status, but in one’s character and actions.
A beautifully written piece that deserves appreciation for its sensitivity and its ability to spark introspection.
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Regards
“साइकिल वाली बाई” शीर्षक पर आधारित यह ब्लॉग एक ऐसे रिश्ते को उजागर करता भावनात्मक संस्मरण है, जो किसी संवाद, परिचय या औपचारिकता के बिना भी जीवंत था। यह ब्लॉग श्री वर्मा जी के निज व्यक्तित्व का आईना है, जो शहरी जीवन की भागदौड़ में भी इंसानी जुड़ाव की कोमलता और संवेदनशीलता को बड़े ही सादगीपूर्ण और प्रभावी ढंग से उजागर करता है।