
रविवारीय: रफ्तार
राष्ट्रीय राजमार्ग पर गाड़ी अपनी गति से आगे बढ़ रही थी और जहां यातायात कम होता था, गाड़ी की रफ्तार स्वतः ही बढ़ जाती थी। अचानक मेरी नज़र राजमार्ग पर आगे चल रही आठ-दस नवयुवकों की एक टोली पर पड़ी। वे अपनी-अपनी बाइकों पर सवार थे। उनमें से एक युवक बिना किसी भय के बाइक का हैंडल छोड़कर बिंदास अंदाज़ में बाइक चला रहा था, जबकि बाकी साथी उसकी इस हरकत का रील बना रहे थे।
मेरी पहली स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी—”अरे! ये लोग क्या कर रहे हैं?” पर, तत्क्षण मैंने खुद को नियंत्रित किया। फिर एक दूसरा विचार मन में आया—अभी नहीं करेंगे तो कब करेंगे? क्या बुढ़ापे में, मेरी उम्र में आकर इस तरह की हरकत करेंगे? अरे भाई! अभी तो उम्र है इनकी। परिणामों की चिंता एक उम्र बीत जाने के बाद लोग करते हैं। अभी तो दुनिया उनकी जेब में है। कर लेने दो इन्हें दुनिया मुट्ठी में। अभी तो इन्हें ज़िंदगी जी लेने दिया जाए!
ये सारी बातें मेरे दिमाग में ही घूम रही थीं… अचानक मुझे मेरे साथ बीता हुआ एक पुराना वाक़या याद आ गया। पुरानी बात है, तब मैं भी उस उम्र में था जहां दुनिया मेरी जेब में थी। हौसला मुट्ठी में दुनिया करने का था। कुछ करना है तो बस करना है। परिणाम क्या होगा, इस बारे में कभी सोचा ही नहीं। अच्छी दुनिया थी वो! आज की मेरी दुनिया से बिल्कुल अलग। बेफिक्री का आलम था। किसी बात की कोई चिंता नहीं, कोई फ़िक्र नहीं। पिताजी का होटल चलता था, तो भोजन की समस्या नहीं थी। मां से किसी न किसी तरह, उसे समझा-बुझाकर कुछ पैसे भी हासिल हो जाते थे। अपने स्कूटर के पेट्रोल का इंतजाम हो जाता था।
ख़ैर! वाक़या यह था कि रविवार की शाम थी। उस वक्त रविवार की शाम दूरदर्शन पर फ़िल्म आया करती थी। आज जैसे तमाम चैनल नहीं थे और ना ही मनोरंजन के बहुतेरे साधन। रविवार की फ़िल्म का लोगों को इंतज़ार रहता था। उस दिन की बात थी। दूरदर्शन पर “डैडी” फ़िल्म का प्रसारण होना था। मैंने सोचा क्यों न इस फ़िल्म को अपने मित्र के साथ देखा जाए। निकल पड़ा अपने मित्र के घर जाने के लिए। तब मेरे पास वेस्पा स्कूटर हुआ करता था। ठंडी हवा के साथ हल्की-हल्की बारिश भी हो रही थी। मौसम बड़ा ही खुशगवार और रोमांटिक था।
जैसे ही मैं अपने घर से निकलकर मुख्य सड़क पर आया, तभी मेरी दाहिनी ओर से एक ओवरकोट पहने हुए एक बाइक सवार ने मुझे तेजी से ओवरटेक किया। सड़क के दाहिनी ओर पूरा पानी भरा हुआ था। उसने इस तरीके से ओवरटेक किया कि मैं पूरी तरह से पानी से नहा गया। एक पल को मैंने सोचा, चलो अब घर लौट चलते हैं। फिर, जैसा कि मैंने बताया, वो उम्र का वह दौर था जब दुनिया मेरी जेब में हुआ करती थी। कैसे बर्दाश्त कर लेता उसका यूं बाइक ओवरटेक कर मुझे बारिश के जमे हुए पानी से नहला देना! अगले ही पल मैंने उसका पीछा करने का फैसला किया। लगभग चार से पांच किलोमीटर पीछा करने के बाद मैंने अपने स्कूटर से उसे धक्का देकर गिराया। तब मुझे इस बात का बिल्कुल भी अहसास नहीं रहा कि ऐसा कर मैं भी अपने आप को खतरे में डाल रहा हूँ। अब आप समझ सकते हैं बाद का दृश्य क्या रहा होगा? झगड़ा हुआ बीच सड़क पर। जमकर हुआ। दोनों ने अपने तरकश में रखे तीरों को जमकर चलाया। विभिन्न रेंज की मिसाइलें छोड़ी गईं। पर एक बात—मन को बड़ी तसल्ली हुई, जब मैंने अपने मन की सुनी।
अब आप सोच रहे होंगे कि इन सब बातों का यहां क्या मतलब? वही तो मैं बताना चाह रहा हूँ—उम्र क्या होती है। युवावस्था क्या होती है। यह वो उम्र होती है जब आप आत्मविश्वास से लबरेज होते हैं। ज्ञान का अथाह सागर आपके पास होता है। आपकी उंगलियों की नोक पर चीजें उपलब्ध रहती हैं। कुछ कर गुजरने की तमन्ना होती है। एक जोश होता है। परिणाम की चिंता आप बिल्कुल ही नहीं करते हैं। यह तनाव और दबाव की बातें तब कहां समझ में आती थीं! आज इन्होंने हमारे शरीर में अपना घर बना लिया है। उच्च रक्तचाप को बड़े आदर से हमने अपने यहां बुलाया है। ये ऐसे मेहमान हैं कि एक बार आ गए तो जाने का नाम ही नहीं लेते। ताजिंदगी आपके घर में रहते हैं, एक अहम सदस्य की तरह, जिनकी मेहमाननवाजी में कोई कमी नहीं होनी चाहिए।
हां, अंत में आज के युवाओं से बस एक अपील—आपको जो भी करना है करें, बस जोश में अपना होश ना खोएं। तमाम तरह की दुर्घटनाओं को आप आमंत्रित करते हैं जब आप जोश में होश खो बैठते हैं। यह मैं नहीं कह रहा हूँ। यह हमारी आज की अवस्था, हमारी उम्र, जो हमसे यह कहने को कह रही है। सड़क पर स्टंट तो कदापि ना करें। आपके आगे पूरी ज़िन्दगी पड़ी है उसे जिंदादिली से जीएं।
Good observation & advice in general
युवा शक्ति के लिए उपयुक्त लेख। बहुत सुंदर आलेख।
श्री वर्मा जी द्वारा लिखित यह ब्लॉग न केवल एक घटना का विवरण प्रस्तुत करता है, अपितु युवावस्था की मानसिकता और परिपक्वता के बीच के अंतर को भी दर्शाता है। लेखक ने अपने संस्मरणों के माध्यम से स्पष्ट किया है कि युवा अवस्था में आत्मविश्वास और उत्साह प्रबल होता है, लेकिन अनुभव और परिणामों की परवाह कम होती है।
श्री वर्मा जी की लेखन शैली में आत्मकथात्मकता और व्यंग्यात्मकता का सुंदर समावेश है। ब्लॉग की शुरुआत सड़क पर तेज़ गति से चलने वाले युवकों के साहसी (या कहें कि लापरवाह) व्यवहार से होती है, जो आज की युवा मानसिकता को दर्शाती है। ब्लॉगर अपनी प्रतिक्रिया को स्वाभाविक रूप से प्रस्तुत करते हैं और फिर स्वयं अपने अतीत की ओर मुड़ते हैं, जहाँ वे भी इसी तरह की नादानियों का हिस्सा रहे थे। भाषा सरल, प्रवाहमयी और भावनात्मक है, जिससे पाठक सहज ही इससे जुड़ जाता है। ब्लॉग का उद्देश्य केवल युवा जोश का चित्रण करना नहीं, बल्कि “जोश में होश न खोने” की परिपक्व चेतावनी देना भी है। लेखक युवाओं को किसी भी रोमांचक अनुभव से वंचित करने के पक्ष में नहीं हैं, बल्कि यह संदेश देना चाहते हैं कि जीवन की रफ़्तार का आनंद लेने के साथ-साथ सुरक्षा और विवेक भी ज़रूरी हैं।
यह लेख/ब्लॉग युवाओं के अति-उत्साह और अनुभवहीनता के बीच संतुलन स्थापित करने की सीख देता है, जिसमें स्मृतियों का सुगठित प्रयोग और परिपक्वता का सार्थक दृष्टिकोण है।