
रविवारीय: निठल्ले की डायरी की प्रासंगिकता
कुछ दिन पहले की बात है, मैं सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी की पुस्तक निठल्ले की डायरी के पन्नों को पलट रहा था। पन्नों को पलटने के दौरान ही एक बड़े ही दिलचस्प प्रसंग से मेरा साबका पड़ा।
मैंने पाया कि गांव का एक भोला भाला, सीधा सा नौजवान दरोगा की नौकरी पा जाता है और प्रशिक्षण के बाद उसकी नियुक्ति एक अदद थाने में लग जाती है। उस थाने में चोरी की एक रपट लिखाई जाती है और उसके अनुसंधान की ज़िम्मेदारी दरोगा जी को दी जाती है। दरोगा जी बिचारे सीधे साधे सरल स्वभाव के इंसान। छल कपट से कोसों दूर। सभी से विनम्रता पूर्वक बात करने वाले, पहुंचते हैं उस गांव में जहां के लोगों ने चोरी की रपट लिखाई थी। बड़ी ही विनम्रता पूर्वक वो बड़ों से पूछताछ कर रहे थे।
लोगों को उनके पूछताछ का तरीका बड़ा अजूबा लग रहा था। एक दरोगा जो तुम तड़ाम और गालियों की भाषा से इतर बातें नहीं करता हो वो इतनी विनम्रता पूर्वक बातें कर रहा था। चाय पानी पूछने पर विनम्रता से उसने इंकार कर दिया। लोगों ने उसे रिश्वत देने की कोशिश की, उसे भी उसने बड़ी ही शालीनता और विनम्रतापूर्वक मना कर दिया।
अब लोगों को लगा, हो ना हो यह व्यक्ति कोई बहरुपिए का भेष में यहां दरोगा बन कर आया है। ऐसा व्यवहार करने वाला व्यक्ति जो चाय पीने से भी इंकार कर रहा हो। रिश्वत की बात करने पर विनम्रता से मना कर दे रहा हो दरोगा तो कतई नहीं हो सकता है। अब गांव वाले उस दरोगा से ही पूछताछ करने लगते हैं कि बताओ तुम कौन हो ? वो बिचारा बता रहा है कि वो दरोग़ा है और यहां जांच के सिलसिले में आया है। गांव वालों को उसकी बातों पर यक़ीन नहीं होता है। उसकी सहजता और विनम्रता ही उसके विरुद्ध प्रमाण बन जाती है। वो उसे नक़ली दरोगा समझ एक पेड़ से बांध कर पीटने लगते हैं। किसी तरह से यह ख़बर फैल जाती है और थाने से आकर लोग उन्हें छुड़ा लिए जाते हैं।
अब देखिए आगे क्या होता है। इस घटना से उसके दिलो-दिमाग पर गहरी चोट पहुंचाई। यही सीधा साधा, विनम्रता से बातें करने वाला इंसान अब अपने गांव, अपने घर पहुंचता है। अब वो बिल्कुल ही बदला बदला सा नजर आता है। अब वो सीधे मुंह किसी से बातें नहीं करता है। सभी से तू तड़ाक कर बातें करना। बात बात पर गालियों का इस्तेमाल। गांव घर के लोग बड़े ही आश्चर्यचकित! आखिर इसे क्या हो गया है ? कहीं यह पागल तो नहीं हो गया है ? बड़ी हिम्मत करके गांव के एक बुजुर्ग व्यक्ति ने उससे बात की। पूछा कि इस तरह से क्यों व्यवहार कर रहे हो ? तुम तो ऐसे नहीं थे। क्या हो गया है तुम्हें ? तुम्हें इस हाल में बदले हुए स्वरुप में देख हम सभी चिंतित हैं।
कुछ देर की चुप्पी के बाद उसने बताया। पढ़ लिख कर मैं दरोगा तो बन गया। प्रशिक्षण पाकर मेरी दरोगा के पद पर नियुक्ति भी हो गई। नौकरी के दौरान अपने काम के सिलसिले में मैं जब बाहर निकला तो मुझे समझ आया कि मेरी ट्रेनिंग अधुरी रह गई है। पद के अनुरूप मैं अपने आप को ढाल नहीं पाया। अब मैं अपने पद के अनुरूप बनने की कोशिश कर रहा हूं। बस इतनी सी बात है। मुझे क्षमा करें।
इस बात को सुनकर बुजुर्ग बिचारे बिल्कुल नि: शब्द रह गए। समाज के इस विचित्र सत्य को जान वो भी असमंजस में पड़ गए।
कहने को तो यह महज़ एक व्यंग्य है, पर कहीं ना कहीं समाज की सच्चाई को यह बड़े ही माकूल तरीके से प्रस्तुत करता है। यहां विनम्रता और ईमानदारी ही उसकी कमजोरी और उसके काम में बाधक बन जाती है। अगर होली दीवाली पर आपके घरों में मिठाई का डिब्बा नहीं पहुंचता है तो फिर काहे का आप अधिकारी हैं? सत्ता, पद और सामाजिक स्वीकृति के बीच एक कश्मकश एक अंतर्द्वंद्व है यह कहानी।
श्री वर्मा जी ने हरिशंकर परसाई की व्यंग्यात्मक रचना “निठल्ले की डायरी” के माध्यम से समाज के एक कटु सत्य, जिसमें ईमानदारी और विनम्रता को कमजोरी समझा जाता है, को उजागर किया है। यह कहानी दरोगा के चरित्र के माध्यम से सत्ता और सामाजिक स्वीकृति के द्वंद्व को बहुत ही प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है। इस व्यंग्य में परसाई जी ने नौकरशाही, भ्रष्टाचार और समाज की मानसिकता पर तीखा प्रहार किया है। दरोगा का प्रारंभिक स्वरूप आदर्शवादी है, लेकिन समाज उसे स्वीकार नहीं करता। उसे अपने आदर्शों को त्यागकर उसी कठोर और भ्रष्ट वातावरण में खुद को ढालना पड़ता है, जिसमें बाकी अधिकारी काम करते हैं। यह परिवर्तन केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे तंत्र की विफलता को दर्शाता है। कहानी का अंत पाठक को असमंजस और चिंतन की स्थिति में छोड़ देता है।
श्री वर्मा जी का यह ब्लॉग हास्य या मनोरंजन तक सीमित नहीं रहता, बल्कि सामाजिक मूल्यबोध पर एक गहरी चोट भी करता है। सत्ता और पद की स्वीकृति के लिए व्यक्ति को अपनी मूलभूत मानवीयता को त्यागना पड़ता है—यही सबसे बड़ी विडंबना है।
Satire at its best.
बहुत ही अच्छा टॉपिक, जिस पर कितनी ही चिंतन की जाए अंततः अनुतरित ही रहेगा एवं यह हमारे समाज में व्याप्त अजूबे व्यावहारिकता को दर्शाता है।