रविवारीय: मज़दूरों की फौज
– मनीश वर्मा ‘मनु’
गांवों के बाजारों से लेकर शहर के हर गली, नुक्कड़ और चौराहों पर प्रतिदिन सुबह- सुबह आसपास के गांवों और कस्बों से हाथों में एक झोला और उसमें टिफिन बॉक्स रखे हुए, साइकिल से झुंड में आते हुए मज़दूरों की एक फौज से आमना सामना होता है। ये सभी दिहाड़ी मजदूर होते हैं। दिन भर काम करते हैं और शाम को अपना पारिश्रमिक ले वापस अपने अपने घरों को लौट जाते हैं।
मज़दूरों की इस फौज में क्या जवान, क्या अधेड़, बुजुर्ग भी दिख जाते हैं। क्या करें बेचारे बुजुर्ग भी? यह उम्र भी क्या मजदूरी ढूंढने की होती है। पर, अगर मजदूरी नहीं करेंगे तो खाएंगे क्या ? कौन खिलाएगा उन्हें दो वक्त का खाना । साहब, दो वक्त की रोटी का ही तो सवाल है, वरना इस उम्र में कौन बाहर निकल मजदूरी ढूंढता है। हां, पर एक सुकून की बात है । अभी तक इस भीड़ में शामिल कोई महिला मुझे नहीं मिली है। हालांकि इस बात से इन्कार नहीं है कि महिलाएं भी मजदूरी कर रही हैं। शायद उनके कामों में इतनी प्रतिस्पर्धा नहीं है। हर हाथ को काम मिल जाता है, शायद इसीलिए वो सड़कों पर नजर नहीं आती हैं।
मैं मज़दूरों की फौज को देखता हूँ । काम की तलाश में जूझते उन्हें देखता हूं। कुछ देर के लिए मैं कहीं खो सा जाता हूँ। मुझे लगता है कि उनके साथ ही साथ मैं भी एक मजदूर बन गया हूँ । मैं वाकई मजदूर बनकर सोचने लगता हूँ । मेरे अंदर एक मजदूर की आत्मा अब निवास कर रही है।
अगर आज मज़दूरी नहीं मिली तो शायद रात में घर में खाना नहीं बनेगा। आज सुबह तो किसी तरह से पत्नी ने कुछ इधर उधर करके, आसपास से मांगकर मुझे भी कुछ खिला कर, टिफिन बॉक्स देकर काम पर भेजा है। बच्चों के लिए भी उसने ज़रूर ही कुछ बचाया होगा, पर बेचारी उसने शायद ही कुछ खाया होगा। वो तो शाम में मेरे लौटने का इंतजार करती है । उसे मेरे आने का शिद्दत से इंतज़ार रहता है। मैं आऊंगा, आज का मेहनताना होगा मेरे पास। बनिए का पुराना उधार भी तो चुकता करना है। उधार चुकता कर वो फिर से उधारी पर आटा – चावल लाएगी। हर दिन की एक ही तो कहानी है। जिंदगी भूख से शुरू होकर भूख पर ही खत्म हो जाती है। भूख से फुर्सत मिले तो कुछ और सोचें। बेचारी वो भी इसी इंतज़ार में सुबह से ही भूखी है। बच्चों को सुबह का बासी दो कौर खिला कर उसने सुला दिया है।
मैं सोच रहा था मजदूरों के बीच मजदूर बनकर उनके हालात के बारे में। अचानक से मेरी तंद्रा भंग होती है। देखते ही देखते देखते दो घंटे गुजर गए थे। धीरे धीरे लगभग सभी मज़दूरों को कोई ना कोई अपने साथ ले गया काम करवाने को। वहां बच गए थे थोड़े से मुट्ठी भर मजदूर जिन्हें आज काम नहीं मिल पाया था। उनमें से कई तो उम्र की वजह से इस लायक नहीं समझे गए कि वो मजदूरी कर पाएंगे। अब तो उनके दो जून की रोटी पर भी आफत है।
कइयों का स्वास्थ्य दगा दे गया। कुछ बेचारे बदकिस्मत बच गए जिन्हें मजदूरी नहीं मिली। मैं तो उन्हें बदकिस्मत ही कहूंगा। उनके साथ ही साथ पुरे परिवार की बदकिस्मती जुड़ी हुई है। उस बेचारे के मनोभाव को थोड़ा हमने समझने की कोशिश की। बेचारा इस उधेड़बुन में लगा हुआ है कि आज शाम की रोटी कैसे सिकेंगी। बच्चे बेचारे आज फिर भूखे सो जाएंगे। बचत तो है नहीं कि काम चलाया जाए। “नंगा नहाएगा क्या और निचोड़ेगा क्या”!
कभी -कभी बड़ी कोफ़्त होती है। सामाजिक सुरक्षा इन लोगों के लिए क्यों नहीं है? क्या ये हमारे अपने नहीं हैं? कभी बीमार पड़ गए तो आस पड़ोस से मांगने की नौबत आ जाती है, पर आखिर कब तक?
अगर खुदा ना ख़ास्ता किसी वीआईपी बीमारी ने हाथ डाल दिया तो शायद बीमारी को रहम आ जाए, पर महाजन कहां छोड़ने वाला? वो तो जान लेकर ही छोड़ेगा। भूख से लड़ते लड़ते कब जिंदगी साथ छोड़ जाती है पता भी नहीं चलता है। सब कुछ भगवान् की मर्जी मान फिर से अगले दिन काम पर निकल पड़ते हैं। भूख कहां मौत का भी मातम मनाने देती है।
पर, करें तो क्या करें। यही तो जिंदगी है बस्स दो जून की रोटी की कवायद से शुरू होकर वहीं पर खत्म हो जाती है। इंसान चाहे कितना भी जोर लगा लें। अंत समय का हिसाब किताब बिल्कुल बराबर – बराबर। किसी को कुछ भी नहीं पता, फिर भी अगर मगर के चक्करों में पड़े हुए हैं।