रविवारीय: लिविंग विल
मुंबई के पी. डी. हिंदुजा अस्पताल ने हाल ही में देश के पहले ‘लिविंग विल क्लीनिक’ की शुरुआत की है। यह क्लीनिक एक सुरक्षित और संवेदनशील मंच प्रदान करता है जहाँ व्यक्ति खुलकर अपने ‘एंड ऑफ लाइफ’ (जीवन के अंतिम चरण) के विकल्पों के बारे में बातचीत कर सकता है। यह क्लीनिक सिर्फ़ काग़ज़ी कार्यवाही नहीं करता, बल्कि यह सुनिश्चित करता है कि ‘लिविंग विल’ यानी ‘जीवन इच्छा’ न सिर्फ़ क़ानूनन मान्य हो, बल्कि चिकित्सा नैतिकता के दायरे में भी हो।
कहाँ से कहाँ आ गए हम! अब जाकर ऐसा लगता है मानो हम सच्चाई को स्वीकार कर रहे हैं। अब तक तो हम भ्रम की दुनिया में जी रहे थे । मौत से हमारी लड़ाई जारी थी ।
हममें से लगभग सभी ने कभी न कभी यह अनुभव किया है कि जब घर के किसी बुजुर्ग की तबीयत अचानक बिगड़ जाती है और उन्हें आईसीयू या वेंटिलेटर पर रखा जाता है, तो परिवार एक उधेड़बुन में फँस जाता है। क्या करे और क्या न करें। अनिर्णय और असमंजस की स्थिति बन जाती है। निर्णय लेने से हम बचना चाहते हैं। खैर!
एक बार मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ जब डॉक्टर ने मेरी माँ के संदर्भ में जो उस वक्त वेंटिलेटर पर थीं और जीवन और मृत्यु से लड़ रहीं थीं उस मामले में जब डॉक्टर ने मुझसे मेरा निर्णय जानना चाहा तो मेरे पास उन्हें देने के लिये कोई जवाब नहीं था। कैसे कोई यह निर्णय ले सकता है? खुदा ना खवासते अगर निर्णय गलत हो गया तो ताजिंदगी आप खुद को खुद से छुपाते फिरेंगे।
“जब तक साँस है, तब तक आस है” — इस भावना के साथ हम हर संभव प्रयास करते हैं:
• डॉक्टरों से मिन्नतें करते हैं,
• लाखों रुपए इलाज में खर्च कर डालते हैं,
• कर्ज़ लेते हैं,
• ज़मीन-जायदाद तक बेच देते हैं।
फिर भी अक्सर हम उन्हें नहीं बचा पाते। इन सबके बीच शायद हम यह भूल जाते हैं कि रोगी किस शारीरिक और मानसिक यातना से गुजर रहा होता है। न वो बोल सकता है, न कुछ कह सकता है — बस कुछ मशीनों के सहारे चलती साँसों में उलझा हुआ जीवन। यह सिर्फ़ एक जीवन नहीं, एक असहाय संघर्ष होता है, जिसकी कोई गरिमा नहीं होती।
हाल ही में एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अख़बार ने एक खास रिपोर्ट प्रकाशित की थी —“कैन यू चूज़ हाउ यू डाइ ? सम इंडियंस आलरेडी हैव।” पहली नज़र में यह मुझे थोड़ा अटपटा और असहज सा लगा। कैसे कोई अपनी मृत्यु के बारे बातें कर सकता है ? मृत्यु के बारे में हम भारतीय आम तौर पर बातें नहीं करते—ना ही सुनना चाहते हैं, न ही सोचने की हिम्मत करते हैं। सामान्य सामाजिक जीवन में एक तरह से वर्जित शब्द है यह। मृत्यु एक शाश्वत सत्य है, फिर भी इसकी कल्पना मात्र से ही हम सिहर उठते हैं । कोई भी व्यक्ति मरना नहीं चाहता है , फिर वो मृत्यु के तरीके को कैसे चुन सकता है? परंतु जैसा अक्सर कहा जाता है, वक़्त ही इंसान को वक़्त से लड़ने के लिए तैयार करता है।
आज की पीढ़ी शायद अपने माता-पिता को उस असहाय स्थिति में देख चुकी है, जहाँ जीवन सिर्फ़ एक मेडिकल इमरजेंसी बनकर रह गया है । शायद यही कारण है कि अब लोग अपने लिए गरिमापूर्ण मृत्यु की इच्छा रखने लगे हैं। वे नहीं चाहते कि उनके अंतिम दिन अस्पताल के आईसीयू में मशीनों से जूझते हुए बीते। वे चाहते हैं कि जब इलाज की कोई संभावना न बचे, तो उन्हें शांति से विदा लेने दिया जाए।
‘लिविंग विल’ यानी ‘जीवन इच्छा’ एक ऐसा ही दस्तावेज़ है जिसके माध्यम से कोई भी व्यक्ति अपने होशोहवास में यह तय कर सकता है कि जीवन के अंतिम पड़ाव पर यदि वह किसी ऐसी स्थिति में पहुँच जाए जहाँ उसे होश न हो, या इलाज की कोई संभावना न हो, तो किन इलाजों को वह स्वीकार करेगा और किन्हें नहीं। यह दस्तावेज़ खास तौर पर उन स्थितियों के लिए पहले से ही बनवा लिया जाता है, जहाँ रोगी बोलने या निर्णय लेने की स्थिति में नहीं होता है।भारत में यह अवधारणा नई ज़रूर है, लेकिन इसकी स्वीकार्यता धीरे-धीरे बढ़ रही है। जब किसी गंभीर रोगी की हालत नाजुक होती है और सुधार की कोई संभावना नहीं बचती, तो डॉक्टर और परिजन एक नैतिक संकट में फँस जाते हैं। अक्सर देखा गया है कि आईसीयू में भर्ती कई बुजुर्ग, जिनका शरीर जवाब दे चुका होता है, महीनों तक मशीनों पर निर्भर रहते हैं। न तो परिवार को राहत मिलती है, न मरीज़ को।
भारत में लंबे समय तक यह एक विवादास्पद विषय रहा कि क्या कोई व्यक्ति अपनी मृत्यु से पहले यह तय कर सकता है कि उसे कब और कैसे इलाज मिले या न मिले। लेकिन सन् 2018 में एक ऐतिहासिक फ़ैसले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ‘पैसिव यूथेनिसिआ ’ और ‘लिविंग विल’ को मंजूरी दे दी। तब देश के सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा कि “जीवन की गरिमा में मृत्यु का अधिकार भी निहित है।” कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यदि कोई व्यक्ति पहले से ही यह लिखकर दे देता है कि वह जीवन के अंतिम चरण में कृत्रिम जीवन रक्षक प्रणाली नहीं चाहता, तो उसकी यह इच्छा मान्य होगी। इसे एडवांस डायरेक्टिव या ‘लिविंग विल’ कहा गया। बाद में सन 2023 में इसमें कुछ सुधार किये गए।
‘लिविंग विल’ एक क्रांतिकारी विचार है जो हमें न केवल जीवन की, बल्कि मृत्यु की गरिमा के बारे में सोचने पर मजबूर करता है। यह एक आत्म-मंथन है, एक साहसी निर्णय, और सबसे बढ़कर—एक मानवीय अधिकार। शायद यह समय है कि हम भी इस विषय पर गंभीरता से सोचें। जीवन की तरह मृत्यु भी हमारी है—और उसमें भी हमारी पसंद होनी चाहिए।
‘लिविंग विल’ एक सम्मानजनक विकल्प देता है। इसको अपनाना केवल क़ानूनी या चिकित्सकीय निर्णय नहीं, यह एक नैतिक साहस और स्वतंत्रता का प्रतीक है। यह दिखाता है कि समाज अब इस बात को स्वीकारने लगा है कि मृत्यु कोई पराजय नहीं, बल्कि जीवन का ही एक गरिमामयी पड़ाव है।
हमें यह समझना होगा की “जीवन की तरह मृत्यु भी गरिमापूर्ण है । हर एक व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह तय करे—अंत में उसे कैसे विदा लेना है। लिविंग विल उसी अधिकार को एक स्वरुप प्रदान करता है।” साथ ही साथ हमें यह भी समझना होगा की मृत्यु एक चिकित्सीय विफलता नहीं है। यह ना तो किसी बीमारी से जुड़ी है और ना ही किसी गलती से । हम भ्रम की स्थिति में रहते हैं । सच्चाई का हमें कहाँ भान? मौत तो शरीर की आंतरिक गति है गर्भावस्था से ही शुरू हो जाती है , और जब यह पूरी हो जाती है तब मौत हमें अपने आग़ोश में ले लेती है । हमारी ऊर्जा हर पल ख़त्म होती रहती है और जब इस ऊर्जा का भंडार ख़त्म हो जाता है तब शरीर शांत हो जाता है । यह तो शरीर में स्वतः निर्मित एक प्राकृतिक दैविक क्रियाविधि है। फिर भी आधुनिक चिकित्सा पद्दति ने इसे अपने अनुकूल करने के लिए कुछ कुछ में बदल दिया है, भले ही कोई उम्मीद न हो। मृत्यु तो अवश्यम्भावी है। कोई इसे रोक सकता है भला?


Well written about courage to accept Death as a part of Life..
In the journey of life, there comes a stage when clinging to survival at all costs may lead not to dignity, but to prolonged suffering and silent exploitation — especially when medical interventions become mere tools to extend the inevitable. In such moments, it becomes essential to reflect not just on living, but on living with purpose, peace, and grace.
I have consciously chosen to accept the Living Will, not as a surrender, but as an affirmation — of truth, of personal dignity, and of my belief that “Ant hi aarambh hai” (the end itself is a new beginning).
This decision is a step to free myself and my loved ones from the cycles of artificial life support when no real hope remains, and to avoid being trapped in the exploitative grasp of a medical system that often prioritizes procedures over peace.
Let this act stand not in fear, but in courage — rooted in acceptance and love, with clarity that when the time comes, nature be allowed to take its course gently.
श्री मनीश वर्मा ‘मनु’ ने ‘लिविंग विल’ विषय पर अत्यंत संवेदनशीलता, मानवीय करुणा एवं सामाजिक यथार्थबोध के साथ मृत्यु जैसे जटिल एवं प्रायः वर्जित माने जाने वाले विषय को अद्भुत सहजता, स्पष्टता और गरिमा के साथ वर्णित किया है। श्री वर्मा जी ने न केवल अपने व्यक्तिगत अनुभवों को मार्मिक रूप में साझा किया है, बल्कि भारतीय समाज की मानसिकता, चिकित्सा निर्णयों की दुविधा और ‘लिविंग विल’ की कानूनी एवं नैतिक पृष्ठभूमि का भी अत्यंत संतुलित विश्लेषण किया है। वास्तव में “मृत्यु कोई चिकित्सकीय विफलता नहीं, बल्कि जीवन का स्वाभाविक पूर्णविराम है।” यह ब्लॉग अपनी सरल, भावनात्मक और प्रवाहपूर्ण भाषा के माध्यम से न केवल विषय की गहराई को उजागर करता है, बल्कि मृत्यु के अधिकार को भी एक गरिमामय एवं मानवीय दृष्टिकोण प्रदान करता है।
निःसंदेह, यह ब्लॉग मृत्यु को लेकर एक गंभीर, आवश्यक और साहसिक विमर्श की ओर पहला सशक्त कदम है, जो हमें मृत्यु से भय नहीं बल्कि समझ और स्वीकृति की ओर ले जाता है।
बहुत ही उम्दा लिखा है सर आपने बहुत ही गहरी बात लिखी है।