रविवारीय: लिफ़्ट के बाहर एक अनोखी मुलाक़ात
– मनीश वर्मा ‘मनु’
टॉप फ्लोर पर जैसे ही लिफ़्ट रुकी, हम बाहर आने के लिए दरवाज़ा खोलने को हाथ बढ़ाते ही ठिठक गए। यह पुरानी शैली की लिफ़्ट थी — कॉलैप्सिबल गेट वाली। अब भले ही व्यवहार में नहीं है, पर फिर भी कहीं-कहीं दिख ही जाती है। गंतव्य पर पहुँचते ही बाहर का पूरा नज़ारा आपकी आँखों के सामने खुल जाता है। आपको एक बंद कमरे में कैद होने का अहसास नहीं होता।
रात के करीब साढ़े दस बज रहे थे। ठंड अपनी दस्तक दे चुकी थी। बिल्डिंग में सन्नाटा पसरा था, बस किसी एक मंज़िल से धीमी-धीमी बातचीत और थोड़ी-सी चहल-पहल की आवाज़ें आ रही थीं — समझ नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है।
तभी अचानक सामने वह दिखी — एक मोटी, तगड़ी, ख़ूबसूरत-सी सफ़ेद बिल्ली, अपनी बड़ी-बड़ी आकर्षक आँखों से हमें घूरती हुई।
लिफ़्ट का गेट खोलने के लिए बढ़ा हुआ हाथ वहीं रुक गया। क़दम जैसे ज़मीन से चिपक गए हों। कुछ पल यूँ ही ठिठककर खड़ा रहा, फिर हिम्मत जुटाकर लिफ़्ट से बाहर निकला।
पहली ही नज़र में लग गया कि बिल्ली पालतू है — शायद रास्ता भटक गई है। उसके डील-डौल और घूरने के तरीके ने शुरुआत में डराया ज़रूर, पर मैंने धीरे-धीरे उससे बात करने की कोशिश की।
मगर मैं ठहरा हिन्दी भाषी और वह किसी बाहर के मुल्क की ब्लू-ब्लड विदेशी नस्ल वाली बिल्ली — संवाद का कोई रास्ता निकलना मुश्किल था। फिर भी उसकी आँखों से साफ़ था कि वह हमलावर नहीं, बस परेशान और बेचैन थी। घर से भटक जो गई थी।
वह उस छोटे-से कॉरिडोर में इधर-उधर टहल रही थी, जैसे किसी को ढूँढ रही हो।
कभी रुकती, कभी लिफ़्ट के बाहर झाँकती, नीचे झुककर ऐसे देखती मानो कुछ खोज रही हो।
मुझे डर भी लग रहा था — कहीं वह लिफ़्ट के नीचे छलांग न लगा दे।
हम छत पर टहलने जा रहे थे और सामने यह नई मुसीबत खड़ी हो गई। एक पल को सोचा कि इसे यूँ ही छोड़ आगे बढ़ जाएँ, पर जब उसकी आँखों में देखा तो एक अजीब-सी परेशानी और विवशता दिखी।
थोड़ा गुर्राती ज़रूर थी, पर उस गुर्राहट में झुँझलाहट से ज़्यादा बेचैनी थी — जैसे कहना चाहती हो कि जब तक उसका घर न मिल जाए, हम उसे यूँ अकेला छोड़कर न जाएँ।
हम दोनों अपनी-अपनी भाषा में एक-दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे थे, पर नतीजा वही — बेबसी। आख़िरकार हम दोनों की आख़िरी उम्मीद आँखों की भाषा पर टिक गई, और आश्चर्य कि हम उसी भाषा में एक-दूसरे को सबसे ज़्यादा समझ पा रहे थे।
इसी बीच हमें फिर वही धीमी आवाज़ें सुनाई दीं। पता चला कि यह चहल-पहल उसी बिल्ली को लेकर थी। उसके घरवाले — जब उन्होंने यह तसदीक़ कर लिया कि उनकी बिल्ली ‘रानी’ बिल्डिंग से बाहर नहीं जा सकती — हर फ़्लोर पर उसे ढूँढ रहे थे।
ढूँढते-ढूँढते जब वे टॉप फ्लोर पर पहुँचे और उनकी नज़र अपनी प्यारी बिल्ली रानी पर पड़ी, तो उनकी साँसों में जैसे फिर जान लौट आई।
उनकी आँखों में राहत, प्यार और बेचैनी — सब एक साथ तैर रहा था। उन दोनों के मिलन का वह बड़ा ही दिलचस्प और भावुक पल मेरी आँखों ने क़ैद कर लिया। मैंने उनसे बातें करने की कोशिश की, पर वे उस समय भावनाओं में ऐसे डूबे हुए थे कि मानो वक़्त ठहर गया हो।
और बिल्ली रानी?
उसने हमें मुस्कुराते हुए ऐसे देखा, जैसे कह रही हो —“हमारा साथ बस यहीं तक था।”

एक सकारात्मक और रचनात्मकता से भरा लेखन।
श्री वर्मा जी ने मानव स्वभाव के मूल गुण भय, करुणा और लगाव की मिश्रित अनुभूति को अत्यंत सजीव रूप में उकेरा है। उनका वर्णन सहज ही यह बोध करा देता है कि जीवन की सबसे कोमल और निर्मल अनुभूतियाँ प्रायः उन्हीं क्षणभंगुर, अनपेक्षित मुलाकातों में छिपी होती हैं, जहाँ हम किसी भूमिका या औपचारिकता के बोझ से मुक्त होकर, मात्र एक संवेदनशील मानव के रूप में उपस्थित होते हैं।