रविवारीय: कुछ कही कुछ अनकही
– मनीश वर्मा ‘मनु’
जब पूरी की पूरी कायनात व्यक्ति पूजा में लीन हो, किसी एक विचारधारा को आंखें मूंदकर मानने को तैयार हो, तब हे पार्थ शांत हो जा और चला जा कुछ वक्त के लिए शीत निद्रा में। चला जा।
ले जाओ अपने आपको दूर कहीं और दूर जहां तुम कम से कम अपने आप को सुरक्षित महसूस करा सको। खुद से साक्षात्कार कर सको। जमाना बदल गया है। नजरिया भी बदल गया है। नजरें भी बदल गई है। लोगों के देखने और समझने का अंदाज भी बदल गया है। सब कुछ बदल गया है। बदलाव हमेशा अच्छे के लिए होता है। पर, क्या हमने इसी बदलाव की कल्पना की थी?
दुनिया एक रंगमंच कल भी थी। आज़ भी है। पर, रंगमंचों के किरदार इतनी तेजी से बदलेंगे, समझने में थोड़ी देर हो गई। ख़ैर! बदलता हुआ समय है। कदमताल करना थोड़ा मुश्किल हो रहा है।
बदले हुए समय में अब कोई कौवा आपके मुंडेर पर बैठ किसी अपनों के आने की सूचना नहीं देता है। खैर, शहरों में अब तो कौवे नजर भी तो नहीं आते। अब तो किसी के आने और चले जाने की सूचना सोशल मीडिया के माध्यम से ही मिलती है। सवाल अगर उठते हैं तो जितनी तेजी से उठते हैं, उतनी ही तेजी से ख़त्म हो जाते हैं। क्या करें! बदलाव के नाम पर सब कुछ बदल जाता है। सब स्वीकार्य है। मानना आपकी मजबूरी है।
बचपन के दिनों की यादें हैं। कोई अकेली मैना दिखती थी तो जोड़ीदार को ढूंढने की कोशिश करते थे। अकेली मैना को देखना अपशकुन मानते थे। किसी ग्रंथों में नहीं लिखा था। पीढ़ी दर पीढ़ी बातें चली आ रही थी। कोई तर्क नहीं!अब किसी मैना के जोड़े को देखना शुभ नहीं माना जाता है। क्यों ! क्योंकि अब शहरों में मैनों की चहचहाहटें बंद हो गई है। बदल गए हैं हम। हमारे सरोकार जो बदल गए हैं।
एक समय था जब चिड़ियों की चहचहाहट एवं उनके गुंजन सुनकर सुबह और शाम का अंदाजा लगाया जाता था। पर अब बस बचपन की यादें बनकर रह गई हैं। गौरैया तो अब शायद बुजुर्गों की कहानियों में भी नजर नहीं आते।
अब तो हम अलर्ट मोड पर आ जाते हैं, जब मोबाइल पर व्हाट्सएप की अलर्ट टोन सुनाई पड़ती है। जिंदगी तो बस घूम रही है मोबाइल के इर्दगिर्द। सुबह से शाम तक मोबाइल पर आंखों और उंगलियों की कवायद जारी रहती है। कौन कहता है हम सामाजिक नहीं हैं। जरा व्हाट्सएप, फेसबुक और इंस्टा पर मेरे फैन फॉलोइंग को तो देखो।
अपनों के जीने और मरने की खबरें भी अब डिजिटल हो गई हैं। सूचनाएं अब सोशल मीडिया पर ही उपलब्ध रहती हैं।
अपने आप को चिकोटी काट देखते हैं। क्या हम वही हैं! जी हां! हम वही हैं पर, शायद हमारे देखने और समझने का अंदाज जरूर बदल गया है।
अब ऐसा वक्त आ गया है जब हमें धूप नहीं मिलने की वज़ह से विटामिन डी की गोलियां खानी पड़ रही है। एक वक्त था जब धूप में रहने की वजह से चमड़ियों का रंग बदल जाता था। क्या अब हम भगवान् सूर्य के उपासक नहीं रहें। या, भगवन् ने अपनी ममता थोड़ी कम कर दी है!
पता नहीं! कुछ समझ में नहीं आ रहा है। क्या करें भाई, कलचराइसेशन का युग है। बस बहे चले जा रहे हैं, बिना सोचे समझे धारा के साथ। दौड़े चले जा रहे हैं, एक ना वापस लौटने वाले अंजान मंजिल की तरफ।
प्रासार्गिक