रविवारीय: कोटा का दर्द पढ़ाई से परे
राजस्थान का कोटा शहर आज देशभर में इंजीनियरिंग और मेडिकल जैसे प्रतिष्ठित क्षेत्रों में प्रवेश के इच्छुक छात्रों के लिए एक बहुप्रतीक्षित गंतव्य बन गया है। जैसे ही आप इस शहर में प्रवेश करते हैं, आपकी दृष्टि कोचिंग संस्थानों की श्रृंखलाओं और छात्र-छात्राओं के रेला से टकराने लगती है। यहां हर गली, हर चौराहा एक नई कोचिंग, एक नई उम्मीद और एक नई प्रतियोगिता की कहानी कहता है।
यहाँ लाखों छात्र हर वर्ष देश के कोने-कोने से इस उद्देश्य से आते हैं कि वे प्रतिष्ठित मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेजों में अपना स्थान सुनिश्चित कर सकें। वे दिन-रात की कड़ी मेहनत, परीक्षा के दबाव और घर से दूर रहने की चुनौतियों को झेलते हैं। इन सबके बीच कुछ छात्र अपने लिए एक मजबूत रास्ता बना लेते हैं, तो कुछ मानसिक और भावनात्मक दबाव के सामने टूट जाते हैं।
यह कोई सामान्य बात नहीं है कि कोटा में हर वर्ष दर्जनों छात्र आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठा लेते हैं। आंकड़ों की बात करें तो वर्ष 2024 में कोटा में 26 छात्रों की आत्महत्या की पुष्टि हुई, और 2025 की शुरुआत के कुछ महीनों में ही यह संख्या 14 तक पहुँच गई है। ये आंकड़े सिर्फ संख्या नहीं, उन अधूरी कहानियों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो कभी लिखी ही नहीं जा सकीं।
यहां का हर कोना सफलता सफलता पर शोर मचाता दिखता है। बड़े-बड़े होर्डिंग्स पर चमकते चेहरे, जो बताते हैं कि फलाँ ने नीट में ऑल इंडिया टॉप किया, तो फलाँ ने जेईई में परचम लहराया। लेकिन इन्हीं होर्डिंग्स के पीछे अनकही कहानियाँ भी छिपी होती हैं — उन बच्चों की कहानियाँ जो इस दौड़ में थक गए, चूक गए, और अंततः बुरी तरह टूट गए।
कुछ छात्र यहां अपनी स्वेच्छा से आते हैं, पर कई ऐसे भी होते हैं जो माता-पिता की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की ज़िम्मेदारी लेकर यहां आते हैं। जबकि उनकी रूचि कहीं अन्यत्र होती है।अभिभावकों की यह धारणा कि उनका बच्चा डॉक्टर या इंजीनियर बनेगा, अक्सर बच्चों की अपनी रुचियों और क्षमताओं की अनदेखी कर देती है। यह द्वंद्व कई बार इतना तीव्र हो जाता है कि किशोर मन इसे सह नहीं पाता।
आख़िर उनकी उम्र ही क्या होती है ? 17-18 साल के ये किशोर उस दौर में होते हैं, जहाँ भावनाएँ उफान पर होती हैं, और ज़रा-सी असफलता भी आत्म-विश्वास को गहरे धक्का पहुँचा सकती है। अगर सही मार्गदर्शन, भावनात्मक सहारा और अभिव्यक्ति की आज़ादी न मिले, तो ये दबाव आत्मघाती कदम उठाने पर उन्हें मजबूर कर देते हैं।
आज ही मैंने समाचार पत्र में पढ़ा — कोटा में छात्र आत्महत्या क्यों कर रहे हैं ? यह सवाल कोई और नहीं, देश का सर्वोच्च न्यायालय पूछ रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने कोटा में छात्रों की आत्महत्याओं की बढ़ती घटनाओं को गंभीर चिंता का विषय बताया है और राजस्थान सरकार को फटकार लगाते हुए पूछा है: “आप एक राज्य के रूप में क्या कर रहे हैं ? आपने कभी सोचा कि कोटा में ही क्यों आत्महत्या के इतने मामले हो रहे हैं ?”
कोर्ट की यह टिप्पणी केवल एक संवैधानिक चेतावनी नहीं, बल्कि समाज के हर हिस्से के लिए एक कठोर आईना है — सरकार के लिए, कोचिंग संस्थानों के लिए, और सबसे बढ़कर अभिभावकों के लिए।
आज कोटा एक कोचिंग हब नहीं, बल्कि एक बड़ा शॉपिंग मॉल बन गया है — जहाँ ज्ञान, अभिलाषा, सफलता और दबाव खुलेआम बिक रहे हैं। यह कहना शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कोटा की अर्थव्यवस्था में यहां आकर प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रहे बच्चों का बहुमूल्य योगदान है।यहाँ सफलता की एक तय परिभाषा है: डॉक्टर बनना या इंजीनियर बनना। कोई यह पूछने को तैयार नहीं कि बच्चे की रूचि क्या है ? उसकी प्रतिभा किस दिशा में है?
यह समय है आत्ममंथन का। एक ऐसे समवेत प्रयास का, जिसमें सरकार, शिक्षण संस्थान, माता-पिता और समाज मिलकर यह सुनिश्चित करें कि शिक्षा एक सौदा नहीं, एक सहज, स्वाभाविक और समग्र प्रक्रिया हो। कोचिंग हब की बजाय कोटा को एक ऐसा स्थान बनाना होगा जहाँ बच्चों के सपनों को दबाया नहीं, बल्कि समझा और संजोया जाए। वैसे सिर्फ कोटा ही क्यों ?

कोटा : एक प्रवेश द्वार या दबाव का गलियारा? — ब्लॉग के माध्यम से श्री वर्मा जी ने हम सभी को आइना दिखाने का प्रयास किया है। कोटा एक साधारण शहर के स्थान पर आज सपनों की एक ऐसी मंडी बन गया है जहाँ हर मोड़ पर सफलता की कीमत तय होती है और हर दीवार पर उम्मीदों का बोझ लटकता है। यहां सफलता डॉक्टर या इंजीनियर रूपी एक विशेष ढांचे में ढाली जाती है। परन्तु दूसरा पहलू यह भी है कि इस सांचे में फिट न बैठ पाने वाले लाखों बच्चों की अनकही कहानियाँ हैं, जो चुपचाप दम तोड़ देती हैं। यह विडंबना नहीं तो क्या है कि जिस उम्र में बच्चे खिलौनों से खेलते थे, उस उम्र में अब वे स्कोर और रैंक के बोझ तले कुचले जा रहे हैं। अभिभावकों की आकांक्षाएं जब बच्चों की इच्छाओं को निगलने लगती हैं, तब शिक्षा एक सहज विकास नहीं, बल्कि बोझिल अनिवार्यता बन जाती है। मा0 सुप्रीम कोर्ट का कोटा पर सवाल उठाना केवल एक न्यायिक टिप्पणी नहीं, अपितु एक सामाजिक चेतावनी है। यह प्रश्न केवल राजस्थान सरकार का नहीं, हर उस माता-पिता, शिक्षक और संस्थान का है जो “सपनों की फैक्टरी” चलाने में लगे हैं।
समय आ गया है कि हम कोटा को केवल एक कोचिंग हब नहीं, बल्कि भावनात्मक और रचनात्मक विकास का केंद्र बनाने की पहल करें। शिक्षा का अर्थ सफलता की एक ही परिभाषा तक सीमित नहीं हो सकता। कोटा का हर छात्र केवल एक रैंक नहीं, एक जीवन है, उसकी मुस्कान, संघर्ष और आकांक्षाएं हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है।