रविवारीय
– मनीश वर्मा ‘मनु’
मेरे घर के सामने का ‘हस्पताल’
मैं जहां रहता हूँ वह बस कहने को घर है मेरा। सच कहूँ तो मैं एक कैदी हूँ। दो बटा दो की दुनिया है मेरी। मेरे और जेल में बंद कैदियों में बस इत्ता सा फर्क है कि मैं थोड़ा अपनी मर्ज़ी का मालिक हूँ। अपनी मर्ज़ी से थोड़ा जी लेता हूँ। जब चाहा थोड़ा बाहर निकल आया, थोड़ी हवा खा ली। मेरी मर्जी पर ताला नहीं लगा है अब तक। खैर! बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी! लोग बेवजह उदासी का सबब पूछेगें। चलिए कोई बात नहीं।
मेरे घर के सामने एक हस्पताल है। मेरी नानी हमेशा अस्पताल को *हस्पताल* ही बोलती थी। जब तक ज़िंदा रहीं इस शब्द से परहेज़ किया उन्होंने। मां ने भी अस्पताल नहीं जाना चाहा था। गईं जरूर पर हमारी जिद पर, क्यूंकि हमें लगा था वो वहां महफूज़ रहेंगी। पर फिर वही ईश्वरीय लीला! मजबूर हैं हम सभी।
पूरा का पूरा अस्पताल हमारे भगवान से भरा पड़ा है। फिर भी ………..
जी हाँ! एक बड़ा सा अस्पताल है हमारे घर के सामने। बचपन से ही अस्पताल के नाम से डर लगता था। एक सूई उतनी नहीं चुभती थी जितना उसके चुभन का एहसास हुआ करता था । काश! उस वक्त मालूम होता कि गर सूई चुभ गई, अगर आपने सूई की चुभन का दर्द झेल लिया, उसकी चुभन को महसूस कर उसका डर खत्म कर लिया तो बीमारी तो ख़ुद ब ख़ुद भाग जाएगी । बाकी आपके हाथ में क्या रखा है! सब ईश्वरीय लीला है। विधि का विधान है।
बस! सूई चुभने भर की ही तो बात है। बाद में आप कहां और बीमारी कहां !
हाँ तो मैं कह रहा था, मेरे घर के सामने एक अस्पताल है। दिन भर एम्बुलेंस और मरीजों का आना जाना लगा रहता है। कुछ लोग मरीज़ के साथ होते हैं और वे मरीज़ को जल्द से जल्द अस्पताल के अंदर दाखिले की कवायद में लगे रहते हैं। वहीं कुछ लोग एम्बुलेंस वाले से गणित बिठाने और समीकरण साधने में लगे हैं। एम्बुलेंस का ड्राइवर तो बस इसी उधेड़बुन में लगा होता है कहां से उसे थोड़ा फ़ायदा हो जाए। जिसने ज्यादा फायदा पहुंचाया वह उस मरीज़ के द्वार पर। अमुमन ऐसा ही होता है।
कहां जाते हैं भाई साहब? पूरी की पूरी दुनिया तो आपके नज़रों के सामने है। मंदिर है।भगवान भी हैं , पुजारी भी और हम भक्त भी। एक बड़ा सा घंटा भी लगा है मंदिर के बाहर जो शायद दिखता नहीं है पर आवाज़ ज़ोर से आती है।
बड़ा सा अस्पताल है। कहने को सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं। अनुसंधान भी होता है ऐसा नाम से ही परिलक्षित है। लोग बाग बड़े दूर दूर से आते हैं। कुछ तो बीमारियों को यहीं छोड़ जाते हैं , सदा के लिए। पर कुछ बेचारे बदनसीबों को बीमारी नही छोड़ती। जकड़ लेती है अपने बाहु पाश में। साथ लेकर चली जाती है। दूर कहीं दूर। पता नहीं कहाँ।
अस्पताल की ओर से जब भी सामुहिक रूप से जोर की आवाज आती है, दिल धक से कर जाता है। विकेट के सामने आप पकड़े गए हैं।अंपायर ने बस ऊंगली उठा दी है। कोई डीआरएस नहीं। थर्ड अंपायर की भी कोई भूमिका नहीं। नतमस्तक हो लें।लौट आएं पविलियन।
क्यों मैं लिख रहा हूँ ?????? क्या मैंने वो दुनिया देखी है ? नही तो! हमने बस मान लिया है। और कोई चारा भी तो नहीं है। वहां हम और आप कोई नहीं होते हैं। काश! उस दुनिया को भी हम देख पाते!
डॉक्टर को हमने भगवान का दर्जा दे रखा है। उनके मुंह से निकली हुई हर बात गंगोत्री के जल की तरह पवित्र और निर्मल है। पर क्या करें बेचारे ये भगवान! हमने उन्हें भगवान् का दर्जा जरूर दे दिया है , पर उन्हें मालूम है । वो लाचार हैं सृष्टि के बनाए हुए नियमों और कायदों के सामने। हम आप तो निमित्त मात्र हैं। अपना अपना किरदार निभा रहे हैं। जो किरदार हमें निभाने को दिया गया है बस उसे शिद्दत से निभाने की कोशिश करते हैं। सब मन का वहम है। हम सभी उसी भ्रम में जीते हैं। हमें मालूम है पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।बस हम भी तो घूम ही रहे हैं। अपनी अपनी धुरी के चारों ओर। धुरी का पता नहीं है। ख़ोज जारी है। देखिए! शायद आपमें से किसी को मिल जाए। बताइएगा जरूर। कुछ लोगों ने पुरी जिंदगी में भ्रम फैला रखा है। कुछ नहीं मालूम। किसी को कुछ नहीं मालूम फिर भी ख़ुदा बने बैठे हैं। सृष्टि चल रही है और आप भी चल रहे हैं और हम भी। बस!
बहुत सुंदर हृदय स्पर्शी प्रस्तुति
Very well written article by Manish Verma ji