रविवारीय: वैलेंटाइन डे
– मनीश वर्मा ‘मनु’
वैलेंटाइन डे क्या है? कौन सी बला है यह?
सन् 1990 के आसपास की बात है। हम ठहरे छोटे शहरों के निवासी। बड़े शहरों में कहां आना जाना होता था। दिल्ली तब वाकई दूर हुआ करती थी। बंबई तो खैर, हम सभी के लिए मायानगरी ही थी। एक ऐसी नगरी जिसके बारे में सुना करते थे। जानते कुछ नहीं थे। ऐसा लगता था मानो पूरी की पूरी बंबई एक फिल्म की कहानी हो। सारे लोग एक कैरेक्टर की तरह हों। बाकी महानगरों के बारे में ज़्यादा कहने सुनने को नहीं था। सब कुछ ऐसा लगता था मानो हमारे लिए वह सभी विदेश हो।
खैर! जब दिल्ली पहुंचे तो ईमानदारी से अगर कहें तो पता नहीं था क्यों आए हैं। क्या करना है आगे। बस रास्ते पर बिना किसी लक्ष्य के चल पड़े। मंजिल का कोई अता पता नहीं।
उन्हीं दिनों की बात है। वैलेंटाइन डे की धूम मची हुई थी। अब अपने को समझ में ही नहीं आ रहा था। वैलेंटाइन डे क्या है? कौन सी बला है यह? सारी बुद्धि लगा लिए। हार्ड डिस्क पर भी बहुत ज़ोर डाले। टस से मस नहीं। बिल्कुल ही वैक्यूम। मित्रों से पूछने में संकोच हो रहा था। पता नहीं क्या समझेंगे। बिल्कुल बुद्धू ही है यह बिहारी। वैलेंटाइन डे भी नहीं जानता है। गुगल बाबा तब थे नहीं कि उनकी शरण में चला जाता। एक अजीबो गरीब समस्या आ खड़ी हुई थी।
वैलेंटाइन डे हम शायद गलत कह रहे हैं।यह तो पूरे के पूरे सप्ताह भर की बात थी। हर दिन एक नया माहौल।एक नया दिवस। सोशल मीडिया तब था नहीं। भावनाओं का इजहार करने के लिए तब आर्चीज के कार्ड हुआ करते थे। आर्चीज गैलरी की धूम मची हुई थी। पर अपने को समझ में आए तो। कहीं किसी कॉलेज में तब दाखिला भी नहीं हुआ था।
किसे अपना वैलेंटाइन कहते? प्रत्यक्ष में तो वैलेंटाइन बाबा थे पर वैलेंटाइन डे पर एक माहौल ही अलग हुआ करता था। बाद में तो धीरे धीरे सब समझ में आ गया। यह बात भी समझ में आने लगी। बड़े शहरों के चोंचले हैं ये सब। बाजार सजा हुआ है। न चाहते हुए भी आप इसके सम्मोहन से बच नहीं सकते।
खैर! सभी के अलग अलग मत हो सकते हैं। पर मूल रूप में बाजारवाद ही है। वैलेंटाइन बाबा के बारे में कहीं भी कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। भानुमती के कुनबे की तरह है। इधर उधर से मिलकर एक कहानी बना दी गई है।
पता नहीं इसमें सच्चाई कितनी है पर, कुछ ऐसा ही माहौल दिखता है बंगाल में विद्या की देवी सरस्वती पूजा के अवसर पर। वैलेंटाइन डे जैसा ही माहौल दिखता है। पर, बिल्कुल ही ख़ालिस देशी अंदाज में। यह बंगाल की खासियत है। उन्हें अपने तरीके से सेलिब्रेट करना आता है। एक सांस्कृतिक विरासत है उनकी। आपको उनके रंगों में ढलना होता है। वो आपके रंग में नहीं ढलने वाले।
खैर अब तो दूरियां काफ़ी हद तक मिट चुकी हैं। सोशल मीडिया ने इसमें बहुत अहम किरदार निभाया है। पर आज़ भी कहीं न कहीं छोटे शहरों में रहनेवाले और बड़े शहरों में रहनेवाले लोगों की मनःस्थिति में बहुत फर्क नहीं आया है। एक कश्मकश रहती है। भले ही ना मानें।पर दिल के किसी कोने में रहती जरूर है।
Beautiful design
Excellent
घर की मुर्गी दाल बराबर।
अपने पारंपरिक महत्वपूर्ण दिवसों को भूलकर वेलेंटाइन डे, फादर्स डे,मदर्स डे जैसे पश्चिमी सभ्यता की तिथियों को मनाना,आधुनिकता की पहचान बन चुकी है;यहीं आज की विडंबना है।