रविवारीय: कठपुतलियां हैं हम सभी
– मनीश वर्मा ‘मनु’
कल तक हम खेलते कूदते, जमाने से बेपरवाह, व्यावहारिकता से कोसों दूर, खुद स्कूल जाते जाते कब कॉलेज में पहुंच गए पता ही नही चला।अरे भाई! ऐसा लगता है मानो यह कल की ही तो बात है!
वह दौर थोड़ा बुरा था।यह वो दौर था जब स्कूल कॉलेज में पढ़ाई का स्तर गिरना बस शुरू ही हुआ था। आगे की राह अब कितनी कठिन होने वाली थी, अंदाजा न था। शायद उतने मैच्योर नहीं हुए थे हम।
खैर! पढाई खत्म होते होते एक बड़े, बहुत ही बड़े कैनवास के हिस्सा बन लिए। कैनवास वाकई बहुत बड़ा था।भाई !!! एक अदद सरकारी नौकरी जो लग गई। समय बड़ी तेजी से पंख लगा कर उड़ रहा था। ये वो समय था जब आपको समय के साथ साथ संतुलन बैठाते हुए अपने आप को आगे बढ़ाना था। पर, शायद जैसा मैंने पहले बताया, परिपक्वता नही आई थी। थोड़ा धीरे चल रही थी। और हम नासमझ बस आगे निकल जाना चाह रहे थे।
जो मिल गया उसे ही मंजिल समझ बैठे। आज की राजधानी एक्सप्रेस प्लेटफार्म नंबर एक से छूट चुकी थी। जाहिर है, अब तो कल ही मिलेगी। अगले जन्म का इंतजार रहेगा। आदमी हमेशा अपने भविष्य को लेकर ही सशंकित रहता है। वह हमेशा भविष्य काल में ही जीता है। भूतकाल पीछा नही छोड़ता है और वर्तमान स्वीकार नही कर पाता है। भाई, प्रारब्ध है ये। करना ही पड़ेगा। समझना पड़ेगा।आप तो सिर्फ और सिर्फ निमित्त मात्र हैं। कठपुतलियां हैं हम सभी। डोर तो किसी और के हाथों में है। चंद्रयान कक्ष में स्थापित हो चुका है।
नौकरी के बाद जैसा कि अक्सर होता है। शादी हो गई। कुछ दिनों की मस्ती फिर जिम्मेवारियों का बोझ अब बढ़ना शुरू हो गया। दवाब कब तनाव में तब्दील हो गया पता ही नहीं चला। पर, धीरे ही सही अब अहसास हो चला था।
बच्चों की परवरिश, उनकी पढ़ाई, समय मानों पंख लगा कर उड़ रहा था। हम प्रत्येक क्षण आगे बढ़ते जा रहे थे। बहुत कुछ पीछे छोड़ते हुए। समाज परिवार! कुछ तो ऐसे छूटे कि जिनकी अब यादें ही शेष हैं। काश वो दिन लौट कर आ पाते।
यह सब लिखते हुए कब कोर भींग गई पता ही नहीं चला। परेशानियों, दवाबों और तनावों के बीच बहुत कुछ पता नहीं चलता है। बच्चे कब बड़े हो गए।कब उन्होंने अपना रास्ता चुन लिया। बिल्कुल पता नहीं चला। शुरुआत में सब अच्छा लगता है। बदलाव कब और किसे बुरा लगा है भला! पर, देखिए आप फिर से अकेले हो गए। अब तो आपके दोस्त भी नहीं रहे सब कुछ छूटता जा रहा है।
आप कब पहले नाम की जगह आखिरी नाम से बुलाए जाने लगे। पता ही नहीं चला। आप अचानक से वर्मा जी फ़िर वर्मा साहब हो गए। आप तो आप रहे ही नहीं। आप तो सिर्फ़ किरदार निभाते रहे। किरदार निभाते निभाते कब आप बदल गए खुद आप नहीं जान पाए। आप भी अब सिर्फ़ और सिर्फ़ एक किरदार बन कर रह गए।
यही तो जीवन है। यही सच्चाई है। मान लें। दुबारा कुछ नही मिलना है। और जो मिल चुका है, उसे जाना भी नहीं है।
Jeevan k hone wale tabdili ka bakhubi likha hai tumne Manu waqai hm Aaj ko bhool kar aane wala kal k bare m hi sochte hain tum ne ya batane ki koshish ki hai ki yatharth ko hme samajhna padega bahut badhiya