रविवारीय: हिन्दी दिवस
आजकल हम सभी हिंदी दिवस के साथ ही हिंदी पखवाड़ा भी बड़े जोर-शोर और हर्षोल्लास के साथ मना रहे हैं। लगभग हर सरकारी महकमे में सितंबर माह में इस अवसर पर खूब रौनक रहती है। कार्यालयों में प्रतियोगिताएं होती हैं, निबंध लेखन, वाद-विवाद, काव्य-पाठ और टिप्पणी लेखन जैसे कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। ऐसा माहौल बन जाता है मानो अब से सारे सरकारी कामकाज हिंदी में ही होंगे और अंग्रेज़ी तो बस, दो-चार दिनों की ही मेहमान है। वक्ताओं के भाषणों में यह विश्वास झलकने लगता है कि अबकी बार हिंदी की स्थापना स्थायी रूप से हो जाएगी, जबकि सच्चाई यह है कि हिंदी पहले से ही हमारी राजभाषा है।
इसी क्रम में एक प्रसंग साझा करना चाहूंगा। उस समय मेरी पोस्टिंग अहमदाबाद में थी। सितंबर का महीना था और पूरे विभाग में हिंदी पखवाड़ा मनाने की धूम थी। मैंने भी अपने अन्य साथियों के साथ हिंदी लेखन प्रतियोगिता में भाग लिया। प्रतियोगिता में जाने से पहले किसी कारणवश मैं हिंदी अधिकारी के कमरे में गया। उनकी मेज पर शीशे के नीचे एक अंग्रेज़ी का उद्धरण लिखा था। न जाने क्यों मैंने उसे ध्यान से पढ़ा और याद कर लिया। प्रतियोगिता में भाग लेते हुए मैंने उसी उद्धरण से अपनी रचना की शुरुआत की। लिख तो दिया, पर मन में डर भी लगा कि कहीं यह उल्टा न पड़ जाए। आखिरकार हिंदी प्रतियोगिता में अंग्रेज़ी का उद्धरण! लेकिन जब परिणाम आया तो मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि पूरे प्रभार में मुझे द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ।
अब प्रश्न यह उठता है कि मैंने इस प्रसंग का उल्लेख क्यों किया ? दरअसल इसके पीछे कई कारण हैं। पहली बात, आप इस बात का ध्यान रखें और मैंने भी रखा है कि कहीं से भी आपको ऐसा समझने का मौक़ा मैंने आपको नहीं दिया है ताकि आपके ज़ेहन में यह बात आए कि मैं किसी भाषा के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित हूँ। मुझे किसी भी भाषा से परहेज़ नहीं। भाषा ज्ञान का द्वार है, संस्कृति की खिड़की है। अंग्रेज़ी जानना, सीखना, पढ़ना-लिखना बिल्कुल ज़रूरी है, पर उसके साथ ही हमें अपनी मातृभाषा हिंदी का सम्मान करना और उसे व्यवहार में लाना भी उतना ही आवश्यक है। मातृभाषा वो भाषा होती है जो बच्चे अपनी माँ से सीखते हैं तो उस भाषा से भला कोई परहेज क्यों करे ?
हम सब अपने बच्चों को अच्छे अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों में पढ़ाना चाहते हैं, समय के लिहाज़ से यह स्वाभाविक भी है। परंतु हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि बच्चों का जुड़ाव अपनी जड़ों और अपनी संस्कृति से बना रहे। यह तभी संभव होगा जब वे हिंदी को पढ़ेंगे, समझेंगे और अपनाएंगे। हिंदी दिवस और पखवाड़े की औपचारिकता निभाने से ज्यादा ज़रूरी है कि हम हिंदी को रोज़मर्रा की भाषा बनाएं।
सोचिए, जिस देश में हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है, जहां करोड़ों लोग इसे मातृभाषा के रूप में बोलते हैं, वहां उसकी पहचान बनाए रखने के लिए विशेष दिवस या पखवाड़ा मनाना पड़ता है – यह स्थिति अपने आप में अजीब है। दुनिया के बहुत से देशों में उनकी राजभाषा ही सरकारी कामकाज और सामाजिक जीवन की रीढ़ होती है। वहां किसी को शायद यह कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती होगी कि “आज मातृभाषा दिवस है, आइए इसे मनाएं।”
यहां सवाल भाषा के प्रति मानसिकता और दृष्टिकोण का है। उदाहरण के लिए, यदि किसी यात्रा के दौरान आप हिंदी उपन्यास पढ़ रहे हों और सामने बैठा व्यक्ति अंग्रेज़ी का उपन्यास पढ़ रहा हो तो लोगों की नजरें और उनके मन की धारणा तुरंत बदल जाती है। अंग्रेज़ी पढ़ने वाले को आधुनिक और जानकार माना जाता है, जबकि हिंदी पढ़ने वाले को अक्सर उतना महत्व नहीं दिया जाता। यही सोच तो बदलनी है। बाक़ी तो ख़ुद ब ख़ुद आ जाएँगी।
हिंदी को किसी विशेष दिन तक सीमित करने के बजाय हमें इसे अपनी दिनचर्या में, कार्यक्षेत्र में और पारिवारिक जीवन में सहज रूप से उतारना होगा। सिर्फ पखवाड़ा मनाने से या पुरस्कार वितरण करने से हिंदी का भला नहीं होगा। असली सार यह है कि हम इसे अपने गर्व और आत्म-सम्मान के साथ जोड़कर बर्ताव करें। अपने बच्चों को इसके प्रति संवेदनशील बनाएं और हर मंच पर बिना झिझक हिंदी का प्रयोग करें।
हिंदी हमें जोड़ती है, एक सूत्र में पिरोती है। यह केवल भाषा ही नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति और आत्मा की अभिव्यक्ति है। इसे व्यवहार में लाना ही हिंदी के वास्तविक उत्थान का मार्ग है। जब हम दिल से हिंदी को अंगीकार करेंगे, तभी इसकी गरिमा और सम्मान स्वतः स्थापित होगी।
*प्रस्तुत लेख लेखक के निजी विचार हैं – । संपादक ।

हिंदी दिवस या पखवाड़े के आयोजन मात्र से हिंदी का उत्थान संभव नहीं है। इसका वास्तविक सम्मान तभी होगा जब हम इसे अपनी दिनचर्या और जीवनशैली का स्वाभाविक हिस्सा बनाएं। अंग्रेजी का महत्व स्वीकार करना आवश्यक है, परंतु अपनी मातृभाषा से दूरी रखना उचित नहीं। बच्चों में हिंदी के प्रति लगाव और गर्व जागृत करना जरूरी है ताकि यह केवल औपचारिक भाषा न रहकर हमारी संस्कृति और आत्मा की सजीव अभिव्यक्ति बनी रहे। वास्तव में, हिंदी का भविष्य आयोजनों में नहीं, बल्कि हमारे रोजमर्रा के प्रयोग और मानसिकता में निहित है।
Sir, आपकी यह रचना बेहद प्रेरक और हृदयस्पर्शी है। आपने बड़ी सजीवता और सहजता से हिंदी दिवस व पखवाड़े की औपचारिकता के पीछे छिपे गहरे संदेश को उजागर किया है। भाषा को केवल उत्सव तक सीमित न मानकर उसे जीवन और व्यवहार में उतारने का जो आग्रह आपने किया है, वह वास्तव में सराहनीय है। आपके अनुभवों और विचारों से यह स्पष्ट झलकता है कि आप न केवल हिंदी के महत्व को समझते हैं बल्कि उसे जीते भी हैं।