रविवारीय: गुज़रा हुआ ज़माना
गुज़रा हुआ ज़माना
आता नहीं दोबारा
हाफ़िज़ ख़ुदा तुम्हारा
पचास के दशक में आई मधुबाला और प्रदीप कुमार अभिनीत फ़िल्म शीरीं फरहाद का यह चर्चित गीत आज फिर से प्रासंगिक हो चला है। गीतकार ने यहां पर यह बात कहकर कि गुज़रा हुआ ज़माना दोबारा नहीं आता है शायद अपने मुताबिक सही ही कहा था। कहां कुछ लौट कर आता है भला?
जो गुज़र गया, उसे भूल जा!
घड़ी की सूई को कहां हम पीछे कर सकते हैं? पर मनु कहिन के इस सफ़र में आज़ हम आपको फिर से याद कराने की कोशिश कर रहे हैं कि देखो भाईयों वो गुज़रा हुआ ज़माना फ़िर से लौट कर आया है। कोई भी चीजें वस्तुनिष्ठ नहीं होती हैं। चीज़ों को हमेशा हमें सापेक्ष तौर पर देखना चाहिए। यही तो खुबसूरती है जिसे सृष्टि के सृजनकर्ता ने बड़ी खूबसूरती के साथ गढ़ा है। यहीं तो नतमस्तक हैं हम। बाकि बातें तो बस कहने और सुनने की है।
याद कीजिये बचपन के वो दिन। हमारे उम्र वय के लगभग तमाम लोगों की कहानियां लगभग एक जैसी ही है। टिन के बक्से में अखबार के पन्नों से जिल्द लगी किताबों और कापियों को बड़े ही क़रीने से सजा कर विद्यालय को जाते थे। कुछ बच्चों के पास स्टील का बॉक्स हुआ करता था। उसी बक्से के किसी एक कोने में हमारा टिफिन बॉक्स हुआ करता था। मैग्गी और पिज़्ज़ा का ज़माना तो था नहीं। मां ने जो दे दिया बस उसी में अपनी खुशी थी। बाद में बड़े ही हौले से उस बक्से की जगह कंधे पर एक तरफ लटकाया जाने वाला बैग आ गया, जिसे उस वक्त हम लोग गांधीजी का थैला कहा करते थे। काफ़ी दिनों तक चला वो। कभी-कभी कालेजों में हाथ में एक दो कापियां ले कर जाते थे। कभी किसी बात का कोई मलाल नहीं। पीठ पर पीछे दोनों तरफ कंधों पर रखा जाने वाला पिट्ठू तो बहुत बाद में आया।
खैर! हम जाना कहीं और चाह रहे थे, पर थोडे़ जज़्बाती होकर कहीं और की ओर चलने लगे।
अभी हाल में ही सरकार ने हमें प्रौन्नति दी है। हममें से कुछ लोग प्रोन्नत हुए हैं। नौकरी में तो यह सब चलता ही रहता है । दाल रोटी के साथ ही साथ दुनिया आगे बढ़ती रहती है। प्रोन्नति के साथ ही साथ आपको उस पद के अनुरूप बनाने के लिए आपको प्रशिक्षित करना भी ज़रूरी है। आपको अभिविन्यास कार्यक्रम में शामिल किया गया है। नौकरी का यह भी एक भाग है। एक किरदार जिसे हम सभी कभी ना कभी किसी रूप में निभाते हैं। तो दोस्तों हम सभी प्रशिक्षित होने के लिए आ गए अपने अपने शहर और कार्यस्थल से दूर नागपुर शहर में जहां पुरे देश भर के अधिकारियों का प्रशिक्षण स्थल है। यहां हमारी दिनचर्या बस फिर से उसी स्कूल जाने वाले बच्चे की तरह की है। अहले सुबह उठना। पीटी मास्टर के इशारों पर उठना बैठना। अरे हां एक और अब जुड़ गई है जो है तो बड़ी ही पुरानी चीज, पर हमारे समय हमने इसका नाम नहीं सुना था -योगा।
सुबह की योगा और पी टी के बाद चाय नाश्ता और फिर बच्चों की तरह तैयार होकर बस्ता उठाकर चल पड़े क्लास रूम में, और फिर शुरू हो गई शाम तक की क्लास।
तो दोस्तों कौन कहता है कि गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा?
हम लोग तो प्रतिदिन देख रहे हैं उम्र के इस पड़ाव पर इसे सार्थक होते हुए। अच्छा लग रहा है फिर से बच्चों की तरह होस्टल में तय नियमों के साथ रहते हुए। अपने बच्चों को हम सभी अपने आज़ के अपने बचपने की फ़ोटो रोजाना शेयर कर रहे हैं। वो क्या सोचते होंगे पता नहीं। पर हमारी दुनिया तो फिर से वही पुरानी वाली हो गई है। आज कुछ अजीब सा लग रहा है, पर वापस लौटने पर हम सभी एक दूसरे को मिस करेंगे।
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जीवन एक वर्तुल की तरह है जिसमें गुजरे जमाने की समरूपी स्थितियों की पुनरावृत्ति होती रहती है। जीवन यही तो है। बीज से वृक्ष और फिर वृक्ष से बीज की ओर यात्रा यही जीवन का वर्तुल है।
मानव जीवन में शरीर के साथ-साथ भावनाओं की भी एक यात्रा अनवरत प्रवाहमान रहती है। जिसमें प्रतिपल हम अपने जीवन की हर्ष-विषाद की अनुभूतियों को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं।
श्री वर्मा जी की लेखनी में विशिष्ट बात यह है कि अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के हर अनुभव को बेहद खूबसूरती व कलात्मकता के साथ अपने ब्लॉग के माध्यम से एक अर्थ प्रदान करते हैं। उनकी अभिव्यक्ति इतनी जीवन्त होती है कि हर किसी को समानुभूति का एहसास कराने में सफल होती है।
लाजवाब।