रविवारीय: फ्लाइंग स्टूडेंट्स
– मनीश वर्मा ‘मनु’
विगत कुछ वर्षों से एक नया ही ट्रेंड उभरकर सामने आया है — फ्लाइंग स्टूडेंट्स का। “फ्लाइंग सिख” और “फ्लाइंग स्क्वॉड” जैसे शब्द तो पहले सुने थे, पर “फ्लाइंग स्टूडेंट” नामक की यह प्रजाति शिक्षा की दुनिया में नई है। जब इस विषय को समझने की कोशिश किए, तो पता चला कि इस विशेषण से वैसे छात्रों को नवाज़ा जाता है जो दसवीं की बोर्ड परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद किसी स्कूल में नामांकन तो करा लेते हैं, परंतु वहां नियमित रूप से पढ़ाई करने नहीं जाते। उन्हें सिर्फ परीक्षा के समय स्कूल में उपस्थिति दर्ज करानी होती है। बाकी तो बस पैसा फेंक और तमाशा देख वाली बात है। ऐसे छात्र सामान्यतः अपने शहर या राज्य से बाहर जाकर विभिन्न कोचिंग संस्थानों में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुट जाते हैं। उनका पूरा ध्यान स्कूल की पढ़ाई से अधिक प्रतियोगिताओं की तैयारी पर केंद्रित रहता है।
सुनने में यह भले ही एक ‘स्मार्ट मूव’ लगे, पर गहराई से सोचें तो यह प्रवृत्ति हमारे शिक्षा-संस्कार और सामाजिक ढांचे के लिए एक गंभीर संकेत है।
हमारे समय में ‘प्राइवेट कैंडिडेट’ के रूप में परीक्षा देने का प्रचलन था, पर उसका कारण कुछ और होता था — परिस्थितियों की विवशता, आर्थिक कठिनाई, या विद्यालय की अनुपलब्धता। पर आज स्थिति भिन्न है। यहाँ विद्यार्थी जानबूझकर विद्यालय से दूरी बना रहे हैं। नियमित छात्र के रूप में स्कूल जाना, शिक्षकों से संवाद करना, सहपाठियों के बीच रहकर सीखना — यह सब शिक्षा का आवश्यक हिस्सा है।
फ्लाइंग स्टूडेंट के रूप में, बिना एक दिन भी क्लास में उपस्थित हुए परीक्षा में बैठना, न केवल शिक्षा के मूल उद्देश्य को कमजोर करता है बल्कि यह एक तरह से नियम और नैतिकता — दोनों के विरुद्ध भी है।
हो सकता है कि इन छात्रों में से कई भविष्य में किसी प्रतियोगी परीक्षा में सफल हो जाएँ, एक सुरक्षित मुकाम हासिल कर लें, आर्थिक रूप से समृद्ध भी बन जाएँ, पर क्या वे एक संपूर्ण मानव बन पाएँगे ?
मेरे विचार में इसका उत्तर नकारात्मक है। क्योंकि विद्यालय केवल किताबी ज्ञान देने की जगह नहीं है। यह जीवन जीने की कला सिखाता है — अनुशासन, संवाद, सहानुभूति, सामाजिकता, सहयोग और संवेदनशीलता जैसे गुण वहीं विकसित होते हैं।
सैकड़ों सफल लोगों की कहानियाँ बताती हैं कि जो व्यक्ति केवल पढ़ाई में नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में भी सक्रिय रहा, वही जीवन में सच्चे अर्थों में सफल हुआ। क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ ‘अच्छी नौकरी’ पाना नहीं, बल्कि ‘अच्छा इंसान’ बनना है।
आज जब हम ‘फ्लाइंग स्टूडेंट’ जैसी प्रवृत्तियों को सहजता से स्वीकार कर रहे हैं, तो यह ‘सब कुछ चलता है’ वाली मानसिकता का परिचायक है। पर प्रश्न यह उठता है कि जब हम बुनियाद ही गलत डाल रहे हैं, तो भविष्य में मजबूत इमारत कैसे खड़ी होगी ?
कभी ठंडे दिमाग से, फुरसत के कुछ क्षणों में इस पर विचार कीजिए — क्या हम अपने बच्चों को सचमुच ऊँचाई की उड़ान दे रहे हैं, या शिक्षा के आसमान से उनका रिश्ता ही तोड़ रहे हैं ?
यहां समस्या केवल विद्यार्थियों की नहीं है — यह पूरे शिक्षा तंत्र और हमारी सोच का परिणाम है। हमें यह समझना होगा कि प्रतिस्पर्धा की यह अंधी दौड़ हमें कहाँ पहुँचा रही है।
विद्यालयों को चाहिए कि वे नामांकन और उपस्थिति को लेकर अधिक कठोर नियम बनाएं, ताकि केवल परीक्षा देने के लिए नामांकित छात्रों की प्रवृत्ति पर रोक लगे।
सरकार और शिक्षा बोर्डों को चाहिए कि वे “फ्लाइंग स्टूडेंट” मॉडल पर निगरानी रखें और इसे नियमित शिक्षा प्रणाली के भीतर ही समाहित करें।
कोचिंग संस्थानों को विद्यालयों के समानांतर न चलकर, स्कूल शिक्षा के पूरक के रूप में कार्य करना चाहिए। और सबसे महत्वपूर्ण — माता-पिता को यह समझना होगा कि बच्चे की सफलता केवल मार्क्स या रैंक में नहीं, बल्कि उनके व्यक्तित्व और मानवीय गुणों में निहित है।
यदि हम शिक्षा को केवल करियर का माध्यम मानेंगे तो समाज में संवेदना, सहिष्णुता और मानवीयता की जगह धीरे-धीरे संकीर्णता और यांत्रिकता ले लेगी।
इस विषय पर मंथन करने की जरूरत है। देखने सुनने में तो बड़ा अच्छा लगता है जब बच्चे तरक्की करते हैं, पर जब वही बच्चे जीवन की दौड़ में पीछे रह जाते हैं, उनका परिवार और समाज से कोई नाता नहीं रह जाता है तो दोषी कौन है ? हम और आप दोषी हैं ? हमने उन्हें परिवार और समाज का महत्व कहां समझने दिया। हमने तो उन्हें महज़ एक मशीन की तरह यांत्रिक तौर पर जीवन जीने दिया। जीवन जीने का उद्देश्य ही उनका बदल गया।

श्री वर्मा जी का ब्लॉग ‘फ्लाइंग स्टूडेंट्स’ शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य पर प्रश्नचिह्न लगाने के साथ-साथ गहन चिंतन के लिए भी प्रेरित करता है। आज की परीक्षा-केंद्रित और संस्थान-विहीन अध्ययन पद्धति छात्रों को ज्ञान के नहीं, बल्कि केवल अंक-प्राप्ति के साधन में परिवर्तित कर रही है। विद्यालय से दूरी बनाना, वस्तुतः अनुशासन, संवाद और सामाजिकता जैसे जीवन-मूल्यों से दूरी बनाना है। शिक्षा मात्र करियर निर्माण का माध्यम नहीं, बल्कि चरित्र-निर्माण और संवेदनशीलता का संस्कार है। यदि इस प्रवृत्ति पर समय रहते नियंत्रण नहीं किया गया, तो आने वाली पीढ़ी ज्ञान से सम्पन्न अवश्य होगी, परंतु मानवीयता से रिक्त होगी, और यही हमारे समय का सबसे बड़ा शैक्षिक संकट सिद्ध होगा।