रविवारीय: एक सरकारी अधिकारी की मर्यादा
– मनीश वर्मा ‘मनु’
प्रश्न यह है — एक सरकारी अधिकारी की क्या सीमा होती है? वह किस मर्यादा के भीतर रहकर कार्य करता है? क्या किसी को यह अधिकार प्राप्त है कि वह केवल शक के आधार पर किसी की व्यक्तिगत गरिमा और निजता के अधिकार का अतिक्रमण करे । उसे ठेस पहुँचाए?
कुछ दिन पहले की ही बात है ।बिहार की एक घटना सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी। एक लड़का और एक लड़की — जो आपस में भाई-बहन थे । दीपावली और छठ की छुट्टियों में घर आए हुए थे । किसी रेस्तरां में खाना खाने गए थे। तभी उस इलाके का थाना प्रभारी अपने दल-बल के साथ वहाँ पहुँचे और उनसे ऐसे सवाल-जवाब करने लगा जो न सिर्फ़ अनुचित थे, बल्कि उनकी निजता का भी उल्लंघन कर रहे थे। यह पूरा घटनाक्रम वीडियो में दर्ज हुआ और वायरल हो गया। देखने वालों को यह साफ़ महसूस हुआ कि उक्त पुलिस अधिकारी का आचरण किसी भी दृष्टि से शोभनीय नहीं था।
रेस्तरां में बैठा कोई भी व्यक्ति किसी भी संबंध में हो सकता है — भाई-बहन, पति-पत्नी, मित्र या सहकर्मी। किसी भी व्यक्ति को चाहे वो कोई भी हो यह अधिकार नहीं है कि वह दूसरों की निजता का उल्लंघन करे। हाँ, यदि कोई सार्वजनिक स्थान पर अमर्यादित आचरण कर रहा हो, तो उसे संज्ञान में लेकर उचित कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। परंतु यह कार्रवाई भी मर्यादा और विवेक के साथ क़ानून और संविधान के दायरे में ही होनी चाहिए।
पुलिसकर्मियों को सबसे पहले यह समझना होगा कि वे भी समाज का ही एक हिस्सा हैं। इसी समाज ने आपको एक पहचान दी है ।आपकी भूमिका अपराध और अपराधियों से निपटने की है — वह भी कानून और संविधान की सीमाओं में रहकर। पुलिस की नौकरी एक सेवा है । यह समाज के बीच रहकर समाज के लिए काम करने का एक ऐसा माध्यम है जहाँ आप समाज को बहुत कुछ दे सकते हैं ।सेवा की यही भावना यदि ख़त्म हो जाए, तो व्यवस्था में भय तो रह जाएगा, पर भरोसा नहीं। पुलिस का काम लोगों के बीच भरोसा क़ायम करना है ताकि लोग बिना किसी भय के पुलिस के पास जा सकें । पुलिस का भय तो अपराधियों के बीच होनी चाहिए ।
सेवा का अर्थ होता है समाज में सार्थक बदलाव के लिए प्रयत्नशील होना । एक तय समय के बाद वही व्यक्ति अवकाश प्राप्त करता है और फिर उसी समाज का हिस्सा बन जाता है, जिसके लिए उसने सेवा की थी। क्या यह भूल जाना उचित है कि नौकरी अस्थायी है, पर मानवता स्थायी?
मेरे व्यक्तिगत विचार से, पुलिस हमारी न्याय व्यवस्था की पहली सीढ़ी है — भले ही न्यायिक संरचना में इसका औपचारिक उल्लेख न हो। यदि पुलिस किसी मामले को संवेदनशीलता और विवेक से अपने स्तर पर ही सुलझा ले, तो बहुत-सारी समस्याओं को अदालत तक पहुँचने की नौबत ही नहीं आएगी ।हर किसी की हैसियत भी कहाँ होती है मुक़दमा लड़ने की । पर दुर्भाग्य से, कभी-कभी वही पुलिस संवेदनशीलता छोड़कर संवेदनहीनता का परिचय देने लगती है।
रेस्तरां में घटी यह घटना इसी संवेदनशीलता का एक उदाहरण है — एक ऐसा आचरण जो न केवल अमर्यादित था, बल्कि उस गरिमा की भी अवहेलना थी जिसकी रक्षा की शपथ लेकर हम सरकारी सेवा में आते हैं । एक पढ़े-लिखे और जिम्मेदार सरकारी अधिकारी से समाज को अपेक्षा होती है कि वह मर्यादा और विवेक का पालन करेगा, न कि अपनी सीमाओं से बाहर जाकर किसी की निजी स्वतंत्रता का हनन करेगा।
कभी-कभी हम यह सोचकर अपनी बात कह देते हैं कि हम सही हैं — क्योंकि हमारे भीतर कोई झिझक नहीं होती। हमें लगता है कि हम जो कह रहे हैं या कर रहे हैं, वह हमारे व्यक्तित्व का स्वाभाविक विस्तार है या फिर हमें हमारी नौकरी ने हमें यह विशेष अधिकार दे रखा है । पर क्या कभी हमने सोचा है कि हमारी यही सहजता किसी दूसरे के लिए कितनी असहज हो सकती है? कई बार यह असहजता ताउम्र किसी का पीछा करती रहती है।
हम सभी को यह याद रखना होगा कि सहजता तभी सुंदर है, जब वह दूसरों के लिए असहजता का कारण न बने।

यह आलेख सरकारी सेवा की मर्यादा, संवेदनशीलता और मानवता पर गहन चिंतन प्रस्तुत करता है। लेखक श्री मनीश वर्मा ‘मनु’ ने यह स्पष्ट किया है कि सरकारी पद किसी को असीम अधिकार नहीं देता, बल्कि सीमित अधिकारों के भीतर रहकर सेवा करने की जिम्मेदारी प्रदान करता है। बिहार की एक घटना के माध्यम से उन्होंने यह रेखांकित किया है कि जब संवेदनशीलता के स्थान पर अहंकार और शक्ति प्रदर्शन हावी हो जाते हैं, तो जनता का व्यवस्था पर से विश्वास डगमगाने लगता है। लेखक का मत है कि पुलिस या कोई भी अधिकारी तभी सम्माननीय है, जब उसका आचरण विवेकपूर्ण, मर्यादित और मानवीय गरिमा के अनुरूप हो। आलेख का मूल संदेश यह है कि नौकरी अस्थायी है, पर मानवता स्थायी। पद का उद्देश्य दुरुपयोग नहीं, बल्कि जन-विश्वास और सह-अस्तित्व की भावना को सुदृढ़ करना होना चाहिए।
आलेख के अंत में व्यक्त यह विचार —
“सहजता तभी सुंदर है, जब वह दूसरों के लिए असहजता का कारण न बने” पूरे आलेख की आत्मा और संदेश का सार है।