रविवारीय: एक कुत्ते की व्यथा
अब अपनी व्यथा क्या सुनाएं? हमारी तो एक अलग ही कहानी है क्योंकि हम आप जैसे नहीं हैं बल्कि हम तो कुत्ते हैं। बिल्कुल पालतू! हम अपनी बात कहां रखें? कोई हमारी व्यथा सुनने को तैयार नहीं है।
हम तो अपनी ही दुनिया में रहते हैं। किसी से कोई गिला शिकवा नहीं। आपके पीछे – पीछे बिल्कुल साए की तरह आपके साथ चलते हैं। अपनी तो दिनचर्या सुबह होते ही शुरू हो जाती है। रात में भी हमें चैन कहां। समाज की सेवा में लगे रहते हैं। सेवा भावना तो कूट कूट कर मानो हमारे अंदर भरी हुई है। किसी ने कुछ दे दिया तो खा लिया नहीं तो फिर भूखे पेट इधर उधर मुंह मारने को मजबूर।
जब से हमने आपके साथ आपके सानिध्य में रहना शुरू किया है हमने तो अपना मूल स्वभाव ही छोड़ दिया है। हम क्या से क्या हो गए! अब तो हम अपने बुजुर्गों से सिर्फ और सिर्फ कहानियों और किस्सों में ही अपनी गौरवशाली अतीत को सुना करते हैं। पर, कब तक हम उस बात का ढोल पीटते रहेंगे?
कब अपने मूल स्वरूप से अलग हो गए हमें कुछ पता ही नहीं चला। वक्त ने हमें सोचने का मौका ही कहां दिया? उसने इतने हौले से करवट बदला कि कुछ समझ ही नहीं पाए। जब तक समझते तब तक तो काफी देर हो चुकी थी। अगर सच कहें तो गुलाम बना दिए गए थे।
हम तो आपके साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलना चाहते थे, पर कहां संभव हो सका? हमने अपनी तरह से सोचा और आपने अपनी तरह से। हम तो प्रतिकार भी नहीं कर पाए। सिर्फ कहने को हम आपके परिवार के सदस्यों की तरह थे, पर असल में सदस्य नहीं थे। आपने तो अपने फायदे के लिए हमें इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। हम तो बस सिर झुका कर आपकी हर बातों को मानने को तैयार थे। कभी कोई बहाना नहीं बनाया। कभी चूं तक नहीं किया। आपकी हर बातों को आपका आदेश समझ बस सिर झुका कर सिर्फ मानते ही तो आएं हैं अब तक। क्या यह काफी नहीं है अपनी स्वामीभक्ति दिखाने को? अब और क्या चाहिए?
कभी आपने सोचने और समझने की जरूरत समझी कि हमें भी तकलीफ़ होती है। हमारे दिल को भी आपके व्यवहार से ठेस पहुंचती है। हम भी रोते हैं, पर नहीं आपको क्या फ़र्क पड़ता है? आप हमें पत्थरों से मारो, हमें सरे आम तिरस्कृत करो। हमारे नाम का उपमा लेकर गालियां निकालो, सब क्षम्य है क्योंकि हम बोल नहीं सकते हैं। जब बोल नहीं सकते हैं तो हमारी आवाज़ कौन सुनेगा?
नक्कारखाने में तूती की आवाज। शायद हम इस लायक भी नहीं। आखिर हम अपने गुस्से का इजहार कैसे करें?
बस हमने तो अपने गुस्से का थोड़ा इजहार ही तो किया था और आपने उसे तिल का ताड़ बना दिया। हमारे हाथ और पैर तो है नहीं जो हम उनका इस्तेमाल करें। पूरे समाज को पता चल गया हमारे बारे में। हम वाकई शर्मिंदा हैं अपने किए पर। पर किससे जाकर कहें? कहां अपनी बात रखें?
लोगों ने बिना मेरी ग़लती के पत्थरों से मार मार कर हमें लहुलुहान कर दिया था। हमारा पूरा मुंह सूज गया था। अपनी आंखें हम नहीं खोल पा रहे थे। बस यहीं पर हमसे गलती हो गई। ग़लती से हमने आपको नुकसान पहुंचा दिया। आपकी गलती नहीं थी। आपने तो हमें बिलकुल ही नुकसान नहीं पहुंचाया था। हम ऐसा नहीं करना चाहते थे ना ही हमें करना चाहिए था। बस गुस्से के अतिरेक में गलती हो गई। आप सामने आ गए। किसी और का ग़ुस्सा आप पर उतर गया। अगर आप वास्तव में हमें अपने परिवार और समाज का हिस्सा मानते हैं तो मुझे क्षमा करें। हम दिल से शर्मिन्दा हैं।
इनके साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए। छोटी सी सहनशीलता हमें मानवता की ओर एक कदम आगे ले जाती है।