रविवारीय: चाय की चुस्कियाँ
बचपन की यादें ख़ासकर खाने पीने की यादें जब लौटकर आती हैं, तो अक्सर किसी ख़ास स्वाद के सहारे आती हैं। मेरे लिए उनमें से एक है — चाय।
हमारे घर में चाय पीने का चलन तो था , पर हम बच्चों के लिए चाय एक वर्जित पेय थी। यह एक अलिखित नियम जैसा था कि “बच्चे चाय नहीं पीते।” और हम भी इस सामाजिक-सांस्कृतिक सच्चाई को सहज भाव से स्वीकार कर चुके थे कि चाय तो सिर्फ बड़ों के पीने की चीज़ है।
चाय का कप जैसे उम्र की एक सीढ़ी पार करने के बाद ही हाथ में आता था। घर में अमूमन सभी लोग चाय पीते थे। मुझे तब समझ में नहीं आता था कि आखिर इसमें ऐसी क्या ख़ास बात है कि लोगों का यह कहना कि मैं इसके बिना रह नहीं सकता हूँ, चाय नहीं पीने की वजह से मेरे सर में दर्द हो रहा है… आदि, आदि। एक चाय की टपरी के बाहर लिखा था – चाय सर दर्द का राष्ट्रीय इलाज है।
बचपन की चाय से जुड़ी हुई मेरी यादें हैं। किशोरावस्था से गुज़र रहे थे। घर में चूंकि हमलोगों के लिए चाय पीना वर्जित था, इसलिए सोचे की चलो आज बाहर चाय की टपरी पर चाय पीते हैं । जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर चाय की तलब क्या होती है। पहुंच गए चाय की टपरी पर और एक कप चाय का ऑर्डर दे दिए। हम चाय पी चुके थे जब चाय पी लेने के बाद हमने चाय वाले को कहा – एक ग्लास पानी पिलाएं! चाय वाला एक बुजुर्ग व्यक्ति था। वो ताड़ गया। उसने कहा बेटा लगता है पहली बार चाय पी रहे हो। चाय पीने के बाद पानी नहीं पी जाती है।
घर में आए मेहमान को अगर आपने चाय नहीं पिलाई तो आप सार्वजनिक तौर पर यह सुनने को तैयार रहें – उसने तो चाय तक के लिए नहीं पूछा!
मुझे आज भी याद है, उस समय हमारे घर में जो चायपत्ती आती थी, उसे ‘ डस्ट टी ‘ कहा जाता था। बाज़ार में आमतौर पर वही मिलती थी। नाम भले ही ‘चायपत्ती’ होता था, पर उसमें कोई पत्ती नज़र नहीं आती थी। वह महीन बुरादा जैसा होता था — शायद इसलिए उसे डस्ट टी कहा जाता था। बाज़ार में दो-तीन और किस्म की चाय भी मिला करती थी — गोल दानों वाली चाय और फिर पत्ते वाली चाय, जिसे हम सभी लीफ टी कहते थे। लीफ टी को आमतौर पर घरों में खास तवज्जो नहीं मिलती थी। लोग चाय से ‘कड़कपन’ की उम्मीद करते थे और उनके लिए खूब उबाली हुई, गाढ़ी चाय ही उनके स्वाद की कसौटी थी। लीफ टी तो जैसे किसी ख़ास वर्ग तक सीमित रह गई थी — जिन्हें स्वाद से ज्यादा उसकी बारीकियाँ पसंद थीं। आज तो ख़ैर बाजार में चाय की बहुत सारी किस्में आ गई हैं। फर्स्ट फ्लश चाय, सेकंड फ्लश चाय, व्हाइट टी, आयुर्वेदिक चाय, ग्रीन टी, ब्लैक टी और भी ना जाने चाय की कितनी किस्में हैं।
समय के साथ हम बड़े हुए। घर की दीवारों से बाहर निकले, थोड़ी दुनिया देखी। एक बार एक चाय फैक्ट्री घूमने का मौका मिला। तब जाकर असलियत पता चली — जिस डस्ट टी को हम चाय का ब्रांड समझकर बरसों से पीते आ रहे थे, वह असल में चाय की छंटाई के बाद बची हुई झाड़न होती थी — पत्तियों की आखिरी परत में बची हुई। उसे ही पैक करके बेचा जाता था, और हम उसे गर्व से चाय समझते थे।
तब तक डिब्बाबंद चाय हमारे घरों तक नहीं पहुँची थी। पहली बार हमने किसी ब्रांडेड चाय को जाना तो वह थी ब्रुकबॉन्ड। इसकी पहचान बनी — लाल रंग का डिब्बा और एक घरेलू-सा नाम। फिर इसी कंपनी ने अपना एक प्रीमियम संस्करण निकाला — ताजमहल चाय।
यह चाय जितनी अपने स्वाद के लिए प्रसिद्ध हुई, उतनी ही अपनी ब्रांडिंग के लिए भी। मशहूर तबला वादक ज़ाकिर हुसैन साहब उसकी पहचान बन गए। उनका एक डायलॉग “हुज़ूर, वाह ताज बोलिए!” घर-घर में गूंजने लगा। यह सिर्फ चाय नहीं रही, यह स्वाद, संगीत और संस्कृति का संगम बन गई।
फिर ज़िन्दगी ने करवट ली। नौकरी शुरू हुई। दफ्तर की चाय ने जीवन में नई जगह बनाई। अब चाय सिर्फ एक पेय नहीं रही, वह सहयोग, संवाद और कभी-कभी ग़ैर-ज़रूरी मीटिंग्स का बहाना बन गई।
हालांकि आज भी चाय पीने की आदत नहीं है, लेकिन कभी-कभी साथी लोगों के साथ एक कप चाय हो ही जाती है। अब तो चाय भी बदल गई है — और उसका संसार भी। बाजारों में ‘ठाकुर जी की चाय’, ‘ ग्रेजुएट चाय वाली’, ‘इंजीनियर चाय’, ‘फल-फूल की चाय’ एम बी ए चाय वाला जैसे नाम सुनाई देते हैं। हर गली, हर नुक्कड़ पर एक अनूठी चाय दुकान है, जिसकी अपनी पहचान, अपना फ्लेवर है। यह चाय क्रांति जो विगत कुछ वर्षों की देन है अब हर वर्ग को छू रही है — पढ़े-लिखे युवा, मल्टीनेशनल में काम करने वाले लोग, बड़े घरों के बच्चे — सब इस नई ‘चाय-संस्कृति’ का हिस्सा बन चुके हैं। अच्छे खासे पढ़े लिखे लोग इस धंधे में आ रहें हैं। कोविड के बाद तो ख़ासकर इस धंधे में एक तरह की क्रांति आ गई है।
कभी जो चाय बच्चों के लिए वर्जित थी, आज वही चाय उनके लिए शौक़ बन गई है। ज़िन्दगी की तरह चाय भी बदलती रही — स्वाद में, रूप में और प्रतीक में भी। अब जब भी चाय का कप हाथ में आता है, तो वह सिर्फ वर्तमान का स्वाद नहीं देता — वह बचपन की गलियों में भी ले जाता है, दादी की रसोई से दफ्तर की कैंटीन तक।
चाय अब ज़िन्दगी की चुस्कियों में शामिल है — सादगी से लेकर सजीवता तक।


बिल्कुल सही लिखा है
रोजमर्रा के जीवन में शामिल है
चाय आजकल की व्यवहारिक आवश्यकता बन गई है
श्री वर्मा जी की लेखनी की विशिष्टता है “साधारण विषय को असाधारण बना देना”
“चाय की चुस्कियाँ” एक आत्मीय और भावनात्मक यात्रा है जो न केवल लेखक के बचपन की स्मृतियों को उजागर करती है, बल्कि चाय के बदलते सामाजिक- सांस्कृतिक स्वरूप को भी सामने लाती है। एक समय जो चाय बच्चों के लिए वर्जित थी, वह आज एक सांस्कृतिक प्रतीक बन चुकी है — संवाद, मेल-जोल और व्यवसाय की नई संभावनाओं का माध्यम। चाय सिर्फ एक पेय नहीं, बल्कि जीवन के विभिन्न पड़ावों की सहयात्री बनकर उभरती है। श्री वर्मा जी का यह ब्लॉग बिल्कुल अपनी कहानी या यूं कहें स्मृतियों का एहसास कराने वाला है।
बीते हुए कल और आज भी गली मुहल्लों में चाय पर चर्चा होती है और आज तो एक चाय वाला हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी भी है