रविवारीय: भगवान तो हैं अंतर्यामी
भगवान सर्वव्यापी हैं, अंतर्यामी हैं। बात भी सही है, पर एक बात है; अगर भगवान सर्वव्यापी हैं, तो हमें मंदिरों में भगवान को लाने की जरूरत क्यों पड़ी? हमने क्यों इतने सारे छोटे बड़े मंदिरों का निर्माण किया? भगवान को लाकर मंदिरों में बिठाया। उनमें प्राण प्रतिष्ठा की। क्यों हम मंदिरों में जाते हैं, श्रद्धावश मत्था टेकते हैं और अपने दुःख – दर्द की बात उनसे करते हैं? हम उनसे अपने दुखों को दूर करने की बातें भी करते हैं तो दूसरी तरफ,अपने सुख और आनन्द के क्षणों में भी उनके पास जाते हैं। उनका रूप चाहे कुछ भी हो। चाहे किसी भी नाम से वो जाने जाते हों, हमारी आस्था हमेशा से उनके साथ जुड़ी हुई है। पीढ़ियों से चलता आ रहा है यह सब। निश्चित तिथि शायद ही कोई जानता हो।
भगवान को मानने और ना मानने के बीच कोई तर्क नहीं, कोई टीका टिप्पणी नहीं, किसी तरह की बहसबाज़ी नहीं। यह पूरी तरह से हमारी आस्था से जुड़ा हुआ मामला है।
हां, तो अब हम आते हैं असली मुद्दे पर कि क्यों हमने इतने सारे मंदिरों का निर्माण किया जबकि भगवान सर्वव्यापी है। घट- घट में बसे हुए हैं।
भाई, भगवान क्यों चाहते हैं कि उनके भक्त उनके पास आएं, उनके सामने नतमस्तक हों , उनसे मनुहार करें, अपनी बातें उनसे कहें, उन्हें मनाया जाए? वो तो अंतर्यामी हैं। वो जानते हैं आपके मन की बातें। उनसे कुछ भी नहीं छिपा हुआ है। आप किसलिए उनके पास गए हैं, वो सब जानते हैं, पर वो चाहते हैं कि आप अपने दुःख के निवारण के लिए उनसे निवेदन करें, अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगे और हां अपने सुख के दिनों में उनके पास जाकर आभार व्यक्त करना ना भूलें । उन्हें बताएं कि भगवन् यह सब माया तो आपने ही रची है। आप ब्रह्मा विष्णु और महेश हैं। बिना आपके कुछ नहीं हो सकता है। हमारी आपकी तुलना ही नहीं है, बस अपना हाथ हमारे सिर पर से ना हटाएं। आपका आशीर्वाद सदा बना रहे।
वैसे हम लोगों ने सिर्फ भगवान के लिए ही मंदिरों का निर्माण नहीं किया है। हमारे भगवान सिर्फ मंदिरों में नहीं हैं। हमने तो अपने हीरो चाहे वो किसी भी क्षेत्र के हों, हमने तो उन्हें भी भगवान का दर्जा दिया है और उनकी मुर्तियां बनवा कर मंदिरों में स्थापित किया है। पूजा करते हैं हम सभी उनकी। हमारी आस्था बेमिसाल है।
अब हमारे कोई एक भगवान हों तो हम बताएं। हमने तो अपने सुविधानुसार भगवान तय कर रखे हैं। जब ताकत और शक्ति की जरूरत हो तो कोई और। अगर प्रेम , करूणा और तपस्या की जरूरत हो तो कोई और। हमने जगह-जगह पर मंदिरों में अपने श्रद्धा, भक्ति और विश्वास के केंद्र बनाए हुए हैं।
लगभग मिलती-जुलती स्थिति जहां हम काम करते हैं, वहां भी है। हमारे कार्यस्थल के अपने अलग ही भगवान हैं। एक हों तो बताएं। कई हैं और हमें उनका ख्याल रखना ही पड़ता है। उनकी नाराजगी को हम नहीं झेल सकते हैं। उनकी नाराजगी को झेलना साधारण मनुष्य के वश की बात नहीं है। वहां भी ब्रह्मा विष्णु और महेश हैं। उनकी तुलना खैर भगवान से तो नहीं हो सकती है, पर अगर सुकून के साथ कार्यस्थल पर समय व्यतीत करना है तो वहां आपको इनके समक्ष मत्था टेकना ही है। आप अपने जीवन का निहायत ही मूल्यवान एक तिहाई हिस्सा वहां व्यतीत करते हैं, और आप कतई नहीं चाहेंगे कि एक तिहाई हिस्से के साथ ही साथ जीवन का कुछ और बहुमूल्य हिस्सा आप गंवा दें।आप इनसे दूर भी नहीं रह सकते हैं। नजदीक रहने का तो प्रश्न ही नहीं है। सुरक्षा के दृष्टिकोण से एक निश्चित दूरी बनाए रखें।
वो भी जानते हैं आपके मन की बातें, पर वो चाहते हैं आप उनके सामने अपना शीश झुकाएं। अपनी वेदना उनसे कहें। आशीर्वाद प्राप्त करें उनका। पवित्र आत्मा हैं वो। सब पूर्व जन्म के कर्मों का फल है। हमे हमारा मनुष्य योनि में जीवन मिलना हमारे पूर्व जन्म के कर्मों का ही तो फ़ल है।
तो हुज़ूर हम और आप अपनी अपनी स्थिति के उन्हें दुःख में तो याद करे ही करें, सुख में भी उन्हें कतई ना भूलें। यह भगवान भी अंतर्यामी हैं। सब कुछ जानते हैं। समय आने पर वो आपको आपके भूलों का अहसास भी कराएंगे।
Bilkul sahi bhagwan ko har situation m yaad karna chahiye sirf dukh m yaad karna sahi nhi wo to antaryami hain sab samajhte hain iss liye har haal m bhagwan ko yaad karna chahiye
श्री वर्मा जी ने आस्था के बहुआयामों को बड़ी ही खूबसूरती और सजगता के साथ परिभाषित किया है। वर्तमान परिदृश्य में आस्था, विश्वास व समर्पण के सम्बंध में बुद्धिवाद के विभ्रम पर हृदयवाद की श्रेष्ठता की अहर्निश स्वीकार्यता लेखक की चेतना /वैचारिकी के श्रेष्ठ स्तर का प्रकटीकरण है। 🙏🙏