रविवारीय: बंदर का बच्चा
– मनीश वर्मा ‘मनु’
बंदर के बच्चे से भला कैसा लगाव?
अहले सुबह सिसकियों की आवाज़ से मेरी नींद टूटती है। ऐसा लगा मानों कोई व्यक्ति रो रहा है। कुछ देर तक तो मुझे लगा भ्रम है। पर, सिसकियां लगातार जारी थी। कमरे से बाहर निकल ज्योंहि बालकनी के पास आता हूं तो देखता हूँ बंदर का एक छोटा सा बच्चा सिसकियां ले लेकर रो रहा है। शायद कहीं से भटक और अपनों से बिछड़ कर आ गया था। किसी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कराना चाह रहा था।
शुरू में तो मैंने उसे भगाना चाहा। मैंने उसे डांटते हुए बालकनी से लगभग भगा भी दिया। वो फिर आ गया। अब मुझे थोड़ी थोड़ी उस पर दया भी आ रही थी। बच्चा तो आखिर बच्चा ही था। भले ही वो बन्दर का ही बच्चा क्यों न हो। वही भोला सा मासुमियत लिया हुआ चेहरा। छल कपट से कोसों दूर। मुझे लगा कहीं यह भूखा तो नहीं। फ्रीज से निकाल कर उसे मैंने ब्रेड के दो टुकड़े और अंगुर के कुछ दाने दिए। बड़े प्यार से वो खा रहा था। बड़ा ही मासूम लग रहा था।
उस वक्त मेरे मन एक स्वाभाविक सा डर था। बंदर का बच्चा है। कहीं परक गया तो रोज आएगा, उत्पात मचाएगा। शायद उसका उत्पात मैं झेल नहीं पाऊंगा। यह सोचते हुए मैंने बालकनी का शीशे का दरवाजा बंद किया और सुबह की सैर पर निकल गया। अमूमन मैं देर से उठने वाला व्यक्ति हूं। जब किसी कारण वश सुबह उठ जाता हूँ तो मुझे उगते हुए सूरज और उसकी लालिमा देखना बड़ा अच्छा लगता है। मन करता है दौड़ते हुए वहां चला जाऊं और सूरज को अपने हाथों में ले लूँ।
तभी अचानक से बजरंगबली की याद आती है। मैं कोई बजरंगबली तो हूँ नहीं। एक अदना सा व्यक्ति हूं जिसके अरमान कभी कभी उसकी ऊंचाई से ऊपर उठ जाते हैं। खैर! जब लौट कर आता हूं तो मालूम चलता है कि वो बन्दर का बच्चा (अब से छोटू) अपार्टमेंट के ऊपर से नीचे सभी फ्लैटों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका था। मैंने भी घर में कह दिया इसका कोई भरोसा नहीं है। दरवाजे वगैरह खुला मत रखना। पता नहीं क्यों मैं उससे पीछा छुड़ाना चाहता था। पर क्यों? अब भी मेरे पास कोई जवाब नहीं है। शायद उसके उत्पात की वजह से। एक द्वंद्व सा चल रहा था मेरे मन में।
अचानक से मुझे दो दिनों के लिए कहीं बाहर जाना पड़ा। घर में ताकीद कर दी थी कि दरवाजे वगैरह खुला मत छोड़ना।
खैर! दो दिनों के बाद वापस आना हुआ। देखता हूं दरवाजे खिड़कियां पहले की तरह बिंदास खुले हुए हैं। थोड़ी खुशी हुई। ऐसा लगा कि छोटू को लोगों ने भगा दिया या वो खुद कहीं और चला गया हो। पर जो हुआ, जो मुझे बताया गया। वो मेरी कल्पना से परे था। छोटू मर गया था। बिजली के पोल पर चढ़ा था। करंट लग गया। छोटू अब नहीं रहा। एकबारगी तो मुझे यकीन नहीं हुआ।पर सच्चाई से आप कब तक मुंह चुरा सकते हैं भला। आखिर कब तक।
हम लोग भी बड़े अजीब हैं। किसी के बारे में एक नैरेटिव बना लेते हैं। गढ़ लेते हैं किस्से और कहानियां। बना लेते हैं एक दायरा और अपने आप को सिमटा लेते हैं उसके भीतर। उस दायरे से बाहर निकलना ही नहीं चाहते। एक कोकून के अंदर अपनी दुनिया बसा लेते हैं। अपनी ही गढ़ी हुई किस्से और कहानियों के पात्र बन रह जाते हैं हम। पटकथा से लेकर निर्देशक और निर्माता भी हम ही हैं।
विडंबना है। बहुत ही बड़ी विडम्बना है।
छोटू को हम बचा सकते थे। माना मौत प्रारब्ध था उसका। पर हमें तो हमारे गढ़े हुए खुद के नैरेटिव के अनुसार हमें, हम सभी को उससे छुटकारा पाना था। मिल गया छुटकारा। अच्छा हुआ, मैं यहां नहीं था। शायद उस भोले और मासूम चेहरे को चिरनिंद्रा में सोए देख विचलित हो सकता था। अब भी विचलित हूं। उसके बारे में लिखकर खुद को सांत्वना दे रहा हूँ।
अपराधी हैं हम सभी। जिंदगी तो जिंदगी होती है किसी के लिए भी। छोटू तो बच्चा था। उसका तो बस यही कसूर था कि वह बन्दर का बच्चा था पर असली कसूरवार तो हम ही थे – उसकी मौत के ज़िम्मेदार मनुष्य जात।