
रविवारीय: बदलाव
हमारी पीढ़ी के लोगों ने शायद सही मायने में बदलाव को देखा है । आजकल के बच्चों ने उस दौर को कहां देखा है? उन्होंने तो उस आज को देखा है, जब चीजें सुलभ हो गई हैं। परिस्थितियां इतनी जल्दी बदली पता ही नहीं चला।
अस्सी के दशक की बात है। पिताजी का स्थानांतरण पटना से रांची हो गया था। तब बिहार अविभाजित था। उम्र हमारी छोटी थी उस वक्त तो शायद यह भान भी नहीं था कि कभी भविष्य में बिहार बंटेगा और झारखंड अस्तित्व में आएगा। जैसे जैसे बड़े हो रहे थे सच्चाई से सामना हो रहा था। तमाम दावों के बावजूद बिहार बंटवारे की ओर अग्रसर हो रहा था और अंततोगत्वा झारखंड अस्तित्व में आ गया। आज़ भी दिल इस बात को मानने से इंकार करता है कि रांची बिहार में नहीं झारखंड में है।
उस वक्त कभी कभी पिताजी के रांची जाने के दौरान मुझे रांची के लिए ट्रेन में रिजर्वेशन कराने का काम सौंपा जाता था। मुझे भली भांति याद है कि लाइन में एक दो घण्टे खड़े होकर जब काउंटर पर पहुंचते थे, स्टेशन की भीड़ में टिकट खिड़की तक पहुंचना भी एक उपलब्धि से कम नहीं था। रिज़र्वेशन बाबू अपनी धीमी गति से रजिस्टर के पन्ने पलटते (तब कंप्यूटर कहां?) और हम मन ही मन प्रार्थना करते कि एक सीट तो मिल जाए।
पिताजी फार्म भरकर पहले से दे दिया करते थे और उस फार्म को हम कांउटर पर उपस्थित बाबू को बढ़ा दिया करते थे। जैसा मैंने पहले ही कहा तब आज के जैसा कंप्यूटर नहीं हुआ करता था। एक मोटा सा रजिस्टर हुआ करता था। उस रजिस्टर के पन्नों से ढूंढ ढूंढ कर रिजर्वेशन हुआ करता था। अगर कभी रिजर्वेशन बाबू ने कह दिया कि बर्थ उपलब्ध नहीं है तो उनसे रिक्वेस्ट ही किया जा सकता था ” अंकल जरा और पन्नों पर देख लिजिए, शायद कहीं से एक-आध बर्थ निकल आए” । हां, तब हमारी उम्र उन्हें अंकल कहने की ही थी।
बाद के दिनों में रजिस्टर का स्थान कंप्यूटर ने ले लिया। रिज़र्वेशन कराना अब थोड़ा सुलभ हो चला था, पर रिजर्वेशन कराना तब भी एक हरक्यूलियन टास्क हुआ करता था। दिनभर का काम हुआ करता था। आज तो ऐसा लगता है मानो क्रांति आ गई हो। अब तो इने गिने चुने हुए लोग ही आपको कांउटर पर पंक्तियों में खड़े नज़र आते हैं। आपके उंगलियों के इशारे पर पूरी की पूरी कायनात आपके सामने है। जब चाहा उंगलियों के एक इशारे पर टिकट हाजिर है। इतने सारे बदलाव को देखते हुए ऐसा ही कहा जा सकता है।आज लगभग सभी चीजें आपकी उंगलियों के इशारे पर है। घर बैठे आप लगभग सभी काम कर पा रहे हैं। कल तक दफ्तर में जिन बातों के लिए आम आदमी से आपका आमना-सामना हुआ करता था, आज पहचान विहिनता की स्थिति आ गई है। सामंजस्य बिठाना मुश्किल हो रहा है।
कुछ देर के लिए बदलाव को स्वीकार कर पाना मुश्किल हो जाता है, पर समय की मांग यही है। बदलाव हमेशा अच्छे के लिए होता है। बदलाव के साथ रहें। वैश्विक मांग है यह। हम कोई अपवाद नहीं हैं। पर एक बात तो है! क्या आपको ऐसा नहीं लगता है कि उंगलियों के इशारे पर हमने बहुत कुछ हासिल कर लिया है, पर कहीं ना कहीं इंसान से इंसान का जुड़ाव खत्म हो गया है?
ख़ैर! व्यक्तिगत सोच और भावनाएं अपनी जगह पर हैं। उन्हें अपने जीवन पर हावी ना होने दें। किसी भी चीज़ को समग्रता के साथ देखें। कनेक्ट करें अपने आप को बदलाव के साथ।
अंत में एक बात, बदलाव अवश्यंभावी है, लेकिन हमें यह तय करना होगा कि हम इसका सार्थक उपयोग करें। क्या हम तकनीक के सहारे आगे बढ़ेंगे या इसके गुलाम बन जाएंगे? यह मत भूलिए तकनीक हमसे है हम तकनीक से नहीं है। वो हमारा गुलाम है। हमारी उंगलियों के इशारे पर चलता है, पर हम नहीं।