रविवारीय: अद्भुत कैलाश मंदिर
श्रीमति जी की इच्छा घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन को थी और कैलाश/कैलासा मंदिर को देखने की भी बड़ी उत्कट इच्छा उनके मन में थी। हम चल पड़े औरंगाबाद अब संभाजी महाराज नगर के लिए और निकल पड़े हम अजंता और एलोरा की गुफाओं को देखने के लिए।
बचपन से अजंता और एलोरा की गुफाओं को लेकर मन में एक उत्सुकता थी। बहुत कुछ नहीं जानते थे, पर इतिहास के विद्यार्थी होने की वजह से जितना जानते थे वो शायद बहुत कम था। यह बात वहां जाकर पता चली।
अजंता की गुफा तो पूर्णरूपेण बुद्ध को समर्पित है । यह औरंगाबाद शहर से लगभग सौ किलोमीटर की दूरी पर है । औरंगाबाद से लगभग तीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित एलोरा की गुफाएं जैन, बुद्ध और हिन्दू सभी को समर्पित हैं और विभिन्न काल खण्ड में बनायी गई थी, पर सभी एक साथ मिलकर भारत की समावेशी संस्कृति का बेहतरीन चित्र प्रस्तुत करती हैं।
एक ही पहाड़ी के भीतर बैसाल्ट पत्थरों से निर्मित तीनों धर्मों के इतने सुन्दर उदाहरण सह-अस्तित्व की अद्भुत मिसाल है। पहले पहल हमलोगों ने भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक घृष्णेश्वर महादेव के दर्शन किए उसके बाद निकल पड़े एलोरा की ओर जो वहाँ से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है ।
खैर! बाक़ी बातें तो अपनी जगह पर हैं, यहाँ हम बातें करेंगे कैलाश/ कैलासा मंदिर के बारे में । इस मंदिर के बारे में लोगों ने कहा था – जा तो रहे हैं, पर वहां से आपको लौटने का मन नहीं करेगा। वाकई अद्भुत।
एलोरा की गुफाओं में जब सूर्य की पहली किरण गिरती है, तो वहां की शांत चट्टानों में जैसे कोई पुरातन गूंज सुनाई देती है—कला, श्रम और भक्ति की। इन्हीं गूंजों के बीच, एक विशाल पर्वत के भीतर से उभरा हुआ, शिव का कैलाश मंदिर मानो उस गूढ़ संवाद का जीवंत रूप है। यह कोई साधारण मंदिर नहीं—यह एक भाव है, एक समर्पण है, एक चुपचाप से की गई साधना है। राष्ट्रकूट सम्राट कृष्ण (प्रथम) ने आठवीं सदी में इसका निर्माण करवाया था, पर वास्तव में इस मंदिर को आकार देने वाले अनाम शिल्पकारों ने अपने हथौड़े-छेनी से जो रचा, वह केवल वास्तु नहीं, आत्मा का विस्तार है। यहाँ न तो ईंटें हैं, न कोई जोड़, न कोई खंभे पर टिकी छतें—यह संपूर्ण मंदिर एक ही चट्टान से काटकर तराशा गया है, जैसे सृष्टि की पहली मूर्ति स्वयं पर्वत ने रची हो।
इस मंदिर को ऊपर से नीचे की ओर काटा गया है—कल्पना कीजिए! शिखर से आरंभ होकर, चरणों तक मूर्तियों से भरे गलियारे, स्तंभ, कोठरियाँ, मंडप—सब कुछ एक ही चट्टान से निकला है। स्थापत्य कला का अद्भुत और उत्कृष्ट प्रदर्शन। इसकी लम्बाई लगभग पौने तीन सौ फीट, चौड़ाई लगभग डेढ़ सौ फीट, और ऊँचाई लगभग 90 फीट है, पर इसे केवल फीट और इंचों में नहीं मापा जा सकता है। इसका सही मापन तो उन वर्षों, उन पीढ़ियों, और उस भक्ति में है जो इसे आकार देने में लगी रहीं।
मंदिर के गर्भगृह में शिव प्रतिष्ठित हैं, पर लगता है कि यहाँ पत्थर भी पूजा करते हैं, स्तंभ भी ध्यान में डूबे हैं, और हर अलंकरण जैसे किसी प्राचीन मंत्र का प्रतिरूप हो। दीवारों पर उकेरी गई रामायण और महाभारत की कथाएँ केवल चित्र नहीं हैं, वे जीवंत कथा-वाचन हैं जो शिलाओं के माध्यम से संवाद करती हैं।
मंदिर के प्रांगण में विराजे नंदी की दृष्टि सदा शिव की ओर लगी रहती है—नतमस्तक, अडिग, श्रद्धा से भरा हुआ। दोनों ओर उभरे हुए हाथियों की विशाल मूर्तियाँ किसी काल्पनिक कथा से नहीं, बल्कि उस जनसमूह से निकली प्रतीत होती हैं, जिसने शिल्प को धर्म और श्रम को भक्ति में बदल दिया।
आज वह सेतु टूट चुका है जो मंदिर के ऊपरी खंड को कोठरियों की पंक्तियों से जोड़ता था, पर जो जोड़ अब भी बना हुआ है—वह है मंदिर और हमारे हृदय के बीच। वह अदृश्य सेतु आज भी जीवित है, जब कोई यात्री मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ता है और मौन खड़ा होकर उस अद्भुत सृजन को निहारता है। मंदिर के प्रांगण में दो स्तंभ जिसे आप और हम बीस रुपए के नोट पर भी देख सकते हैं।
कैलाश मंदिर केवल शिव का निवास नहीं, वह भारतीय आत्मा की जड़ें हैं—जहाँ पत्थर में प्राण हैं, और प्राणों में शांति। यह मंदिर गवाही देता है कि हमारी सांस्कृतिक चेतना कभी केवल बाह्य वैभव में नहीं रही, वह तो उस साधना में रही जो बिना नाम चाहे, केवल निर्माण में रमती रही।शिव का यह निवास मानों पत्थर में उत्कीर्ण एक महाकाव्य है – जिसमें धर्म, कला, विज्ञान और आत्मा एक साथ बहते हैं। मंदिर का हर कोना, हर पत्थर, हर छाया मानों कुछ कह रही हो।
कैलाश मंदिर को देखने के कभी-कभी ऐसा लगता है कि विश्व के सात आश्चर्य जो चुने गए थे उसमें कहीं ना कहीं कुछ गलती हो गई है । अंततः हमलोगों की यह यात्रा पत्थरों से देवता तक और देवत्व से आत्मा तक की रही।







यह यात्रा-वृत्तांत अत्यंत भावनात्मक, दृश्यात्मक और ऐतिहासिक दृष्टि से समृद्ध है। शब्द-शब्द में शिल्प कला की उत्कृष्टता के साथ भारतीय आत्मा का प्रकटन है।
यह सच है कि एलोरा स्थित कैलाश मंदिर न केवल स्थापत्य की दृष्टि से अद्वितीय है, बल्कि भारतीय आत्मा की गहराइयों से भी गुँथा हुआ है। यह मंदिर पत्थर में रची एक ऐसी साधना है, जिसमें कला, भक्ति और विज्ञान का समन्वय दिखाई देता है। राष्ट्रकूट सम्राट कृष्ण प्रथम द्वारा 8 वीं शताब्दी में निर्मित यह मंदिर एक ही चट्टान को ऊपर से नीचे की ओर काटकर बनाया गया—एक असंभव प्रतीत होती प्रक्रिया जिसे भारतीय शिल्पकारों ने श्रम और श्रद्धा से संभव किया। इस मंदिर में केवल शिव की आराधना नहीं, बल्कि रामायण, महाभारत और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की भी प्रस्तुति है। यहाँ के शिल्प केवल दृश्य नहीं, संवाद हैं—जैसे इतिहास स्वयं पत्थर में बोल रहा हो। कैलाश मंदिर इस बात का साक्ष्य है कि भारतीय संस्कृति का वैभव बाह्य विलासिता में नहीं, आत्मा के मौन सृजन में है।
श्री मनीष वर्मा ‘मनु’ द्वारा का यह यात्रा वृत्तांत यात्रा-विवरण से आगे जाकर एक आध्यात्मिक अनुभव बन जाता है—जहाँ एक यात्री केवल स्थल नहीं देखता, अपितु उस स्थल से स्वयं जुड़ जाता है। वास्तव में, यदि विश्व के सात आश्चर्यों की सूची पुनर्निर्मित हो तो एलोरा का कैलाश मंदिर उसमें शीर्ष पर स्थान पाने योग्य है—क्योंकि यह आश्चर्य किसी राजा के वैभव से नहीं, बल्कि एक अनाम कारीगर की साधना से जन्मा है।