पुस्तक समीक्षा
– जिनेश जैन*
पुस्तक: अरावली पर नया संकट 2025
लेखक: राजेंद्र सिंह
जलपुरुष के रूप में लोकप्रिय मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त राजेंद्र सिंह की पुस्तक अरावली पर नया संकट 2025 समकालीन भारत के पर्यावरणीय साहित्य में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और समयबद्ध हस्तक्षेप है। यह पुस्तक न सिर्फ अरावली पर्वतमाला के पारिस्थितिक महत्व को रेखांकित करती है, बल्कि विकास और संरक्षण के बीच चल रहे द्वंद्व को एक नई दृष्टि से प्रस्तुत करती है। यह पुस्तक पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक गंभीर पुकार है। यह न केवल अरावली पर्वतमाला के भौगोलिक महत्व को रेखांकित करती है, बल्कि इसके अस्तित्व पर मंडरा रहे आधुनिक खतरों से भी आगाह करती है।
पुस्तक की विषयवस्तु और संरचना
पुस्तक मुख्य रूप से 20 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट के आए एक निर्णय और उसके बाद उत्पन्न हुए “100 मीटर की ऊंचाई” के विवाद पर केंद्रित है। लेखक ने बड़े ही तार्किक ढंग से स्पष्ट किया है कि अरावली को सिर्फ 100 मीटर से ऊपर की ऊंचाई तक सीमित मानकर संरक्षित करना वैज्ञानिक और सांस्कृतिक रूप से त्रुटिपूर्ण है। पुस्तक के विभिन्न अध्याय जैसे ‘खनन बनाम जीवन की लड़ाई’ और ‘धरती मां की कराह’ सीधे तौर पर पाठक की संवेदनाओं को झकझोरते हैं। लेकिन पुस्तक का भावनात्मक पर्यावरणीय पहलू एक पक्ष को अखर सकता है, जो यह तर्क दे सकते हैं कि ‘मां की हत्या’ और ‘अरावली के आंसू’ जैसे शब्दों का बार-बार प्रयोग पुस्तक को वैज्ञानिक दस्तावेज के बजाय भावनात्मक अपील की ओर अधिक ले जाता है। पुस्तक में खनन उद्योग के आर्थिक पक्ष या सरकार द्वारा दिए ‘सस्टेनेबल मैनेजमेंट’ के तर्कों को अरावली के नजरिए से खारिज किया गया है। लेखक ने खनन उद्योग और सस्टेनेबल मैनेजमेंट के तर्कों से असहमति जताते हुए इसे ‘विनाश’ की संज्ञा दी है।
संस्कृति और प्रकृति का मिलन
यह केवल आंकड़ों की किताब नहीं है। इसमें अरावली की आदि-परंपराओं, औषधियों, वन्यजीवों और वहां रहने वाले समुदायों के जीवन का दस्तावेजीकरण किया गया है। लेखक बताते हैं कि अरावली के विनाश का अर्थ केवल संसाधनों का नुकसान नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता और भविष्य का अंत है। वैश्विक संदर्भ: पुस्तक में ब्राजील में आयोजित कोप-30 का भी उल्लेख है, जहां दुनिया भर के नेताओं ने वनों और आदिवासियों के अधिकारों पर चर्चा की थी।
सकारात्मक पक्ष, तथ्यात्मक गहराई
लेखक ने अरावली के क्षेत्रफल और ऊंचाई के आंकड़ों (जैसे 100 मीटर से ऊपर केवल 8.7% हिस्सा होना) के माध्यम से यह सिद्ध किया है कि नई परिभाषा अरावली के एक बड़े हिस्से को खनन के लिए असुरक्षित छोड़ देगी। पुस्तक 1990 के दशक से लेकर अब तक के कानूनी संघर्षों का विस्तृत ब्यौरा देती है, जिससे पाठकों को इस आंदोलन की निरंतरता समझ आती है। कोप-30 और ब्राजील के अमेजन वनों के उदाहरणों को भारतीय संदर्भ से जोड़ना लेखक की वैश्विक दृष्टि को दर्शाता है।
झलकता है व्यक्तित्व और कार्य
पुस्तक के लेखक राजेंद्र सिंह को पूरी दुनिया “भारत के जलपुरुष” (Waterman of India) के नाम से जानती है। उनका व्यक्तित्व और कार्य इस पुस्तक के हर पन्ने पर झलकता है। उन्होंने ‘तरुण भारत संघ’ के माध्यम से राजस्थान के सूखे इलाकों में जल संरक्षण के क्रांतिकारी कार्य किए हैं। 1980 के दशक से ही वे अरावली को खनन से बचाने के लिए कानूनी और सामाजिक लड़ाई लड़ रहे हैं। 1993 में उन्होंने अरावली बचाने के लिए गुजरात से दिल्ली तक की लंबी पदयात्रा की थी। उनके जल संरक्षण के कार्यों के लिए उन्हें रेमन मैग्सेसे पुरस्कार और स्टॉकहोम वॉटर प्राइज (जिसे पानी का नोबेल कहा जाता है) जैसे प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा जा चुका है।
अनुभव और संघर्ष का निचोड़
राजेंद्र सिंह प्रकृति के दोहन के बजाय उसके पोषण में विश्वास रखते हैं। उनका मानना है कि प्रकृति और संस्कृति एक-दूसरे के पूरक हैं और इन्हें बचाना ही ‘ईश्वर का कार्य’ है। राजेंद्र सिंह का जीवन अरावली और नदियों के पुनर्जीवन के लिए समर्पित है और यह पुस्तक उनके उसी दीर्घकालिक अनुभव और संघर्ष का निचोड़ है। “अरावली पर नया संकट 2025” सिर्फ एक पुस्तक नहीं, बल्कि भारत की प्राचीनतम पर्वतमाला को बचाने का एक घोषणापत्र है। यह नीति निर्माताओं, पर्यावरणविदों और आम नागरिकों के लिए अनिवार्य पठनीय सामग्री है।
हर संवेदनशील व्यक्ति के लिए पठनीय
राजेंद्र सिंह ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अरावली का विनाश केवल पत्थरों का विनाश नहीं, बल्कि हमारी जल सुरक्षा और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य का विनाश है। कुल मिलाकर, यह पुस्तक विकास की अंधी दौड़ के बीच प्रकृति की मौन चीख को आवाज देने का एक ईमानदार और साहसी प्रयास है। 59 पृष्ठ की यह पुस्तक हर उस पाठक के लिए अनिवार्य है जो पर्यावरण, जल सुरक्षा और अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति संवेदनशील है। यह एक चेतावनी है कि यदि आज हम अरावली के आंसू नहीं पोंछेंगे, तो आने वाली पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करेंगी।
*वरिष्ठ पत्रकार। प्रस्तुत समीक्षा समीक्षक के निजी विचार हैं।
