करौली जिले में पुनर्जीवित महेश्वरा नदी पर महादेव झरना
विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
डाँग का जल-जादू: नदी ने बदली जिंदगी
महेश्वरा नदी की कहानी केवल एक जलधारा की यात्रा नहीं, बल्कि राजस्थान के डांग क्षेत्र के लोगों की आस्था, संकल्प, और सामूहिक श्रम की जीवंत गाथा है। यह नदी करौली जिले की सपोटरा तहसील के खिजूरा और बंधन का पुरा गांवों से शुरू होती है, जहां सूखी धरती पर जीवन की उम्मीद फूटी। इसका उद्गम स्थल, कैला देवी मंदिर से 18 किलोमीटर दूर, खिजूरा के पास धोबी वाली सोत के नाम से जाना जाता है। यहीं से, चार किलोमीटर पूर्व में, प्राचीन पंच-शिवलिंग मंदिर, जिसे स्थानीय लोग महेश्वरा बाबा कहते हैं, इस नदी को नाम और आध्यात्मिक महत्व देता है। इस बिंदु पर, नदी की धारा 25-30 हाथ नीचे एक झरने की तरह गिरती है, मानो प्रकृति स्वयं इसकी महिमा का गान कर रही हो।
यह नदी केवल पानी का प्रवाह नहीं, बल्कि डांग की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान का प्रतीक है। इसकी यात्रा में कई छोटी-बड़ी धाराएं मिलती हैं—रायबेली, राहर की पहाड़ियों, आमरेकी, गसिंहपुरा, बनीजरा, बरोदे का पुरा, पाटोर घाटिया, और दयारामपुरा से आने वाली सोतें इसे समृद्ध करती हैं। डागरिया, आसा की गुवाड़ी, और बीरम की गुवाड़ी की धाराएं इसे और बल देती हैं। मंदिर त्रिलोग सिंह के पास की धारा इसे और मजबूती देती है। गदरेठा और बमुर खेरा के पास इसे मेरवाली सोत और धनिया सोत के नाम से पुकारा जाता है। निभैरा-खो की धारा भी इसमें मिलती है। अंत में, टोडा के पास यह चंबल नदी में समा जाती है, जो यमुना, गंगा, और अंततः गंगा-सागर में मिलकर सागर का हिस्सा बनती है। चंबल, जिसे पुराणों में चर्मण्यवती कहा गया, राजा रंति देव के यज्ञ से जुड़ी कथा के कारण यह नाम पाती है।
भौगोलिक और सांस्कृतिक संदर्भ
महेश्वरा नदी 26°10’34” से 26°18’34” उत्तरी अक्षांश और 76°54’05” से 77°02’00” पूर्वी देशांतर के बीच बसी है। इसका जलागम क्षेत्र 102 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें उद्गम स्थल राहर की ऊंचाई समुद्र तल से 423 मीटर और संगम स्थल पर 157 मीटर है। इसकी घुमावदार लंबाई 27 किलोमीटर है। भौगोलिक रूप से यह नदी डांग की बीहड़ और पथरीली जमीन को जीवन देती है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से, सरकारी नक्शों में इसका नाम तक नहीं है। फिर भी, डांग के लोग इसे अपनी आस्था और गर्व का प्रतीक मानते हैं। पंच-शिवलिंग मंदिर, जो सदियों से तीर्थ स्थल है, नदी के साथ उनकी गहरी आध्यात्मिक जुड़ाव को दर्शाता है।
निराशा से उम्मीद की ओर
खिजूरा गांव, जहां से यह कहानी शुरू होती है, कभी पानी की कमी से उजड़ रहा था। 1990 के दशक में सूखे ने गांव को बंजर बना दिया था। खेती ठप थी, लोग पलायन करने को मजबूर थे, और जंगलात विभाग की सख्ती ने उनकी मुश्किलें बढ़ा दी थीं। गांव में बचीं मरियल गायें और कमजोर बकरियां ही जीवन का आधार थीं। नंगे पहाड़ और सूखी धरती को देखकर लगता था मानो धरती को बुखार चढ़ा हो। हरियाली गायब थी, और लोगों के चेहरों पर निराशा छाई थी। महिलाएं पानी और ईंधन के लिए मीलों भटकती थीं, बच्चे स्कूल छोड़ चुके थे, और गांव का भविष्य अंधकारमय लगता था।
इसी निराशा के बीच तरुण भारत संघ की एक छोटी सी चिंगारी ने बदलाव की शुरुआत की। 1999 में, जब संगठन ने खिजूरा के लोगों को सामूहिक श्रम से पानी लाने का प्रस्ताव दिया, तो शुरू में अविश्वास था। लोग सोचते थे कि सूखी धरती पर पानी कहां से आएगा? लेकिन देवनारायण बाबा, रूप सिंह सरपंच, और कुछ उत्साही ग्रामीणों की आशा ने इस विचार को जड़ें दीं। एक छोटी सी बैठक में अलवर के जल संरक्षण कार्यों का जिक्र हुआ, जहां समुदायों ने अपने श्रम से गांवों को पानीदार बनाया था। खिजूरा के लोगों ने भी यही रास्ता चुना। तरुण भारत संघ ने खाने का इंतजाम किया, और ग्रामीणों ने श्रमदान। इस साझेदारी ने गांव की कायापलट कर दी।
श्रम का जादू
1999 से शुरू हुए जल संरक्षण कार्य 2011-12 तक और सघन हो गए। इस दौरान 20-22 नई संरचनाएं बनीं, खासकर बंधन का पुरा के ऑडा खार नाले में। जोहड़, ताल, और पगारों ने बारिश के पानी को रोककर भूजल स्तर को बढ़ाया। इन पगारों ने हजारों मन गेहूं की पैदावार दी। नदी का ऊपरी हिस्सा भी जलमय हो गया। पानी की वापसी ने लोगों के तन-मन को तर कर दिया। खेती फिर से शुरू हुई, पशुओं को चारा मिला, और महिलाओं को पानी और ईंधन के लिए दूर नहीं भटकना पड़ा। बच्चे स्कूल जाने लगे, और गांव में खुशहाली लौट आई।
कल्याण गुर्जर, एक स्थानीय किसान, बताते हैं, “पहले हमारी जमीन पत्थर की तरह थी। अब धान की फसल लहलहाती है। यह सब हमारे श्रम और एकता का नतीजा है।” उनकी बातों में गर्व और आत्मविश्वास झलकता है। गांव के बुजुर्ग, जैसे 90 वर्षीय बिशन बैरवा, कहते हैं, “मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरे जीवनकाल में नदी फिर बहेगी। यह भगवान का चमत्कार और लोगों की मेहनत है।”
मोरे वाला ताल: स्वावलंबन की मिसाल
2001 में नीमी गांव के जल-सम्मेलन ने खिजूरा के लोगों को प्रेरित किया। कल्याण गुर्जर और कमल भगत ने मोरे वाला ताल को पूरा करने का बीड़ा उठाया। यह ताल धोबी वाली सोत के सहायक नाले पर बना, जहां पहले 1963 में एक छोटी मेड़बंदी थी, जो अपर्याप्त थी। 2002 में 40 परिवारों ने प्रति बीघा जमीन के हिसाब से श्रमदान किया। अगले साल ताल पानी से लबालब हो गया। ग्रामीणों ने मिलकर इसकी पाल को मजबूत किया, और यह ताल गांव की समृद्धि का प्रतीक बन गया। पहले केवल बाजरा उगने वाली जमीन पर अब धान और गेहूं की फसलें लहलहाने लगीं। पहले साल में 140 बीघा जमीन से 1400 मन धान पैदा हुआ, जिससे 5.6 लाख रुपये की आय हुई। यह ताल आज भी गांव की आत्मनिर्भरता की कहानी कहता है।
जल-कुंभ: सामूहिकता का उत्सव
खिजूरा में आयोजित जल-कुंभ ने न केवल महेश्वरा नदी को पुनर्जनन दिया, बल्कि सामाजिक एकता को भी मजबूत किया। नीमी के जल-सम्मेलन से प्रेरित कल्याण बाबा ने इस विचार को गांव में लाया। चमन सिंह और ग्रामीणों के सहयोग से यह आयोजन 30 गांवों की भागीदारी से हुआ। ग्यारह हजार लोग, साधु-संत, और गणमान्य व्यक्तियों ने इसमें शिरकत की। भोजन की व्यवस्था, जिसमें स्थानीय पत्तों से बने दोने-पत्तल इस्तेमाल हुए, और सफाई का प्रबंध पूरी तरह ग्रामीणों ने संभाला। कोई गंदगी नहीं, कोई बर्बादी नहीं। यह कुंभ नदियों को शुद्ध और सदानीरा रखने की प्राचीन परंपरा को पुनर्जनन देने वाला था।
इस कुंभ में जल संरक्षण, विकेंद्रीकृत जल प्रबंधन, और सामुदायिक प्रयासों पर गहन चर्चा हुई। लोगों ने बादलों की बूंदों को धरती के पेट में समेटने का संकल्प लिया। समापन के दौरान एक कृत्रिम बारिश का खेल खेला गया, और संयोगवश असली बारिश हो गई। यह घटना लोगों की आस्था और श्रम में विश्वास को और गहरा गई। एक ग्रामीणी, नर्बदा, कहती हैं, “उस दिन लगा कि भगवान भी हमारे साथ हैं। हमारी मेहनत को आशीर्वाद मिला।”
महिलाओं की ताकत
डांग की महिलाएं इस बदलाव की रीढ़ हैं। 2003 में भीकमपुरा में हुए महिला सम्मेलन ने उन्हें नई दिशा दी। छोटी, दरबी, और नर्बदा जैसी महिलाओं ने न केवल पानी के काम में हिस्सा लिया, बल्कि महिला मंडल बनाए, बचत शुरू की, और बालिका शिक्षा को बढ़ावा दिया। पहले पानी और चारे के लिए दिन-रात भटकने वाली महिलाएं अब गांव की साझी भलाई के लिए समय देती हैं। उनकी मेहनत से खरीफ में धान, रबी में गेहूं, और तीसरी फसल के रूप में सब्जियां उगने लगीं। ग्राम पंचायत में उनकी बात सुनी जाती है, और पहली बार हैंडपंप उनके लिए लगे।
दरबी, एक महिला मंडल की अध्यक्ष, बताती हैं, “पहले हमारी कोई नहीं सुनता था। अब हमारी आवाज पंचायत तक पहुंचती है। पानी ने हमें ताकत दी।” उनकी कहानी डांग की हर उस महिला की कहानी है, जो पानी के साथ-साथ अपनी पहचान को भी पुनर्जनन दे रही है।
सिद्ध सरोवर: आस्था और श्रम का संगम
2002 में सिद्धराज सिंह धड्डा ने वीरमकी में बैरवा समाज की जमीन पर ताल की नींव रखी। 2006 में बना यह ताल सिद्ध सरोवर कहलाया। इससे 20 बीघा जमीन पर धान और गेहूं की फसलें उगने लगीं। बैरवा समाज ने इसे सिद्धराज जी को समर्पित किया। दयारामपुरा के पीपरवारा ताल ने भी गांव को पानीदार बनाया। बाबा बिशन बैरवा, 90 साल की उम्र में भी, इस बदलाव को देखकर उत्साहित हैं। वे कहते हैं, “यह ताल हमारी एकता का प्रतीक है। हमारे बच्चे अब भूखे नहीं सोते।”
न्याय की परंपरा
डांग में न्याय की प्राचीन व्यवस्था आज भी जीवंत है। कारस देव के मेले में झगड़े सुलझाए जाते हैं। रायबेली में हुए एक हत्याकांड में पंचायत ने दोषी को 12 गांवों से निष्कासित किया, और पुलिस को तब तक नहीं सौंपा जब तक फैसला नहीं हो गया। यह परंपरा सामाजिक एकता और विश्वास का प्रतीक है। पंचायत के फैसले को सभी मानते हैं, और यह सामुदायिक सद्भाव को बनाए रखता है।
हथियार से फावड़ा तक
डांग में कभी हथियारबंदों का डर था। चौथ वसूलने वाले लोग गांवों में आतंक का पर्याय थे। लेकिन पानी के काम ने उनकी सोच बदली। बन्नू सैनी जैसे लोग, जो पहले हथियार उठाते थे, बाद में सहयोगी बने। कुछ ने बंदूक छोड़कर फावड़ा थामा और सामाजिक कार्यों में जुट गए। यह बदलाव पानी की ताकत और समुदाय की एकता का नतीजा है। बन्नू कहते हैं, “पानी ने हमें सिखाया कि जिंदगी लड़ने से नहीं, मिलकर काम करने से बनती है।”
पर्यावरण और संस्कृति का पुनर्जनन
महेश्वरा नदी के पुनर्जनन ने न केवल पर्यावरण को बदला, बल्कि डांग की सांस्कृतिक विरासत को भी पुनर्जनन दिया। पंच-शिवलिंग मंदिर में अब पहले से ज्यादा तीर्थयात्री आते हैं। मेले और उत्सवों में नदी की कहानी गाई जाती है। बच्चे स्कूलों में जल संरक्षण की कहानियां पढ़ते हैं, और युवा गांव छोड़ने के बजाय खेती और पशुपालन में रुचि ले रहे हैं। नदी ने न केवल धरती को हरियाली दी, बल्कि लोगों के दिलों में उम्मीद भी बोई।
चुनौतियां और भविष्य
हालांकि महेश्वरा नदी अब सदानीरा है, चुनौतियां बाकी हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण अनियमित बारिश एक समस्या है। सरकारी समर्थन की कमी और नदी का नक्शों में न होना भी बाधा है। लेकिन डांग के लोग हार नहीं मानते। वे अब नई तकनीकों, जैसे ड्रिप सिंचाई और जैविक खेती, को अपनाने की योजना बना रहे हैं। तरुण भारत संघ के साथ मिलकर वे अन्य गांवों में भी इस मॉडल को ले जाना चाहते हैं।
निष्कर्ष
महेश्वरा नदी की कहानी श्रम, आस्था, और सामूहिकता की जीत है। तरुण भारत संघ और डांग के लोगों ने मिलकर न केवल एक नदी को बचाया, बल्कि एक समुदाय को आत्मनिर्भर बनाया। यह कहानी अन्य क्षेत्रों के लिए प्रेरणा है कि प्रकृति और समाज का सह-अस्तित्व कैसे संभव है। जैसा कि कल्याण गुर्जर कहते हैं, “पानी सिर्फ नदी में नहीं, हमारे दिलों में भी बहता है।” यह गाथा डांग की धरती पर लिखी गई, लेकिन इसकी गूंज पूरी दुनिया में सुनाई देती है।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक


