कोटा: आज अंतर्राष्ट्रीय प्लास्टिक बैग मुक्ति दिवस है। हर साल 3 जुलाई को अंतर्राष्ट्रीय प्लास्टिक बैग मुक्ति दिवस पर सरकारें पॉलीथिन के प्रति जागरूकता संदेश प्रसारित करती हैं, लेकिन ये केवल उपदेश तक सीमित रहते हैं। भारत की नदियों और समुद्र तटों पर फैलता प्लास्टिक पॉलीथिन का कचरा एक मूक संकट बनकर उभर रहा है, जो कोटा के रमेश जैसे आम नागरिकों के दिलों को कचोटता है। रमेश, एक छोटे दुकानदार, हर सुबह अपनी दुकान के बाहर बिखरे प्लास्टिक थैलों को देखकर चिंतित होते हैं। “ये थैले नालियों को जाम करते हैं, बरसात में बाढ़ लाते हैं, और हमारी चंबल नदी को गंदा कर रहे हैं,” वह कहते हैं।
प्लास्टिक कचरे के पहाड़ अब असली पहाड़ों से ऊंचे हो रहे हैं, क्योंकि सरकारें और जनता दोनों ही इस जटिल समस्या का समाधान करने में नाकाम रही हैं। बेतरतीब शहरीकरण और अपर्याप्त कचरा प्रबंधन ने नदियों, जलाशयों और समुद्र को प्रदूषित कर दिया है, जिससे पर्यावरण के साथ-साथ मानव जीवन भी संकट में है। गांवों तक पहुंच चुका यह कचरा नालियों को चोक करता है, जिससे बाढ़ जैसी आपदाएं आम हो गई हैं।
यदि वास्तव में पॉलीथिन प्लास्टिक के कचरे की समस्या का समाधान करना है तो सरकारों को ही पहल करनी होगी ।सबसे पहले अपने आचरण में लाना होगा। आम जनता, जिसके पास न कानूनी शक्ति है और न सत्ता का बल, इस कचरे के बोझ तले दबी है। सरकारी दूध डेरियां और औद्योगिक इकाइयां स्वयं प्लास्टिक थैलों में दूध और अन्य उत्पाद बेचती हैं, और हर उत्पाद की पैकेजिंग में पॉलीथिन का उपयोग अनिवार्य-सा हो गया है। इस प्रकार के पेकेजिंग उद्योग भी सरकार की अनुमति से ही चल रहें हैं। जब सरकार खुद रोकने की पहल नहीं करती तो बेचारी जनता क्या कर लेगी। प्लास्टिक पालीथीन यदि बहुत जरूरी है तो उनको कचरा बनाने की आदत में सुधार आखिर कौन करेगा? इस सवाल का जवाब भी जिम्मेदार लोगों को ही देना होगा।या हमेशा की तरह सरकार कहेगी कि जनता की जागरूकता पर निर्भर करता है शिक्षा और संस्कार की कमी है या जनता कहेगी कि सरकार निकम्मी है ,अफसर काम नहीं करते सरकार की स्पष्ट नीतियां नहीं है।
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भारत में प्रतिदिन करीब 26,000 टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है, जिसमें से केवल 60 प्रतिशत ही एकत्र या रिसाइकिल हो पाता है। यह कचरा अब शहरों से लेकर गांवों तक फैल चुका है, जिससे नालियां जाम हो रही हैं और बाढ़ जैसी आपदाएं बढ़ रही हैं। “जब सरकारें खुद प्लास्टिक को बढ़ावा देती हैं, तो जनता क्या करे?” यह सवाल हर नागरिक के मन में उठता है।
समाधान की राह में सबसे बड़ी बाधा है कचरे का उचित वर्गीकरण और पुनर्चक्रण की कमी। बिना प्रशिक्षित टीमें और आधुनिक रिसाइक्लिंग इकाइयों के, प्लास्टिक पॉलीथिन के खतरे को नियंत्रित करना असंभव है। भारत का पारंपरिक कबाड़ी सिस्टम, जो कचरे का वर्गीकरण और रिसाइक्लिंग करता है, सराहनीय है, लेकिन इसकी क्षमता सीमित है। यदि सरकार गंभीरता से प्रयास करे, तो शत-प्रतिशत रिसाइक्लिंग संभव है। शहरी विकास मंत्रालय को नगर पालिकाओं और पंचायतों में प्रशिक्षित टीमें तैनात करनी चाहिए, जो कचरे को अलग करें और पुनर्चक्रण इकाइयों को स्थापित करें। कुछ शहरों, जैसे इंदौर, ने स्वच्छता और रिसाइक्लिंग में मॉडल पेश किया है, जहां 1,600 टन दैनिक कचरे में से 90 प्रतिशत का प्रबंधन हो रहा है। लेकिन देशव्यापी स्तर पर ऐसी पहल धीमी गति से चल रही हैं।
यह समस्या केवल सरकारी नीतियों की विफलता तक सीमित नहीं है; यह एक सामाजिक जिम्मेदारी भी है। दिल्ली की गृहिणी रीना बताती हैं कि वह कपड़े के थैले इस्तेमाल करती हैं, लेकिन बाजार में ज्यादातर दुकानदार प्लास्टिक थैले ही देते हैं। “हम चाहकर भी क्या करें? विकल्प ही नहीं हैं,” वह कहती हैं।
पैकेजिंग उद्योगों पर सख्त नियम लागू करने और पर्यावरण-अनुकूल सामग्री, जैसे केले के पत्तों या स्टार्च-आधारित थैलों, को बढ़ावा देने की जरूरत है। वैज्ञानिकों ने बायोडिग्रेडेबल पैकेजिंग के कई समाधान प्रस्तुत किए हैं, लेकिन इनका उपयोग मुख्यधारा में नहीं आ सका। न्यायालय आदेश पारित कर सकते हैं, लेकिन उनकी पालना कार्यपालिका की जिम्मेदारी है। बिना सरकारी इच्छाशक्ति के, जनता की जागरूकता और शिक्षा के अभाव को दोष देना आसान है, लेकिन यह सिलसिला नदियों और समुद्र को प्रदूषित करता रहेगा। इंदौर जैसे मॉडल और कबाड़ी सिस्टम की क्षमता को बढ़ाकर, भारत प्लास्टिक कचरे से मुक्ति पा सकता है, बशर्ते सरकार और जनता मिलकर कदम उठाएं।
*स्वतंत्र पत्रकार और कोटा एनवायरनमेंटल सेनिटेशन सोसाइटी के अध्यक्ष।
