हर साल एक से सात जुलाई तक वन महोत्सव के दौरान देश में करोड़ों पौधे लगाने के दावे गूंजते हैं, लेकिन हकीकत इन दावों की पोल खोलती है। केवल 2023-24 में 29 हजार हेक्टेयर वन भूमि, जो केंद्रशासित प्रदेश पुड्डुचेरी के बराबर है, विकास यज्ञ की भेंट चढ़ गई। इंडिया स्टेट फॉरेस्ट रिपोर्ट ने खुलासा किया कि यह हरियाली सड़क, खनन, बिजली लाइनों, सिंचाई और जल विद्युत परियोजनाओं के लिए साफ की गई। 2014-15 से 2023-24 तक कुल एक लाख तिहत्तर हेक्टेयर वन भूमि विकास की आग में स्वाहा हो चुकी है।
यह सब तब हो रहा है, जब दुनिया भर में जलवायु अनुकूल हरित विकास और जंगलों की महत्ता की चर्चा जोरों पर है। जलवायु परिवर्तन ने संतुलित और समग्र विकास को एक भीषण चुनौती बना दिया है। मानवीय गतिविधियां, पर्यावरणीय क्षति, बढ़ती गर्मी, तूफान, चक्रवात, जंगल की आग, भूस्खलन और बाढ़ जैसी आपदाएं जनजीवन, स्वास्थ्य, रोजगार और अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर रही हैं। इनके चलते जलवायु परिवर्तन से होने वाली हानियों की भरपाई का दबाव देशों पर बढ़ रहा है, जिससे हरित विकास का लक्ष्य अधूरा रह जाता है।
पेड़ों की तादाद तेजी से कम होने से पर्यावरण, पारिस्थितिकी, जैव विविधता, कृषि और मानव जीवन ही नहीं, बल्कि भूमि की दीर्घकालिक स्थिरता पर भी खतरा मंडरा रहा है। संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी है कि हर साल एक करोड़ हेक्टेयर जंगल लुप्त हो रहे हैं। भारत में बीते पांच-छह सालों में नीम, जामुन, शीशम, महुआ, पीपल, बरगद और पाकर जैसे करीब पांच लाख से ज्यादा छायादार पेड़ों का अस्तित्व मिट गया, जैसा कि कोपेनहेगन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने उजागर किया। इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट के मुताबिक, पिछले वर्ष की तुलना में वन कटाई में 66 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।
न केवल इंसान, बल्कि कीड़े-मकोड़े भी हर साल 3.5 करोड़ हेक्टेयर जंगल बर्बाद कर रहे हैं, मानो प्रकृति के ये छोटे जीव भी हरियाली के खिलाफ खड़े हो गए हों। वैज्ञानिक बार-बार चेता रहे हैं कि इंसान जैव विविधता के खात्मे पर आमादा है, जबकि इसका संरक्षण हमें बीमारियों से बचाने में अहम भूमिका निभाता है। यदि वनों की कटाई पर अंकुश नहीं लगा, तो प्रकृति की लय बिगड़ जाएगी और वैश्विक तापमान में दो डिग्री की बढ़ोतरी रोकना मुश्किल हो जाएगा। ऐसी स्थिति में सूखा, स्वास्थ्य जोखिम और आर्थिक हालात और प्रभावित होंगे, जिसकी भरपाई आसान नहीं होगी।
पेड़ न केवल गर्मी से राहत देते हैं, बल्कि जैव विविधता को बनाए रखने, कृषि की स्थिरता सुदृढ़ करने, सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा करने और जलवायु को स्थिरता प्रदान करने में भी योगदान देते हैं। फिर भी, मानव का लोभ प्रकृति को रौंद रहा है। इसके दुष्परिणाम मौसम में आए भीषण बदलाव के रूप में सामने आए हैं, जिसने पारिस्थितिकी तंत्र और आर्थिक-सामाजिक ढांचे को चरमरा दिया है। वैज्ञानिक, पर्यावरणविद और वनस्पति व जीव विज्ञानी वर्षों से चेता रहे हैं कि पुरानी स्थिति लौटाने का समय बहुत कम बचा है, और यह टेढ़ा काम है, क्योंकि वापसी की उम्मीद केवल पांच फीसदी से भी कम है।
उत्तराखंड में बीते 8-9 सालों में ढाई लाख से ज्यादा पेड़ काटे गए। इनमें एक लाख से ज्यादा पेड़ ऑल वेदर रोड के नाम पर और शेष पर्यटन, देहरादून से दिल्ली तक सड़क चौड़ीकरण, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना और सुरंग आधारित परियोजनाओं के लिए काटे गए। देवदार, बांज, राई, कैल जैसी दुर्लभ प्रजातियों का अस्तित्व मिट गया। बीते बीस सालों में 40,000 हेक्टेयर जंगल आग की समिधा बन गए, जिसमें लाखों पेड़ जलकर राख हो गए। यह सिलसिला पूरे देश में जारी है।
सरकारी दावों की हक़ीक़त का पता इससे लगता है कि दस फीसदी पौधरोपण की बात कही जाती है, लेकिन दस हजार पेड़ कटने के बाद एक भी नया पौधा नहीं लगता। वन महोत्सव में करोड़ों पौधे लगाने का दावा कागजों तक सिमट जाता है। अधिकारियों, कर्मचारियों, पंचायत सचिवों, ग्राम विकास अधिकारियों और शिक्षकों को पौधरोपण का कोटा थमा दिया जाता है, लेकिन पौधों की संख्या और गुणवत्ता में कटौती आम है। पौधे लगाने के लिए राशि दी जाती है, लेकिन जमीन आवंटन का मामला केंद्र और राज्य में उलझा रहता है। नतीजा, जहां पेड़ कटे, वहां नई हरियाली का इंतजार बेकार जाता है।
यह विडंबना हमारी लापरवाही का आलम है। हम उस धरती को रेगिस्तान की ओर धकेल रहे हैं, जो हमें जीवन देती है। हरित विकास का सपना तब तक अधूरा रहेगा, जब तक हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ बंद नहीं करते और पेड़ों को बचाने के लिए ठोस कदम नहीं उठाते।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।

