
कांचा गचीगोवली के जंगल की कटाई पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाई है।
पर्यावरणीय चिंतन
कोटा: तेलंगाना के कांचा गचीबोवली के जंगल को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को पहल करनी पड़ी जो प्रशंसनीय है। हाल ही में दिल्ली में भी अदालत के हस्तक्षेप से पेड़ काटना बंद हुआ। इससे लगता है कि हमारी न्याय व्यवस्था में लाख कमियां हैं परंतु कहीं ना कहीं आशा की किरण नजर आ जाती है। यहां प्रश्न उठता है कि क्या हर कार्य में न्यायालय का हस्तक्षेप करना उचित है? क्या हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर आधारित कार्यपालिका पर्यावरण संरक्षण की नीतियों का पालन नहीं करवा सकती? क्या विकास की हवस इतनी ज्यादा हो गई है कि हम विनाश को नहीं पहचान पा रहे? क्या यह उस राजनीतिक दल का दायित्व नहीं बनता कि अपनी पार्टी की सरकार को सही रास्ते पर चलने पर बाध्य करें? जबकि कांग्रेस पार्टी का गुजरात में इस समय अधिवेशन हो रहा है क्या वहां से कोई दिशा निर्देश अपनी सरकार के लिए जारी नहीं हो सकते?
राजस्थान में जब बारां जिले के शाहाबाद में निजी हाइड्रो पावर प्लांट के लिए 400 एकड़ से अधिक जंगल काटने का फरमान जारी हुआ यहां भी जन आंदोलन खड़ा हो गया और राजस्थान हाई कोर्ट में स्वप्रसंज्ञान लेकर इस अनैतिक कार्य को रुकवाया। क्या वन विभाग का दायित्व नहीं बनता कि वनों को बचाने की पहल करें?
हालांकि राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार होते हुए भी भाजपा के लोग दबी जबान से ही सही जंगल काटने पर विरोध दर्ज कर चुके हैं। हाल ही में भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष वसुंधरा राजे, जो यहां से पांच बार सांसद रही हैं, अब उनके पुत्र दुष्यंत सिंह यहां से सांसद हैं, उन्होंने भी जंगल काटने की योजना पर आपत्ति दर्ज कराई है और बारां से भाजपा के अन्य विधायकों ने भी देरी से सही, लेकिन आपत्ति दर्ज करवा दी है।
लगता है कि शाहाबाद में भाजपा फंस गई है क्योंकि इस योजना को लाने वाले तत्कालीन कांग्रेस सरकार में यहां के एक पूर्व मंत्री की अहम भूमिका रही है। पर्यावरणविदों के द्वारा चलाए जा रहे जन आंदोलन को कांग्रेस प्रमुख विपक्षी दल होते हुए भी समर्थन देने में झिझकती रही और आज तक किसी कांग्रेस के नेता का बयान जंगल काटने के खिलाफ नहीं आया।
यहां यह भी सवाल उठता है कि क्या राजनीतिक दलों की भूमिका सिर्फ एनकेन प्रकारेण सत्ता प्राप्ति तक ही केंद्रित होकर रह गई? पर्यावरण के व्यापक हित एवं जनसरोकार से कोई लेना-देना नहीं है ? तेलंगाना के मामले पर केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव को संसद में बयान देना पड़ा की जंगल नहीं कटने चाहिए। तो फिर आमजन मंत्री महोदय से सवाल करना चाहता है कि शाहाबाद के जंगलों को बचाने के लिए अभी तक सरकारी स्तर पर पहल क्यों नहीं हो रही?
उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में भी इसी प्रकार सरकारों का रवैया पर्यावरण के खिलाफ रहा है। पर्यावरण चिंतकों की पीड़ा है । हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने इस अत्याचार पर रोक लगा दी है लेकिन सवाल ये है कि तेलंगाना सरकार ने जितने पेड़ कटवा दिए हैं, जितने जीवों को मौत और तकलीफ़ से गुजरना पड़ा है, उसकी भरपाई कैसे होगी?
आज तेलंगाना है कल कोई और होगा, आख़िर इसका समाधान क्या हो?
हम भी तो यहाँ राजस्थान के रेगिस्तान में पिछले कुछ सालों में लाखों खेजड़ी के पेड़ कटते देख चुके हैं। पश्चिम केंद्रित विकास का यह मॉडल दर असल विनाश का मॉडल है जिसमें ना ठहराव है ना संतोष है। बस केवल भूख है, और हर हाल में इस भूख को मिटाने की अंधी दौड़ है।
हम चाहे कितने भी पेड़ लगा लें, प्रकृति ने जो जंगल उगाए हैं उनका विकल्प हम कभी खड़ा नहीं कर सकते। इसीलिए जरूरी है कि सबसे पहले लगे हुए जंगलों को बचाएँ । विकास बनाम पर्यावरण की इस चुनौती का समावेशी समाधान ही असली विकास है, और नीति निर्माण का केंद्रीय बिंदु यह दर्शन होना चाहिए तभी जंगल सुरक्षित रहेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कूनो में चीता परियोजना को शुरू कर चुके हैं। शाहाबाद का जंगल कटा तो चीता परियोजना भी ठहर जाएगी।
पर्यावरणविदों और अदालतों की चेतावनी को नजर अंदाज करना संपूर्ण प्राणी जगत के लिए संकट को न्योता देना है। सरकारों को चाहिए कि राजनीति के लाभ हानि को एक तरफ रखकर व्यापक हित में विकास के पश्चिमी मॉडल को निरस्त कर सतत विकास के मॉडल को अपनाया जाए । यदि ऐसा करते हैं तो जलवायु परिवर्तन, बाढ़ सूखाड, ग्लोबल वार्मिग महामारियों के खतरों का समाधान कर सकते हैं।
* स्वतंत्र पत्रकार