
सैरनी का सूरज- 3: डर के साये से संस्कृति की छाँव तक
करौली: सैरनी नदी के तट पर, जहाँ कभी डर का साया इतना गहरा था कि बाहरी लोग कदम रखने से कतराते थे, आज विदेशी मेहमानों की हँसी और स्थानीय बच्चों की किताबों की सरसराहट गूंजती है। यहाँ की हवाएँ, जो कभी खनन के धूल भरे तूफानों को ढोती थीं, अब शैवाल और पटेरा से भरे तालाबों की ताजगी लाती हैं। सैरनी का 841 वर्ग किलोमीटर का जलागम क्षेत्र, जो कभी बेरोजगारी, पलायन, और हिंसा का शिकार था, आज शिक्षा, स्वास्थ्य, और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का गवाह बन रहा है। यह कहानी है उन महिलाओं की, जो पानी ढोने के कष्ट से मुक्त होकर गाँव की सभाओं में आवाज उठा रही हैं; उन बच्चों की, जो रतौंधी की बीमारी से जूझने के बजाय स्कूल की बेंचों पर भविष्य गढ़ रहे हैं; और उस धराड़ी परंपरा की, जो पेड़ों और जीवों को पूजकर सैरनी को जीवन दे रही है।
सैरनी की यह गाथा केवल नदी के पुनर्जनन की नहीं, बल्कि एक समाज के पुनर्जन्म की है। तरुण भारत संघ की अगुवाई में शुरू हुआ जल संरक्षण का यह सफर 1992 में एक छोटे तालाब से शुरू हुआ, लेकिन इसने गाँवों की सामाजिक और सांस्कृतिक तस्वीर बदल दी। खनन ने इस क्षेत्र को लाचार और बेकार बनाया था। सिलिका सैंड और चाइना क्ले के लिए खोदी गई जमीन ने मलबे के पहाड़ खड़े किए, और कुएँ सूख गए। बेरोजगारी ने लोगों को पलायन के लिए मजबूर किया, और गाँव खाली होने लगे। लेकिन 160 जल संरचनाओं—ताल, पाल, झाल, और चेकडैम—ने 48% वर्षा जल (201.6 मिलियन लीटर) को संरक्षित किया। इस पानी ने न केवल खेतों को सींचा, बल्कि गाँवों को फिर से आबाद किया।
सैरनी की जलवायु इस बदलाव की सहयोगी रही। यहाँ का तापमान 0 डिग्री सेल्सियस से लेकर 46 डिग्री तक जाता है। दक्षिण-पश्चिम मानसून में 60% आर्द्रता और गर्मियों में 10-15% आर्द्रता पानी के संरक्षण को चुनौती देती है। दक्षिण-पश्चिम से चलने वाली हवाएँ वर्षा जल को जंगलों और खेतों तक ले जाती हैं। इन प्राकृतिक तत्वों को समझकर तरुण भारत संघ ने चेकडैम और तालाब बनाए, जो वर्षा जल को रोककर धीरे-धीरे बहने देते हैं। नतीजा यह हुआ कि 1990 में 64% सूखा और 2% बाढ़ प्रभावित क्षेत्र आज क्रमशः 22.6% और नगण्य रह गया।
इस पर्यावरणीय सुधार ने जलीय जीवों और वनस्पतियों को नया जीवन दिया। सैरनी के तालाबों में अब शैवाल, पटेरा, और सिंघाड़े की फसलें लहलहा रही हैं। जंगली जीव, जो खनन के शोर में गायब हो गए थे, गुबरेंडा और बाँसवारी के जंगलों में लौट रहे हैं। यह जैव-विविधता सैरनी की धरती को फिर से हरा-भरा बना रही है। लेकिन इस बदलाव का असली रंग सामाजिक और सांस्कृतिक बदलावों में दिखता है।
सैरनी क्षेत्र की महिलाएँ इस क्रांति की धुरी हैं। पहले उन्हें मीलों दूर से पानी ढोना पड़ता था, जिससे रतौंधी और कुपोषण जैसी बीमारियाँ आम थीं। जल संरक्षण ने यह कष्ट खत्म किया। तालाबों और कुओं में पानी की उपलब्धता ने उनका समय और श्रम बचाया। आज वे न केवल अपने परिवारों की देखभाल कर रही हैं, बल्कि ग्राम सभाओं में हिस्सा ले रही हैं। उनकी आवाज़ अब गाँव के फैसलों में गूंजती है। एक महिला ने गर्व से कहा, “पहले हम पानी के लिए तरसते थे। अब हमारी बेटियाँ स्कूल जाती हैं, और हम गाँव की बात में हिस्सा लेते हैं।”
बच्चों की जिंदगी भी बदली। पहले कुपोषण और बीमारियाँ उनकी पढ़ाई में बाधा थीं। अब बेहतर पोषण और स्वास्थ्य ने उन्हें स्कूल की राह दिखाई। लड़कियाँ खास तौर पर पढ़ाई में रुचि ले रही हैं। गाँवों में जल, जंगल, और जमीन साक्षरता फैल रही है। कुछ युवा उच्च शिक्षा के लिए शहर जा रहे हैं, लेकिन वे अपने गाँव लौटकर काम करना चाहते हैं। एक युवा ने कहा, “पहले यहाँ कोई पढ़ा-लिखा नहीं था। अब हम पढ़ते हैं, और अपने गाँव को बेहतर बनाना चाहते हैं।”
सैरनी की सांस्कृतिक धरोहर इस बदलाव की आत्मा है। यहाँ की धराड़ी परंपरा, जिसमें पेड़, जीव, और नदियाँ पूजनीय हैं, जल संरक्षण की प्रेरणा बनी। लोग चींटी-चराई से लेकर गाय-जंगल की रक्षा करते हैं। कुछ मछली को, कुछ पेड़ों को, तो कुछ जीवों को भगवान मानते हैं। यह आस्था उन्हें जंगल काटने से रोकती है। एक बुजुर्ग ने कहा, “हमारी धरोहर हमारी नदी और जंगल हैं। इन्हें बचाना हमारा धर्म है।” यह सांस्कृतिक जड़ें सैरनी को न केवल एक नदी, बल्कि एक धार्मिक और सामाजिक प्रतीक बनाती हैं।
बाहरी पर्यटकों का आना इस क्षेत्र की नई पहचान है। पहले डकैतों का डर इतना था कि कोई बाहरी व्यक्ति यहाँ नहीं आता था। लेकिन अब लंदन की लूसी जैसे पर्यटक गाँवों में बिना डर के घूमते हैं। वे स्थानीय लोगों के साथ खाना खाते हैं, उनकी कहानियाँ सुनते हैं, और जल संरक्षण के काम को देखते हैं। एक पर्यटक ने कहा, “यहाँ के लोग इतने भावनाशील हैं। उनकी मेहनत और सादगी ने मुझे प्रभावित किया।” यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान सैरनी को वैश्विक मंच पर ले जा रहा है।
प्रशासन और पुलिस का सहयोग इस बदलाव का एक अनदेखा पहलू है। डी.जी.पी. शांतनु कुमार और पुलिस अधीक्षक मित्तल ने तरुण भारत संघ को हर कदम पर साथ दिया। जब कार्यकर्ताओं को डकैतों ने पकड़ा या अपहरण किया, तब पुलिस ने त्वरित कार्रवाई की। लेकिन जलपुरुष राजेंद्र सिंह ने कभी जल्दबाजी नहीं की। उन्होंने धैर्य रखा, और समाधान गाँवों में ही ढूँढ लिया। एक बार चमन सिंह को अपहरण के बाद छोड़ा गया, तो पुलिस ने उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की। यह सहयोग सैरनी को अपराध-मुक्त बनाने में अहम रहा।
तरुण भारत संघ के अन्य कार्यकर्ताओं ने भी इस क्रांति में योगदान दिया। इंदिरा खुराना ने सैरनी के बदलाव को दस्तावेजीकृत किया, जिससे दुनिया को इसकी कहानी पता चली। मौलिक सिसोदिया ने गाँवों में अवसर जुटाए, और लोगों को जल संरक्षण के लिए प्रेरित किया। इन कार्यकर्ताओं की मेहनत ने सैरनी को एक मॉडल बनाया, जो सामुदायिक जल प्रबंधन की ताकत दिखाता है।
खनन के सामाजिक-आर्थिक परिणाम सैरनी की सबसे बड़ी चुनौती थे। इसने बेरोजगारी और पलायन को जन्म दिया। लोग अपने गाँव छोड़कर शहरों में मजदूरी करने लगे। खेती, जो भारतीय संस्कृति का आधार थी, खत्म हो गई। लेकिन जल संरक्षण ने इस तस्वीर को पलट दिया। खेती की जमीन दोगुनी हो गई। अब गाँवों में घी, दूध, और सब्जियाँ उपलब्ध हैं। लोग बाहरी लोगों को रोजगार दे रहे हैं। यह आर्थिक आत्मनिर्भरता सैरनी की नई ताकत है।
सैरनी का यह बदलाव केवल पर्यावरणीय या आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति है। यहाँ के लोग, जो कभी डर और लाचारी में जीते थे, आज सम्मान और शांति के साथ जी रहे हैं। उनकी धराड़ी परंपरा, उनकी शिक्षा, और उनकी मेहनत सैरनी को एक प्रेरणा बनाती है। यह क्षेत्र अब न केवल अपने लिए, बल्कि पूरे भारत के लिए एक मिसाल है। सैरनी का संनाद आज यह गूँज रहा है—पानी, संस्कृति, और शांति एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं।
*लेखिका जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ से एनवायर्नमेंटल साइंस में डॉक्टरेट कर रही हैं और सैरनी नदी में जल संरक्षण से जैवविविधता संवर्द्धन उनके शोध का विषय है।