कोटा: “नीम गया अवसाद में, पिटी पीपली छांव। कुण्ड, कुएं, सर, बावड़ी ताल, तलैया झील, किन चिड़ियों के नाम, पूछे नन्हा नीर….”
हरे-भरे जंगल, चहकते पंछी, और बहती नदियों की मधुर धुन—हमारी धरती की यह अनमोल धरोहर आज खतरे में है। हाडोती के शाहबाद में विकास के नाम पर जंगलों की कटाई ने साहित्यकारों और कवियों के दिलों में एक तूफान सा उठा दिया है। विज्ञान नगर में चंद्र वीणा साहित्य कुंज और अखिल भारतीय साहित्य परिषद की एक काव्य गोष्ठी में कवियों ने अपनी रचनाओं के जरिए प्रकृति के इस दर्द को शब्दों में पिरोया और समाज को झकझोरने की कोशिश की।

जितेंद्र शर्मा निर्मोही की अगुवाई में आयोजित इस गोष्ठी में हर कविता एक चीख थी, जो जंगलों को बचाने की गुहार लगाती थी। राष्ट्रीय कवि डॉ. वीणा अग्रवाल ने दिल को छू लेने वाले अंदाज में कहा, “पंचमहाभूत—जल, जमीन, आग, हवा और आकाश—ये अगर मिट गए, तो हमारी प्रकृति का क्या होगा? हमारी धरती की आत्मा को बचाना अब हमारा फर्ज है!” उनकी बातें सुनकर हर कोई सोच में डूब गया।
विशिष्ट अतिथि डॉ. भगवती प्रसाद गौतम ने अपनी कविता से सबके रोंगटे खड़े कर दिए। “हम भी तो प्रकृति का हिस्सा हैं, मगर इंसान ने विनाश की कला सीख ली है। नीम उदास खड़ा है, पीपल की छाँव गायब हो रही है। जिंदगी का रंग अब मटमैला क्यों हो गया?” उनकी कविता में दर्द के साथ-साथ एक गहरी चेतावनी थी। कवि रामेश्वर शर्मा ‘रामू भैया’ ने अपनी रचना में निर्झरों की सिसकियों को बयां किया: “पानी सूख गया, मनचले दुखी हैं। हरे जंगल अब रेगिस्तान बन रहे हैं, और हम अपनी संस्कृति से कटते जा रहे हैं।”
डॉ. गौतम ने तीखा सवाल उठाया, “क्या हर गलत काम को रोकने के लिए सिर्फ अदालत ही आगे आएगी? सरकार और हमारी जिम्मेदारी क्या है?” उनकी बात ने सभी को आत्ममंथन के लिए मजबूर कर दिया। वहीं, डॉ. वीणा अग्रवाल ने साहित्य की ताकत पर जोर देते हुए कहा, “कवि और साहित्यकार समाज के लिए मशाल हैं। हमें अपनी कलम से जंगलों की पुकार को दुनिया तक पहुंचाना होगा।”
गोष्ठी की संचालक डॉ. अपर्णा पांडेय ने अपनी कविता से माहौल को और जीवंत कर दिया: “झरना बहता रहा, जलधार बनी रही, धरती भले कपटी हो, उसे बादल का प्यार मिला।” उनकी कविता ने प्रकृति के प्रेम और संतुलन की खूबसूरती को उजागर किया। साहित्यकार रामनारायण हलधर ने शाहबाद के किले की सुंदरता और जंगलों की महिमा का बखान करते हुए कहा, “जंगल काटकर बिजली परियोजनाएँ बनाना प्रकृति के साथ धोखा है। यह हमारी धरोहर का अपमान है।”
युवा कवि गोकुल प्रजापति ने जोश के साथ कहा, “शब्द तलवार से ज्यादा तेज होते हैं। हमारी कलम इस जंग को जीत सकती है!” श्यामा शर्मा ने बच्चों के लिए अपनी कविता ‘वन्यजीव सप्ताह बहुत सुहाना’ सुनाई, जिसने सभी के चेहरों पर मुस्कान बिखेर दी। पर्यावरणविद् बृजेश विजयवर्गीय ने साहित्यकारों की इस मुहिम की तारीफ की और कहा, “लालच भरे विकास ने सिर्फ जंगल ही नहीं, पूरी सभ्यताओं को तबाह किया है। तेलंगाना में जागरूक लोगों ने जंगल बचा लिए, और शाहबाद में भी अदालत ने जंगल कटने से रोक रखा है। आपकी आवाज इस लड़ाई को और मजबूत कर रही है।”
वरिष्ठ अधिवक्ता लीला धर अग्रवाल ने जोड़ा, “इंसान का लालच प्रकृति को निगल रहा है। शुक्र है कि न्यायपालिका ने शाहबाद के जंगलों और नदियों में अवैध खनन को रोकने में अपनी ताकत दिखाई।” उनकी बातों ने इस बात को और पुख्ता किया कि पर्यावरण की रक्षा के लिए हर स्तर पर जागरूकता जरूरी है।
यह काव्य गोष्ठी सिर्फ शब्दों का मेला नहीं थी, बल्कि एक ऐसी चिंगारी थी, जो शाहबाद के जंगलों को बचाने की जंग में नया जोश भर रही है। कवियों की ये पुकार अब हर उस दिल तक पहुंच रही है, जो प्रकृति से प्यार करता है। क्या हम सब मिलकर इस धरोहर को बचा पाएंगे? यह सवाल अब हम सबके सामने है।
*वरिष्ठ पत्रकार

