भारत की नदियां आज संकट के भंवर में फंसी हैं। “नीर के नाम पर खीर पकाई जा रही है,” कुछ लोग तंज कसते हैं, मगर यह खीर सिर्फ़ चंद लालची लोगों के लिए है। नीर तो सबका है—गरीब, अमीर, संत, समाज, सबका। पर नदियों का दर्द समझने वाला कोई नहीं। कुछ लोग नदियों के नाम पर मुनाफ़ा बटोर रहे हैं, बिना किसी रुकावट के स्वादिष्ट खीर खा रहे हैं। नतीजा क्या? जल प्रदूषित हो रहा है, कहीं सूखा तांडव मचा रहा है, तो कहीं बाढ़ का कहर बरस रहा है। लोग अपनी जड़ों से उखड़ रहे हैं, अपनी जमीन-जायदाद छोड़कर विस्थापित हो रहे हैं। विकास का लालच उन्हें चमकदार सपनों में उलझा देता है, पर बाढ़ और सूखे से जूझते लोगों को अब समझ नहीं आता कि पानी का क्या करें, कैसे जिएं।
नदियां, जो जीवन की धारा हैं, अब बीमार हैं। कुछ तो मृत्यु के मुहाने पर खड़ी हैं, कुछ आईसीयू में सांस लेने को तरस रही हैं। कुछ नदियों पर डीसिल्टिंग के नाम पर इलाज का ढोंग रचा जा रहा है, जो उनकी सांस को और घोंट रहा है। नदी की असली चिकित्सा तो गंदगी को हटाकर, उसकी धारा को आज़ाद करना है—इसे ड्रेजिंग कहते हैं। सिल्ट नदी के फेफड़े हैं, जो पानी को शुद्ध करती है, सूरज की तपन से बचाती है। इस सिल्ट में नदी की जैव-विविधता बसी है, जो उसका चरित्र गढ़ती है। जल सिर्फ़ एच2ओ नहीं, उसमें जीव-जगत की आत्मा बसती है। इस आत्मा का सम्मान किए बिना नदी को नहीं बचाया जा सकता। मगर आज इस सवाल पर कोई ध्यान नहीं दे रहा।
लाखों-करोड़ों रुपये नदियों के सौंदर्यीकरण के नाम पर खर्च हो रहे हैं। पूरे भारत में यही तमाशा चल रहा है। हाल ही में जौनपुर गया था, जहां गोमती नदी के बीचों-बीच दो घाट बना दिए गए। सरकार अब नदी की जमीन बेचकर खर्च से ज्यादा कमाने की फिराक में है। नतीजा? नदी का दम घुट गया, उसका क्षेत्र सिकुड़ गया। बारिश आएगी, तो यही नदी शहर को डुबो देगी। नदियों की अविरलता के नाम पर जो हो रहा है, वह खतरनाक है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे पुणे में ट्रैफिक नियंत्रण के लिए बायपास बनाए गए, जो कोलंबिया से नकल किए गए थे। वहां सफल हुए, यहां फेल। नदियों के साथ भी यही हो रहा है। जब कोई समझदार सरकार आएगी, जिसके नेता की आंखों में नदियों का दर्द बहेगा, उसे ये सारी संरचनाएं तोड़नी पड़ेंगी। अभी बनवाने में खर्च, फिर तोड़ने में खर्च।
मैं पूरे भारत में लोगों को समझाने की कोशिश कर रहा हूं कि नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह में इस तरह का हस्तक्षेप गलत है। थोड़ा-बहुत व्यवधान जरूरी हो सकता है, लेकिन आज जो हो रहा है, वह नदियों के साथ सरासर अपराध है। कहीं नदी किनारे को रोक दिया जाता है, कहीं धारा को मोड़ दिया जाता है। यह सब गलत है। तरुण भारत संघ ने नदी पुनर्जनन का रास्ता दिखाया है। हमने व्यवधान ऐसे डाले कि बारिश का पानी धरती के पेट में जाए, सूरज उसे चुरा न सके। यह पानी भूजल भंडार को भरता है। इस तरह हमने 23 नदियों को पुनर्जनन दिया।
आज भी नारा वही है—नदी पुनर्जनन। मगर आजकल नदियों के नाम पर सिर्फ़ तीन काम हो रहे हैं: डीसिल्टिंग का ढोंग, बड़े घाट बनाना, और शहरों में नदियों को सौंदर्यीकरण के नाम पर नहर में बदलना। यह देखकर चिंता गहराती है। सरकार का इरादा अच्छा हो सकता है, मगर नतीजा अच्छा नहीं है। कोई इस सच को बोलना नहीं चाहता, और सरकार भी सुनना नहीं चाहती। सरकार को स्वतंत्र अध्ययन कराना चाहिए, उन लोगों से जो नदियों को सिर्फ़ पानी की नाप-तौल नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक, और आर्थिक धरोहर मानते हैं। आजकल अध्ययन सिर्फ़ उन इंजीनियरों से कराए जाते हैं, जो पानी की मात्रा नापते हैं, मगर नदियों की आत्मा को नहीं समझते। ऐसे अध्ययनों से गलत नीतियां बनती हैं, और नदियों का नुकसान होता है। प्रोफेसर जीडी अग्रवाल जैसे लोग, जिनमें न लालच था, न डर, वे सच बोलते थे। ऐसे लोग आज भी हैं, मगर सरकार उन्हें मौका नहीं देती, क्योंकि उनसे डरती है। यह भय का माहौल नदियों की आवाज़ को दबा रहा है, उन लोगों को किनारे कर रहा है जो नदियों के लिए सच्ची आवाज़ उठाना चाहते हैं।
हमारी सरकार अच्छी हो सकती है, मगर अगर वह अपने लोगों की सच्चाई नहीं सुनेगी, अगर वह सच बोलने वालों से डरेगी, तो देश और नदियों का भारी नुकसान होगा। अब समय है कि बिना लालच के नदियों को समझने वाले लोग पर्यावरणीय अध्ययन करें। नदियों पर हो रहा लालची खर्च पर्यावरण को तबाह करेगा। स्वतंत्र अध्ययन और खुले संवाद से ही नदी पुनर्जनन संभव है।
काका कालेलकर ने नदियों के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व को खूबसूरती से लिखा था। महात्मा गांधी ने 20 दिसंबर 1932 को नेहरू को आनंद भवन में समझाया था कि गंगा-यमुना किसी एक की नहीं, बल्कि समाज, संत, और महाजन सबकी साझी हैं। गांधी ने खुद को दोषी माना कि एक लोटा से ज्यादा पानी मुंह धोने में खर्च किया। आज कोई बाबू अपनी गलती मानने को तैयार नहीं। फिर कैसे बनेगा नीर, नारी, और नदी को नारायण? जो देश नदियों को नाले बनाता है, उसकी सभ्यता गिरती है। जो नालों को नदी बनाता है, वह संस्कृति को ऊंचाइयों पर ले जाता है, दुनिया को सिखाने लायक बनता है। अगर हम नदियों की चिंता नहीं करेंगे, तो हमारा जीवन, हमारी संस्कृति, और सभ्यता—सब संकट में पड़ जाएंगे। नदियों को नाला बनने से बचाएं, उन्हें सूखने और मरने से रोकें।
*लेखक जल पुरुष के नाम से विख्यात जल विशेषज्ञ हैं।

