– संजय राणा*
इंसान बनाम इंसानियत: नैतिक मूल्यों की खोती जद्दोजहद
शास्त्रों में मानव जीवन को श्रेष्ठ योनि बतलाया गया है। मगर आज के समय में ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य ने धन को जीवन का अंतिम लक्ष्य मान लिया है। आर्थिक सफलता के पीछे भागते-भागते वह अपने नैतिक और चारित्रिक दायित्वों को पीछे छोड़ चुका है। कभी जिस समाज में मानवीय संवेदनाएँ, रिश्तों की गरिमा और नैतिकता की मिसालें दी जाती थीं, आज वही समाज चरित्रहीनता, स्वार्थ और लालच के संकट से जूझ रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि मौजूदा दौर में इंसान ने चारित्रिक पतन की ऐसी हदें पार कर दी हैं, जो पहले कभी देखने को नहीं मिलीं। इसी नैतिक गिरावट का सबसे भयावह रूप आज हमारे रोजमर्रा के जीवन में दिखाई देता है।
मिलावटखोरी: मानव जीवन पर सीधा प्रहार
सबसे अधिक चिंता का विषय है—खाद्य पदार्थों में बढ़ती मिलावट। दूध हो, मसाले हों, मिठाई हो या खाने का तेल—हर जगह मिलावट का जाल फैला हुआ है। पैसे कमाने की यह होड़ इतनी खतरनाक हो चुकी है कि लोग यह भी नहीं सोचते कि उनके द्वारा बेची गई मिलावटी चीजें किसी बच्चे की सेहत बिगाड़ सकती हैं, किसी बुज़ुर्ग के जीवन के लिए खतरा बन सकती है। एफ एस एस ए आई की विभिन्न रिपोर्टें बताती हैं कि जांच किए गए नमूनों में लगभग एक तिहाई किसी न किसी रूप में मिलावटी या असुरक्षित पाए जाते हैं। यह आँकड़ा केवल संख्या नहीं बल्कि समाज की गिरती नैतिकता का आईना है। भोजन—जो जीवन का आधार है, वही यदि संदेह के घेरे में हो जाए तो सोचिए समाज की बाकी नैतिकताओं का क्या हाल होगा।
इसी कड़ी में अगला भयावह उदाहरण हमें चिकित्सा क्षेत्र से मिलता है, जहाँ अनैतिकता सीधे जीवन और मृत्यु से जुड़ जाती है।
नकली जीवनरक्षक दवाओं की शर्मनाक हकीकत
इससे भी अधिक दर्दनाक स्थिति तब सामने आती है जब नकली जीवनरक्षक दवाओं के पकड़े जाने की खबरें आती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, विकासशील देशों में लगभग 10 प्रतिशत दवाएँ निम्न गुणवत्ता या नकली होती हैं। यह सिर्फ अपराध नहीं—मानवता के खिलाफ घोर पाप है। क्या केवल कुछ लाख या करोड़ रुपये कमाने के लिए ऐसे लोग किसी मरीज की जान को जोखिम में डालते रहेंगे? दवाओं पर भरोसा टूटने लगे तो आम आदमी किस पर विश्वास करेगा ? यह स्थिति बताती है कि हमारी सामाजिक संरचना के भीतर स्वार्थ किस हद तक घर कर चुका है।
नैतिक पतन की यह प्रवृत्ति केवल बाजार या व्यापार तक सीमित नहीं, बल्कि उसने इंसानी रिश्तों को भी गहराई से प्रभावित किया है।
रिश्तों की टूटन: समाज का अदृश्य संकट
धन के पीछे भागने की यह मानसिकता केवल बाजार तक सीमित नहीं रही, बल्कि उसने हमारे पारिवारिक रिश्तों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। आज परिवारों में संपत्ति को लेकर विवाद, भाईयों के बीच मुकदमेबाजी, माता–पिता के प्रति उपेक्षा और वैवाहिक टूटन के बढ़ते मामले बताते हैं कि आर्थिक स्वार्थ ने भावनात्मक मूल्यों को पीछे धकेल दिया है। जहाँ कभी परिवार भावनाओं, त्याग और साथ का प्रतीक था, वहीं वह आज कई बार अर्थ—व्यवहार का केंद्र बनकर रह गया है। रिश्तों में घटती सहजता और बढ़ती औपचारिकता आधुनिक समाज की सबसे बड़ी त्रासदी है। यदि परिवार का ताना-बाना कमजोर पड़ने लगे तो समाज का ढाँचा भी अधिक दिनों तक मजबूत नहीं रह सकता।
यही पतन मनुष्य को अपनी ही प्रकृति से दूर ले जा रहा है, और यही वह बिंदु है जहाँ एक असहज तुलना सामने आती है।
क्या वास्तव में पशु हमसे बेहतर हैं ?
कई बार यह सोचकर आश्चर्य होता है कि क्या मनुष्य, जिसे प्रकृति ने बुद्धि, विवेक और संवेदना प्रदान की है, वही इन गुणों से वंचित होता जा रहा है? पशु आज भी अपनी प्रकृति पर कायम हैं—वे छल नहीं करते, लालच नहीं करते और न ही स्वार्थ के लिए दूसरों का नुकसान करते हैं। मनुष्य, जिसे सभ्यता का निर्माता कहा जाता है, वह आज ऐसे काम कर रहा है, जिनसे पशु भी श्रेष्ठ प्रतीत होते हैं। यह तुलना भले ही कठोर लगे, परंतु परिस्थितियाँ इसे सच साबित करती हैं।
इस नैतिक पतन के पीछे कारण भी स्पष्ट हैं और चिंताजनक रूप से समाज के भीतर गहराई तक मौजूद हैं।
नैतिक पतन के कारण: समस्या कहां गहराई में छिपी है?
- मूल्य आधारित शिक्षा का अभाव – आज की शिक्षा डिग्री देती है, रोजगार देती है, पर चरित्र निर्माण को नजरअंदाज कर देती है।
- भोक्ता संस्कृति का प्रभाव – समाज में सफलता को धन, गाड़ी, मकान, ब्रांडेड वस्तुओं से जोड़ा जाने लगा है। चरित्र, ईमानदारी और सेवा अब उपेक्षित मूल्य बन गए हैं।
- कानून का कमजोर डर – मिलावटखोरी, नकली दवाएं, आर्थिक अपराध—इन पर सख्त और त्वरित कार्रवाई का अभाव अनैतिक लोगों को प्रोत्साहित करता है।
- सामाजिक संवाद का टूटना – परिवारों में बातचीत कम, मोबाइल और सोशल मीडिया पर निर्भरता अधिक। जिससे भावनात्मक दूरी बढ़ती जा रही है।
- आदर्शों और प्रेरणाओं का अभाव – समाज में सकारात्मक रोल मॉडलों का अभाव होने से युवाओं के लिए नैतिक दिशाबोध कमजोर पड़ रहा है।
परिस्थिति गंभीर है, लेकिन अंधकार के बीच समाधान का मार्ग भी उतना ही स्पष्ट है—यदि समाज इसे अपनाने की इच्छाशक्ति दिखाए।
समाधान: क्या हो सकता है नई शुरुआत का आधार?
- शिक्षा व्यवस्था में सुधार – विद्यालयों और कॉलेजों में नैतिक शिक्षा, सामुदायिक सेवा और चरित्र निर्माण आधारित कार्यक्रमों को अनिवार्य करना होगा।
- कानून को कड़ा और तेज़ बनाना – खाद्य एवं औषधि संबंधी अपराधों को गंभीर श्रेणी में रखते हुए कठोर दंड और तेज़ कार्रवाई की जरूरत है।
- परिवार को फिर से संवाद का केंद्र बनाना – परिवारों में सप्ताह में कम से कम एक-दो दिन ‘नो मोबाइल डे’ या सामूहिक संवाद की परंपरा विकसित करनी चाहिए।
- समाज में सकारात्मक कहानियों को बढ़ावा – ईमानदारी, सेवा और नैतिक मूल्यों पर आधारित लोगों को समाज में सम्मान और पहचान मिलनी चाहिए।
- मीडिया और सामाजिक संस्थाओं की भूमिका – जागरूकता अभियान, नैतिक व्यवहार पर कार्यक्रम और जनसंदेश समाज को नई दिशा दे सकते हैं।
धन की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन उसे जीवन का लक्ष्य बनाना खतरनाक है। जब मनुष्य धन को चरित्र से ऊपर रखता है, तो समाज का पतन निश्चित हो जाता है। आज हमें आत्ममंथन की जरूरत है—क्या हम सिर्फ सफल बनना चाहते हैं या एक अच्छे, संवेदनशील और मूल्य आधारित इंसान भी बनना चाहते हैं? यदि समाज को सशक्त बनाना है तो धन की दौड़ से पहले नैतिकता की लौ को जलाना होगा। वरना वह दिन दूर नहीं जब हम सच में कह देंगे— “इस इंसान से तो जानवर ही बेहतर, जो अपनी प्रकृति और ईमानदारी पर आज भी कायम हैं।” आओ मानवता की ओर लौटें।
*लेखक पर्यावरण विषयक मामलों के जानकार व समाज विज्ञानी हैं।
