
सैरनी का सूरज-5: सैरनी ने रचा भविष्य का राग
करौली: सैरनी नदी के किनारे, जहाँ कभी खनन के मलबे ने गाँवों की साँसें घोंट दी थीं, आज सामुदायिक एकता की हवा नई उम्मीदें उड़ा रही है। यहाँ की मिट्टी, जो कभी डकैतों के डर और बंजर खेतों की लाचारी से दबी थी, अब बुजुर्गों की सलाह, महिलाओं की टोलियों, और युवाओं की आकांक्षाओं से गूँज रही है। सैरनी का 841 वर्ग किलोमीटर का जलागम क्षेत्र, जो खनन की मार और विस्थापन की त्रासदी से जूझता था, आज एक ऐसी मिसाल बन चुका है, जहाँ पारंपरिक ताल-पाल और नवीन चेकडैम मिलकर भविष्य की नींव रख रहे हैं। यह कहानी है उन अनौपचारिक सभाओं की, जहाँ डकैत और ग्रामीण एक-दूसरे को समझने लगे; उन युवाओं की, जो गाँव और शहर के बीच सेतु बनाना चाहते हैं; और उस सैरनी की, जिसकी कहानी अब किताबों से निकलकर दुनिया के सामने एक प्रेरणा बन रही है।
सैरनी की यह गाथा करौली-धौलपुर की रेतीली धरती और चंबल की सहायक नदियों—नहरों और तेवर—के बीच बसी है। यह क्षेत्र कभी अपनी सांस्कृतिक और भौगोलिक विशिष्टता के लिए जाना जाता था। लेकिन खनन ने इसकी हरियाली और पानी छीन लिया। सिलिका सैंड और चाइना क्ले के लिए खोदी गई जमीन ने मलबे के पहाड़ खड़े किए, जो आज भी पर्यावरण के लिए चुनौती बने हुए हैं। इन मलबों ने मिट्टी की उर्वरता को चोट पहुँचाई, और खेती को लगभग खत्म कर दिया। लेकिन सैरनी के लोग हार नहीं माने। तरुण भारत संघ के साथ मिलकर उन्होंने 160 जल संरचनाएँ बनाईं, जिन्होंने 48% वर्षा जल (201.6 मिलियन लीटर) को संरक्षित किया। इस पानी ने खेतों को सींचा, और गाँवों को नई साँस दी।
इस बदलाव की धुरी स्थानीय नेतृत्व था। ग्राम सभाओं के अलावा, गाँवों में अनौपचारिक समूह—बुजुर्गों की चौपालें और महिलाओं की टोलियाँ—ने जल संरक्षण को गति दी। एक बुजुर्ग ने बताया, “हम रात को पेड़ के नीचे बैठकर तालाब की योजना बनाते थे। डकैतों को भी बुलाते थे, ताकि वे समझें।” इन सभाओं में डकैतों और ग्रामीणों के बीच छोटी-छोटी मुलाकातें हुईं। एक बार एक डकैत ने गाँव की सभा में आकर कहा, “तुम पानी लाए, तो हम बंदूक क्यों रखें?” यह विश्वास की शुरुआत थी। ऐसी मुलाकातें सैरनी के गाँवों में एकता का आधार बनीं।
खनन के दीर्घकालिक प्रभाव आज भी सैरनी को चुनौती दे रहे हैं। मलबे के पहाड़ मिट्टी की संरचना को नुकसान पहुँचाते हैं, और बारिश में गाद बहकर तालाबों को भर देती है। खनन से प्रभावित परिवारों का पुनर्वास एक जटिल प्रक्रिया थी। कई परिवारों ने अपनी जमीन खो दी, और उन्हें नए गाँवों में बसना पड़ा। तरुण भारत संघ ने इन परिवारों को खेती और जल संरक्षण से जोड़ा, लेकिन कुछ अब भी पूरी तरह स्थापित नहीं हो पाए। एक ग्रामीण ने कहा, “खनन ने हमारी जमीन छीनी, लेकिन पानी ने हमें सम्मान दिया।” यह पुनर्वास सैरनी की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है।
जल संरक्षण में सैरनी की पारंपरिक तकनीकें और नवाचार एक अनोखा मिश्रण हैं। स्थानीय लोग ताल और पाल बनाने में माहिर थे। ये संरचनाएँ पीढ़ियों से चली आ रही थीं, और सैरनी की रेतीली मिट्टी के लिए उपयुक्त थीं। तरुण भारत संघ ने इन तकनीकों को आधुनिक चेकडैम और झाल के साथ जोड़ा। यह नवाचार कम लागत वाला था—3.20 रुपये प्रति किलोलीटर—और गाँवों को आत्मनिर्भर बनाता था। एक कारीगर ने बताया, “हमारी ताल-पाल पुरखों की देन हैं। इन्होंने हमें सिखाया कि मिट्टी और पानी को कैसे थामना है।” यह तकनीकी कौशल सैरनी की ताकत बना।
सैरनी के युवा इस बदलाव का भविष्य हैं। पहले गाँवों में पढ़ा-लिखा कोई नहीं था। लेकिन जल संरक्षण ने खेती और रोजगार को बढ़ाया, जिससे युवाओं को शिक्षा का मौका मिला। कई युवा अब शहरों में पढ़ाई कर रहे हैं, लेकिन वे अपने गाँव लौटना चाहते हैं। एक युवा ने कहा, “मैं इंजीनियर बनना चाहता हूँ, ताकि सैरनी के लिए और तालाब बनाऊँ।” ये युवा गाँव और शहर के बीच सेतु बन रहे हैं। वे नई तकनीकों और विचारों को गाँव लाना चाहते हैं, ताकि सैरनी का मॉडल और मजबूत हो।
सैरनी की कहानी का प्रचार और प्रलेखन इस बदलाव का एक अनदेखा पहलू है। तरुण भारत संघ ने ‘पानी पंचायत पुस्तक’ और चंबल की सहायक नदियों—सैरनी, नहरों, और तेवर—पर आधारित पुस्तकों का प्रकाशन किया। इन किताबों ने सैरनी की कहानी को दुनिया तक पहुँचाया। कार्यकर्ता इंदिरा खुराना और मौलिक सिसोदिया ने इस प्रलेखन में अहम भूमिका निभाई। उनकी मेहनत ने सैरनी को वैश्विक मंच पर एक प्रेरणा बनाया। एक कार्यकर्ता ने कहा, “हमारी कहानी अब किताबों में है। यह दुनिया को बताती है कि पानी सब कुछ बदल सकता है।”
सैरनी का भौगोलिक और सांस्कृतिक संदर्भ इसकी कहानी को और गहरा करता है। करौली-धौलपुर क्षेत्र चंबल नदी की सहायक नदियों का गढ़ है। सैरनी, नहरों, और तेवर एक-दूसरे से जुड़ी हैं, लेकिन सैरनी की कहानी सबसे अनोखी है। यहाँ की रेतीली मिट्टी और विंध्यान बलुआ पत्थर पानी को रोकने में चुनौती देते हैं, लेकिन स्थानीय लोगों ने इसे अपनी ताकत बनाया। उनकी सांस्कृतिक धरोहर—धराड़ी परंपरा—उन्हें जंगल और पानी की रक्षा के लिए प्रेरित करती है। यह संदर्भ सैरनी को केवल एक नदी नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक प्रतीक बनाता है।
सैरनी का भविष्य इसकी सबसे बड़ी संभावना है। जल संरक्षण और सामुदायिक प्रबंधन ने क्षेत्र को पर्यावरणीय स्थिरता की राह पर ला दिया है। गाँवों में पर्यटन बढ़ रहा है, और बाहरी लोग सैरनी के तालाब और खेत देखने आ रहे हैं। स्थानीय लोग इसे और बढ़ाना चाहते हैं, ताकि गाँवों को आर्थिक लाभ हो। इसके अलावा, वे मलबे के पहाड़ों को हटाने और जंगलों को और घना करने की योजना बना रहे हैं। एक ग्रामीण ने कहा, “हम चाहते हैं कि सैरनी की हरियाली और पानी पूरी दुनिया देखे।” यह भविष्य-उन्मुख दृष्टिकोण सैरनी को एक स्थायी मॉडल बनाता है।
सैरनी की साँस आज मलबे की मार से निकलकर उम्मीद की उड़ान ले रही है। यह उन बुजुर्गों, महिलाओं, और युवाओं की जीत है, जिन्होंने अपनी मिट्टी को थामा। यह उन ताल-पाल और चेकडैम की जीत है, जिन्होंने पानी को रोका। और यह उस कहानी की जीत है, जो किताबों से निकलकर दुनिया को प्रेरित कर रही है। सैरनी का यह सफर साबित करता है कि जब लोग अपनी धरती के लिए एकजुट होते हैं, तो वे न केवल पानी, बल्कि भविष्य भी बचा लेते हैं।
*लेखिका जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ से एनवायर्नमेंटल साइंस में डॉक्टरेट कर रही हैं और सैरनी नदी में जल संरक्षण से जैवविविधता संवर्द्धन उनके शोध का विषय है।