नदियों को जीवित इकाई का हक: भारत में पहल की जरूरत
भारत के लोग गंगा नदी को ‘माँ गंगा’ कहकर पुकारते हैं। यह केवल एक भावनात्मक संबोधन नहीं, बल्कि भारत की संस्कृति, आस्था और जीवन्तता का आधारभूत प्रतीक है। किंतु क्या भारत के निवासी आज गंगा को माँ सरीखा सम्मान व सेवा प्रदान कर रहे हैं? नहीं। उनके ही द्वारा किए प्रदूषण, खनन, अतिक्रमण और अवैध निर्माण ने गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों को गंभीर संकट में डाल दिया है। अतः क्या यह ज़रूरी नहीं है कि केवल भावनाओं से नहीं, बल्कि नदियों की जीवन्तता और मातृत्व को ठोस क़ानूनी आधार देकर अपनी नदियों और उनके जरिए उनके अस्तित्व की रक्षा हो?
इसके लिए पहले यह समझना ज़रूरी है कि किसी नदी को ‘एक जीवित इकाई’ कहने के क़ानूनी मायने क्या हैं? जब किसी नदी को एक जीवित इकाई का दर्जा दिया जाता है तो वह केवल ‘संपत्ति’ अथवा ‘प्राकृतिक संसाधन’ नहीं रहती, बल्कि उस नदी को एक व्यक्ति के रूप में क़ानूनी मान्यता प्राप्त हो जाती है। इस मान्यता के हासिल होते ही नदी शब्द की उत्पत्ति, परिभाषा तथा उस नदी विशेष के नाम, स्थान, मौलिक गुण व मूल स्वरूप के अनुसार नदी विशेष के प्राकृतिक कर्तव्य व अधिकार कानूनी तौर पर भी निर्धारित हो जाते हैं। यह दर्जा कुछ-कुछ उसी प्रकार का है जैसे कि किसी कंपनी, नगरपालिका, ट्रस्ट अथवा मंदिर की मूर्ति को कानून में व्यक्ति के रूप में प्राप्त होता है।
नदियों को कानूनी दर्जे का वैश्विक संदर्भ स्पष्ट रूप से दिखाता है कि यह विचार अब वैश्विक स्तर पर गति पकड़ रहा है। न्यूज़ीलैंड की वांगानुई नदी एक आदर्श उदाहरण है, जहां आदिवासी माओरी समाज के लिए यह नदी माँ के समान है। 170 वर्षों के लगातार संघर्ष के बाद, वर्ष 2017 में वहाँ की संसद ने इस नदी को कानूनी दर्जा प्रदान किया। दर्जे के अंतर्गत किए गए खास प्रावधानों में ते आवा तुपुआ एक्ट के तहत नदी को जीवित इकाई घोषित किया गया, ते पौ तुपुआ नामक निकाय बनाया गया जिसमें दो संरक्षक हैं—एक सरकारी और एक माओरी समुदाय का सदस्य। नदी की दीर्घकालिक सुरक्षा के लिए लगभग 80 मिलियन डॉलर का कोष स्थापित किया गया। किसी भी खनन, बांध निर्माण या टनल परियोजना से पहले नदी के अधिकारों का ध्यान रखना अनिवार्य है, और अदालतें अब नदी को नुकसान को जीवित इकाई का नुकसान मानती हैं। वांगानुई का यह मॉडल दिखाता है कि जब नदी को व्यक्ति का दर्जा दिया जाता है, तो समाज व सरकार दोनों उसके प्रति जवाबदेह बनते हैं।
सिर्फ वांगानुई नहीं, अब तक कई देशों ने अपनी नदियों और जलस्रोतों को जीवित इकाई का क़ानूनी दर्जा देने की जिम्मेदारी निभाई है। कोलंबिया की अत्रातो नदी को 2016 में कानूनी अधिकार मिले, जहां कोलंबिया की संवैधानिक अदालत ने 10 नवंबर 2016 को फैसला (टी -622/16) सुनाया, जिसमें अत्रातो नदी को एक जीवित इकाई के रूप में मान्यता दी गई और उसे संरक्षण, रखरखाव तथा बहाली के अधिकार प्रदान किए गए। हालांकि, इस फैसले की सार्वजनिक घोषणा और कार्यान्वयन मई 2017 में हुआ, जिसके कारण कुछ स्रोत इसे 2017 से जोड़ते हैं। अमेज़न पारिस्थितिकी तंत्र को 2018 में कानूनी अधिकार मिले। बांग्लादेश में 2019 में तुराग नदी और उसके साथ सभी नदियों को यह दर्जा दिया गया। कनाडा की मैग्पी नदी को 2021 में और अमेरिका की क्लैमथ नदी को स्थानीय आदिवासी कानून के तहत मान्यता मिली। हाल ही में इंग्लैंड में रिवर टेस्ट को 2025 में प्रदूषण से बचाने के लिए यह दर्जा दिया गया, जहां टेस्ट वैली बरो काउंसिल ने सर्वसम्मति से इसे कानूनी व्यक्ति का दर्जा प्रदान किया, जिससे नदी को प्रदूषण मुक्त बहने और स्वच्छ रहने का अधिकार मिला। इसके अलावा, 2025 में ही कोलोराडो नदी को कोलोराडो रिवर इंडियन ट्राइब्स के कानून के तहत व्यक्ति का दर्जा मिला, नाइजीरिया की रिवर एथियोप को अफ्रीका की पहली ऐसी नदी बनने की दिशा में प्रगति हुई, और पेरिस ने सीन नदी को प्रदूषण से बचाने के लिए कानूनी व्यक्ति बनाने की योजना घोषित की।
दुनिया भर में नदियों को कानूनी व्यक्ति का दर्जा देने का समयक्रम इस प्रकार है:
ये उदाहरण दिखाते हैं कि नदियों को कानूनी व्यक्ति का दर्जा देने का आंदोलन वैश्विक स्तर पर बढ़ रहा है, मुख्य रूप से स्वदेशी समुदायों के प्रयासों से, लेकिन कार्यान्वयन में चुनौतियां बनी हुई हैं।
नदियों को जीवित इकाई का क़ानूनी दर्जा और भारत का संदर्भ और भी प्रेरणादायक है, क्योंकि अपनी नदियों को सदियों से मां मानने वाले भारत देश की एक प्रांतीय अदालत ने भी इस दिशा में एक फैसला दिया। वर्ष 2017 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गंगा और यमुना नदियों को क़ानूनी तौर पर जीवित इकाई घोषित किया, यह कहते हुए कि “ये नदियाँ हमारे लिए माँ के समान हैं और इन्हें व्यक्ति का दर्जा मिलना चाहिए”।
यह फैसला न्यूज़ीलैंड की वांगानुई नदी के संसदीय फैसले के साथ ही आया, जो वैश्विक स्तर पर एक क्रांतिकारी कदम था। जहां न्यूज़ीलैंड ने अपने फैसले को प्रभावी रूप से लागू कर नदी की रक्षा सुनिश्चित की, वहीं भारत का उच्च न्यायालय का फैसला सांस्कृतिक रूप से और भी गहरा था, क्योंकि यह नदियों को ‘मां’ के रूप में देखने वाली प्राचीन भारतीय परंपरा पर आधारित था। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस आदेश पर रोक लगा दी। उत्तराखंड का फैसला वैश्विक मिसाल बन सकता था। नदी संरक्षक मानते हैं कि संसद से कानून पारित कराने या सर्वोच्च न्यायालय से रोक हटवाने की आवश्यकता है, ताकि गंगा-यमुना को जीवित व्यक्ति का दर्जा देकर उनकी रक्षा की जाए, जैसा कि न्यूज़ीलैंड और अन्य देशों ने सफलतापूर्वक किया है। यह न केवल कानूनी बल्कि सांस्कृतिक न्याय होगा, जो वैश्विक पर्यावरण आंदोलन में भारत को नेता बना सकता है।
वैश्विक स्तर पर जहां कोलंबिया की अत्रातो नदी 2016 से ही इस दिशा में अग्रणी रही, उसके बाद वांगानुई, बांग्लादेश की तुराग, कनाडा की मैग्पी, अमेरिका की क्लैमथ और अब 2025 में इंग्लैंड की रिवर टेस्ट तथा अन्य नदियों को यह दर्जा मिल रहा है, वहां भारत—जो नदियों को जीवंत मां मानने वाला विश्व का अग्रणी देश है—इस मामले में पिछड़ रहा है।
जीवित इकाई का दर्जा मिलने के लाभ निम्नलिखित हैं:
- न्यायिक अधिकार: गंगा-यमुना को स्वतंत्र पक्षकार के रूप में सुना जा सकेगा।
- जल संरक्षण का जनाधिकार: उनके संरक्षक (गार्डियन) उनके नाम पर मुकदमे दायर कर सकेंगे।
- जीवन जीने का अधिकार: नदी को हानि पहुंचाना जीवित व्यक्ति को हानि के समान माना जाएगा, जो क्रिमिनल कानूनों के तहत दंडनीय होगा।
- अनियंत्रित गतिविधियों पर रोक: अवैध खनन, प्रदूषण, अतिक्रमण और धारा अवरुद्ध करने वाले निर्माण पर तुरंत रोक लगेगी, और क्षति की पूर्ति संभव होगी। सरकार और उद्योगों को विकास योजनाओं में नदियों के संरक्षकों (गार्डियन) से स्वीकृति लेनी होगी।
- सांस्कृतिक अधिकार: गंगा और यमुना केवल धार्मिक प्रतीक नहीं, बल्कि संवैधानिक और सांस्कृतिक प्राधिकारी बन जाएंगी।
इन लाभों के अतिरिक्त, नदियों को अन्य कानूनी अधिकार भी प्राप्त हो सकते हैं। विचारणीय प्रश्न हैं: क्या नदियों के लिए ‘जीवित इकाई’, ‘जीवित इकाइयों का समुच्चय’, ‘जीवित व्यक्ति’ या ‘जीवित माँ’ का दर्जा मांगा जाए? भारत में गंगा-यमुना के लिए उपयुक्त मॉडल क्या हो? एक स्वतंत्र ‘नदी न्यायाधिकर परिषद’ का गठन हो, जिसमें बहुमत सदस्य न्यायपालिका, वैज्ञानिक, पर्यावरणविद और समाज के प्रतिनिधि हों। संसद से ‘गंगा-यमुना जीवनाधिकार विधेयक’ पारित कराने की मांग की जा सकती है, जो नदियों के प्राकृतिक कर्तव्यों, अधिकारों और माता रूप में लोकास्था को सुनिश्चित करे। गंगा-यमुना पुनर्जनन के लिए विशेष कोष की स्थापना हो, जिसमें प्रदूषकों से जुर्माना और उद्योगों से पर्यावरण शुल्क जमा हो। स्थानीय स्तर पर जन निगरानी के लिए कर्तव्य और अधिकार प्राप्त ‘नदी पंचायतों’ का गठन भी हो।
विश्व भर में नदियों के अधिकारों को मान्यता देने की आवश्यकता बढ़ रही है। भारत में गंगा और यमुना का क्षीण होना केवल मनुष्यों नहीं, बल्कि खरबों प्राणियों के जीवन को प्रभावित करेगा। यह स्थिति समाज को एकजुट होने और नदियों के हक सुनिश्चित करने के लिए प्रेरित करती है। यह नैतिक, सांस्कृतिक और संवैधानिक दायित्व है। इससे नदियां समृद्ध होंगी और समाज भी। भारत की वह परंपरा, जो सदियों से अहिंसा और सत्य का मार्ग दिखाती रही है, इस रास्ते पर चलकर पुनर्स्थापित होगी।
– ग्लोबल बिहारी ब्यूरो

