देहरादून: जुलाई 2024 के तीसरे सप्ताह में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने उत्तराखंड सकल पर्यावरण उत्पाद सूचकांक (जीईपी) अपने सचिवालय में लॉन्च किया है। इसका सरल अर्थ तो यही है कि उत्तराखंड जैसे संवेदनशील क्षेत्र में अब कोई भी विकास कार्य होंगे तो उससे पहले मूल्यांकन करके जल, जंगल, जमीन, वायु पर कितना प्रभाव पड़ेगा, उसके अनुसार ही विकास कार्य निर्धारित होंगे। यदि विपरीत प्रभाव की अधिक संभावनाएं होगी तो निश्चित ही उसको रोकना भी पड़ेगा। यानि सकल पर्यावरण उत्पाद उत्तराखंड के विकास का आधार बनेगा।
ऐसा दावा किया जा रहा है कि सकल पर्यावरण उत्पाद को विकास का आधार बनाने वाला उत्तराखंड देश का पहला राज्य बन गया है पर गौरतलब है कि यही बात 2007 की केंद्रीय पुनर्वास नीति में भी लिखी गई थी कि कोई भी विकास कार्य जिसके कारण प्राकृतिक संसाधनों का बेहिसाब विनाश होगा, उसे रोका जा सकता है।
इसके अलावा 5 जून 2021 को भी तत्कालीन मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने यही ऐलान किया था कि उत्तराखंड पहला राज्य होगा जहां विकास को मापने के लिए जीईपी को लागू किया जाएगा। इससे पहले भी पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और डॉ रमेश पोखरियाल निशंक ने भी यही आश्वासन दिया था।
विभिन्न मुख्य मंत्रियों द्वारा इस एक ही प्रकार के घोषणा की वजह यही है कि उत्तराखंड हिमालय में जितनी तेजी से भोगवादी विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का विनाश हो रहा है उसे रोकने के लिए छोटे-बड़े आंदोलन चलते रहते हैं। उनकी आवाज के सामने यही एक ऐसी संभावना है, जिसकी मूल्यांकन रिपोर्ट का हर साल इंतजार करना पड़ेगा, जिसकी कोई विधिक मजबूती भी नहीं है।
इसलिए प्रश्न यह है कि लगातार ऐसी घोषणा के बावजूद भी अब हर वर्ष सकल पर्यावरण उत्पादन में हम कहां खड़े हैं? अर्थात हमने कितने ऐसे प्रयास किये कि जिससे राज्य का पर्यावरण बेहतर हुआ है?
इसका मूल्यांकन करके जीडीपी के साथ जीईपी का लेखा-जोखा भी आने वाले दिनों में राज्य को प्रस्तुत करना पड़ेगा।
यह किसी एक राज्य के लिए ही नहीं अपितु देश के लिए भी यह निर्णय स्वागत योग्य है।लेकिन इससे एक गंभीर आशंका भी पैदा होती है कि संबंधित विभागों से प्रस्तावित विकास से पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों के मूल्यांकन का आधार क्या होगा? क्या इसकी कोई मॉनीटरिंग प्रणाली होगी? और सकल घरेलू उत्पाद किस हिस्से में योगदान देगा? यह भी कहा जा रहा है कि राज्य द्वारा रुपये 95,112 करोड़ के लगभग दी जाने वाली पारिस्थितिकीय सेवाएं क्या हरियाली बचाने वाले निवासियों को लाभ प्रदान करेगा या सिर्फ केंद्र से बजट का दावा प्रस्तुत करेगा? नीति आयोग इस विषय पर किस आधार पर फैसला लेगा?
इन सब के उत्तर भविष्य की गर्त में छिपे हुए हैं। वैसे भी समझने के लिए यह पर्याप्त है कि उत्तराखंड का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल में से 71 प्रतिशत वन भूमि के अधीन है जबकि सघन वन 40 प्रतिशत से अधिक नहीं है। लेकिन फिलहाल राज्य सरकार यही कह रही है कि जीईपी सूचकांक के आधार पर ग्रीन बोनस और केंद्र की सहायता लेने में यह लाभकारी साबित होगा।
प्रति वर्ष जीईपी सूचकांक प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी उत्तराखंड के प्रमुख सचिव (वन) को दी गई है। इसका आंकलन मानव जनित और प्राकृतिक गतिविधियों के आधार पर होगा जिसमें जंगल, हवा, पानी, मृदा पर लगातार आ रहे परिवर्तन जैसे- जंगल के संबंधित सूचकांक के लिए विभिन्न वर्षो में वन विभाग द्वारा रोपे गए पौधों की संख्या और इन्हीं प्रजातियों के वृक्षों के पातन की संख्या के आधार पर आंकड़े एकत्रित किए जाएंगे। इसमें यह भी पता हो पाएगा कि पातन के दौरान छोटी-छोटी वनस्पतियां,जीव-जंतु बुरी तरह प्रभावित होते हैं।और क्या हर वर्ष भीषण आग से जल रहे जंगल और रोपे गए पौधों के सापेक्ष प्राकृतिक वन संपदा की व्यवसायिक कटाई का मूल्यांकन करना आसान होगा?
यदि जिन पेड़ों को उसी वर्ष लगाया गया और यह मान लेंगे कि इतने ही इसी प्रजाति के पेड़ काटे गए तो यह अधूरी जानकारी होगी क्योंकि उत्तराखंड में हर साल चीड़, देवदार, कैल आदि प्रजातियों का बड़े पैमाने पर कटान हो रहा है। यह भी गौरतलब है कि बड़े वृक्ष ऑक्सीजन,मिट्टी,पानी के संरक्षण में महत्वपूर्ण भागीदारी निभाते है। इस आधार पर 6 महीने पहले ही लगाया गया पौधा जो आग में जल गया उसको जीईपी का हिस्सा कैसे मान सकेंगे? एक अहम बात यह भी है कि कुछ प्रजातियां ऐसी भी हैं जो रोपने के बाद जिंदा नही हीं बच पाती हैं।
बड़े निर्माण कार्यों से बेतरतीब ढंग से काटे जा रहे पहाड़ों से खिसक रही मिट्टी को भी सीधे नदियों में डाला जाता है और कहीं भी मिट्टी को पुन: उपयोग में लाने के लिए डंपिंग जोन नहीं है जिसके ऊपर पौधे रोपे जा सकते थे।जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक मिट्टी की बर्बादी का मूल्यांकन संभव ही नहीं है।
इसी तरह जल के मामले में उपलब्ध जल की गुणवत्ता और मात्रा इन दोनों में तेजी से बढ़ रहे प्रभाव का सबसे जीता जागता उदाहरण तो यही है कि पहाड़ी भू-भाग में भी 60 प्रतिशत जल स्रोत सूख चुके हैं जिसके ऐवज में सरकारी विभाग, स्वैच्छिक संगठन, अन्य प्रयासों से जो भी जल संरचनाएं बनी हैं क्या उन्हें प्राकृतिक जल स्रोतों के समान स्वीकार किया जा सकता है? और जब कोई भी विकास संरचना यदि जल स्रोतों को बर्बाद करती है तो उसे न्यूनतम करने के क्या तरीके होंगे?
जंगल के बारे में भी यही कहा जा सकता है कि विकास के नाम पर न्यूनतम वनों को ही नुकसान हो। भौगोलिक संरचना के आधार पर विकास की संरचना भी निर्धारित हो। यदि इन बातों को ध्यान में नहीं रखेंगे और भारी भरकम परियोजनाओं से हिमालय के प्राकृतिक संसाधनों का विनाश नहीं रोक पाएंगे तो जीईपी की हालत जीडीपी जैसी होगी।
जंगल बचाने वाले पर्यावरण कार्यकर्ताओं की बात सुननी पड़ेगी। 23 जुलाई 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने वनाग्नि नियंत्रण के लिए अधिकारियों को जो आदेश दिए उसका पालन भी करना होगा।चिंताजनक है कि जीडीपी ने आजादी के बाद गरीबी कम नहीं की है।तो क्या जीईपी पर्यावरण की रक्षा की नजीर बन सकेगी?
सकल पर्यावरण उत्पाद की मांग करने वाले पद्मभूषण डॉ० अनिल प्रकाश जोशी मानते हैं कि उत्तराखंड में दशमलव 9 प्रतिशत जीईपी है जिसे 4 से 5 तक ले जाना पड़ेगा।लेकिन राज्य व्यवस्था तो फंड के लिए एक मजबूत हथियार के रूप में इसे देख रही है।जबकि ग्रीन बोनस की मांग करने वाले पर्यावरणविद् जगत सिंह “जंगली’ और रक्षासूत्र आंदोलन की टीम का कहना है कि रसोई गैस पर लोगों को आधी से अधिक सब्सिडी दी जानी चाहिए।जलपुरुष के नाम से विख्यात जल विशेषज्ञ राजेंद्र सिंह कहते हैं कि पर्यावरणीय आर्थिकी प्रभावी वहां होगी जहां लोग अहिंसक होंगे। अतः चीड़ वृक्षों को नियंत्रित करके चौड़ी पत्ती के पेड़ों के रोपण पर खर्च ग्रीन बोनस से हो और बेरोजगार नवयुवकों को रोजगार मिले।
वैश्विक स्तर पर 1997 में पारिस्थितिकीय अर्थशास्त्री रॉबर्ट कोस्टांजा द्वारा भी जीईपी की परिकल्पना की गई थी।यह पारिस्थितिकीय स्थिति को मापने की एक मूल्यांकन प्रणाली हो सकती है। जिसमें पारिस्थितिकी तंत्र मानव कल्याण और आर्थिक सामाजिक सतत् विकास को बढ़ावा मिल सकता है। केवल पारिस्थितिकी तंत्र को आर्थिक मूल्य के लिए ही मानेंगे तो यह जैव विविधता के ह्रास और जलवायु परिवर्तन में अधिक संकट पैदा करेगा।
सन् 1981 में “पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएँ” शब्द गढ़ा गया था। लेकिन इसकी परिभाषा अभी तक स्पष्ट नहीं है। इसलिए सकल पर्यावरण उत्पाद के विषय पर देश की संसद में बहस करने के उपरांत ही राज्यों को स्थिर और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर ध्यान केंद्रित करना पड़ेगा।अकेले उत्तराखंड सरकार का यह निर्णय यदि नजीर बन गया तो भी केंद्र को पारिस्थितिकी और आर्थिकी के बीच सृजनात्मक संबंध बनाने की दिशा में मूल्यांकन करने का मौका मिलेगा।
*लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता हैं। प्रस्तुत लेख उनके व्यक्तिगत विचार हैं।