– अरुण तिवारी
बोलो, लोकतंत्र बल कैसे पाए…
जिस जनता के दिल में
सपनों का लोकतंत्र पहले था आया
उसके ही दिल गर धंसे हुए हों
आज़ाद व्योम के संघर्षों में सुख न पाते अब
स्वावलंबी स्वर्णिम स्वराज से ऊबचुके हों
कनक बेड़ियों में बौराए… डूब चुके हों
बोलो, लोकतंत्र कैसे बल पाए ?
जिस जनता का भाल तिलक बन
लोकतंत्र बल पाता है,
उस जनता के शीश झुके हों,
कमर झुकी और पैर डिगे हों,
हाथ कटोरा लेकर अर्पण को,
चारण बन चरणन पे नयन टिके हों,
बोलो, लोकतंत्र कैसे बल पाए ?
फूस झोपड़ी में जनता और
प्रतिनिधि राजा से राजमहल में बसें हुए हों,
पैसा लेकर पूछें सवाल औ
दल की व्हिप से कसे हुए हों,
तिस पर तुर्रा हो रुआब का,
अपनी ही जनता से कटे हुए हैं,
बोलो, लोकतंत्र कैसे बल पाए ?
कोई बलात्कार का आरोपी,
कोई कालिख का पक्का दलाल,
कोई नफ़रत का सौदागर तो
कोई बाहुबली कालों का काल,
ये प्रतिनिधियों की सभा चुनी हैं
या चुना नुक्कड़-ए-बदख्याल,
बोलो, लोकतंत्र कैसे बल पाए ?
टोपी, तिलक, तराजू लेकर,
अगड़ी-पिछड़ी बाजू लेकर,
फसल काटने कई हैं आए,
कटने को तैयार खडे़ हम,
हम को चुनना था प्रतिनिधि हम,
जाति औ मजहब चुन आए,
बोलो, लोकतंत्र कैसे बल पाए ?
सतरंगी हैं इन्द्रधनुष हम,
सुर-सागर सा देश हमारा,
सप्तम-पंचम जितने सुर हैं,
अंतिम-प्रथम सभी सुर प्यारे,
हर सुर का हर गान हमारा
एकरंगी-एकताला होकर
बोलो, लोकतंत्र कैसे बल पाए ?
जनता खातिर, जनता द्वारा,
जनता की सरकार है प्यारे,
तुम तो सिर्फ प्रतिनिधि हमारे,
जनता खातिर चुने गए हो,
जन सपनों से बुने गए हो,
इस परिभाषा में आशा के जो बीज छिपे हैं,
ग़र वे बरगद न बनने पाए तो
बोलो, लोकतंत्र कैसे बल पाए ?
न राजनीति न सत्ता कोई,
न नेता न जनता कोई,
चौखम्भों पर खड़ा राष्ट्र जो,
लोकनीति पर बढ़ा राष्ट्र जो,
वही पथिक लोकतंत्र कहाए,
जब तक बात बने न ऐसी
बोलो, लोकतंत्र कैसे बल पाए ?