ग्लेशियरों की गोद में पनपती तबाही
ग्लेशियरों के पिघलने से होने वाली तबाही को लेकर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटारेस काफी चिंतित हैं। उनकी चिंता का सबब यह है कि दुनिया के वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते सदी के अंत तक हिंदूकुश हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियर 75 फीसदी तक नष्ट हो जायेंगे। समुद्र तल से 5,000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर स्थित याला ग्लेशियर एक ऐसा हिमनद है जो विलुप्त होने के कगार पर है। गौरतलब है कि इसकी याद में बीती 12 मई को भूवैज्ञानिकों, विभिन्न समुदायों व स्थानीय सरकार के प्रतिनिधियों ने इस ग्लेशियर की तलहटी में एक बैठक भी आयोजित की थी। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि 21वीं सदी में बहुतेरे पर्वतीय ग्लेशियर खत्म हो सकते हैं। गौरतलब है कि साल 2023 के आखिर में गुटारेस ने दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट के आसपास के क्षेत्र का दौरा किया था। उस समय उन्होंने हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियरों के पिघलने से हो रहे खतरों से आगाह करते हुए कहा था कि दो प्रमुख कार्बन प्रदूषकों भारत और चीन के बीच इस हिमालयी क्षेत्र में स्थित ग्लेशियर पिछले दशक में 65 फीसदी से अधिक तेजी से पिघले हैं। आज जरूरत जीवाश्म ईंधन के युग को समाप्त करने की है। ग्लेशियरों के पिघलने का मतलब है तेजी से समुद्र का बढ़ना और विश्व समुदाय पर बढ़ता खतरा। इसीलिए मैं दुनिया की छत से इस वैश्विक खतरे के प्रति आगाह कर रहा हूं। क्योंकि दुनिया के वैज्ञानिक बार-बार यह चेता चुके हैं कि पिछले 100 वर्षों में पृथ्वी का तापमान 0.74 डिग्री सैल्सियस के औसत से बढ़ चुका है। लेकिन एशिया के हिमालयी क्षेत्र में गर्मी में हो रही दिनोंदिन बढो़तरी बडे़ खतरे का संकेत है।
सबसे बडा़ खतरा ग्लेशियरों के पिघलने से बन रही झीलों से है जो तबाही का सबब बन रही हैं। 2013 में आई केदारनाथ आपदा इसकी जीती-जागती मिसाल है। देखा जाये तो समूचा उत्तराखण्ड आपदा की दृष्टि से संवेदनशील है। यह हर साल अतिवृष्टि, भूस्खलन, बाढ़, भूकंप जैसी आपदाओं से जूझता है। अब इस पर्वतीय राज्य में ग्लेशियर झीलें बहुत बड़ी चुनौती के रूप में सामने आ रही हैं। यहां छोटी-बड़ी 1266 से ज्यादा झीलें हैं। जबकि 25 ग्लेशियर झीलें खतरनाक रूप में आकार ले रही हैं। जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे ग्लेशियर और उसके सामने के मोराइन में पिघली बर्फ का पानी नयी ग्लेशियर झीलों के निर्माण के साथ ही मौजूदा झीलों का लगातार विस्तार कर रहा है जो बेहद खतरनाक है। वाडिया इंस्टीटयूट आफ हिमालयन जियोलाजी के शोध में इसका खुलासा हुआ है कि उत्तराखण्ड में मौजूदा समय में इन कुल 1266 झीलों की निगरानी काफी चुनौतीपूर्ण है। इनमें सबसे ज्यादा खतरनाक ए श्रेणी की छह, उससे कम खतरनाक बी श्रेणी की छह और सी श्रेणी की 13 झीलें शामिल हैं। इनमें सबसे खतरनाक झीलों में भिलंगना घाटी की मासर झील, धौलीगंगा घाटी की अनाम झील, मबांग ताल, अलकनंदा घाटी का वसुधारा ताल, अनाम झील और गौरीगंगा की अनाम झील है। बी श्रेणी की छह खतरनाक झीलों में अलकनंदा घाटी की तीन अनाम झील, कुटियांगटी, धौलीगंगा और गौरीगंगा घाटी में एक-एक झील है। सी श्रेणी की 13 खतरनाक झीलों में भागीरथी घाटी में पांच, अलकनंदा में चार, धौलीगंगा में तीन और कुटियांगटी में एक झील शामिल है।
वैज्ञानिकों द्वारा राज्य के ग्लेशियरों की निगरानी से यह खुलासा हुआ है कि तापमान बढो़तरी की वजह से ग्लेशियर न केवल तेजी से पिघल रहे हैं बल्कि वह तेजी से पीछे भी हट रहे हैं। इनके द्वारा खाली की गयी जगह पर ग्लेशियरों द्वारा लाये गये मलबे के बांध या मोरेन के कारण झीलें आकार ले रही हैं। इनसे जोखिम लगातार बढ़ रहा है। यहां पर केदारताल, भिलंगना और गौरीगंगा ग्लेशियरों ने आपदा के लिहाज से खतरे की घंटी बजायी है। वैज्ञानिकों ने इन्हें संवेदनशील बताया है। नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथारिटी के अनुसार गंगोत्री ग्लेशियर के साथ ही इस इलाके में राज्य के पांच जिलों यथा पिथौरागढ, चमोली, उत्तरकाशी, बागेश्वर और टिहरी की 13 ग्लेशियर झीलें भी जोखिम के लिहाज से चिन्हित हुयी हैं जो भयावह खतरे का सबब हैं। अथारिटी इनमें से पांच झीलों को उच्च जोखिम की श्रेणी में मानती है। फिलहाल चमोली की लगभग 40 मीटर गहरी, 900 मीटर लम्बी और 600 मीटर चौड़ी वसुधारा झील से दो जगह से पानी रिस रहा है जो खतरे का संकेत है। गौरतलब है कि राज्य में 1000 मीटर के दायरे की कुल 426 ग्लेशियर झीलें हैं जो अलकनंदा , भागीरथी धौलीगंगा, मंदाकिनी , गौरीगंगा, कुटियांगटी , भिलंगना, टौंस, यमुना आदि घाटियों में फैली हैं। वैसे ग्लेशियर झीलों की अध्ययन रिपोर्ट के आधार पर इनकी निगरानी हेतु सरकार द्वारा एक मजबूत तंत्र विकसित किये जाने की बात की जा रही है। इसमें उत्तराखण्ड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, भूस्खलन प्रबंधन एवं न्यूनीकरण केन्द्र, वाडिया हिमालयन भू-विज्ञान संस्थान, आईटीबीपी, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ, एन आई एच रूड़की, आईआईआरएस, देहरादून के विशेषज्ञ शामिल होंगे। इससे आपदा जोखिम न्यूनीकरण में मदद मिलेगी।
असलियत में हम कहें कुछ भी, लेकिन यह कटु सत्य है कि हम दुनिया के बहुत सारे ग्लेशियरों को खोते चले जा रहे हैं। जहां तक हिमालयी क्षेत्र का सवाल है, साल 2000 से 2020 के दौरान हिमालयी क्षेत्र में अधिकतर ग्लेशियर अलग-अलग दर पर पिघल रहे हैं। सरकार ने इसका खुलासा ग्लेशियरों का प्रबंधन देखने वाली संसद की स्थायी समिति को किया है। इससे इस अंचल में हिमालयी नदी प्रणाली का प्रवाह गंभीर रूप से प्रभावित होगा बल्कि यह ग्लेशियर झील के फटने की घटनाएं, हिमस्खलन और भूस्खलन जैसी आपदाओं के जन्म का कारण भी बनेगा जिससे आम जनमानस को जनधन की भारी हानि उठानी पड़ेगी जिसकी भरपाई असंभव होगी।
इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि ग्लेशियरों के पिघलने से झीलों में पानी बढे़गा। उस हालत में उनमें सीमा से अधिक पानी होने से वह किनारों को तोड़कर बाहर निकलेगा। दूसरे शब्दों में झीलें फटेंगीं। उस दशा में पानी सैलाब की शक्ल में तेजी से बहेगा। नतीजन आसपास के गांव-कस्बे खतरे में पड़ जायेंगे। यानी उनको तबाही का सामना करना पडे़गा। उत्तराखंड की त्रासदी की तरह उस दशा में सब कुछ तबाह हो जायेगा। इसलिए इस मुद्दे पर प्राथमिकता के आधार पर तत्काल कदम उठाने की जरूरत है।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।

