कॉप 27: जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के निहितार्थ
– ज्ञानेन्द्र रावत*
बीती 6 नवंबर 2022 से मिस्र के शर्म अल-शेख में चले संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, कॉप 27 कार्बन उत्सर्जन बढ़ने की रफ्तार को समूची दुनिया के लिए बेहद दु:खद और दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए इस घोषणा के साथ समाप्त हो गया कि अब जीवाश्म ईंधन से वैश्विकरण कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जन पूर्व की तुलना में एक फीसदी बढ़ने का अनुमान है जो 37 .5 अरब टन के एक नये रिकार्ड को तोड़ रहा है। यह खतरे की घंटी है। सबसे बड़ी बात इस बढो़तरी को रोकना ही एकमात्र विकल्प है। यहां इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता है कि 2015 के पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन ने पृथ्वी के लिए सबसे गंभीर विनाशकारी परिणामों या यों कहें कि भयावह खतरे से बचने की ख़ातिर उत्सर्जन की एक सीमा का निर्धारण किया था। बीते दशक में समूची दुनिया में कार्बन उत्सर्जन कम करने की बाबत प्रयास उस सीमा तक नहीं हुए जिसकी अपेक्षा की गयी थी। मौजूदा हालात इस कथन के जीते जागते सबूत हैं कि इस बाबत बरती गयी कोताही का दुष्परिणाम हमारे सामने भयावह खतरे के रूप में मौजूद है। कोरोना काल के उपरांत आर्थिक और औद्योगिक गतिविधियों के बीच पर्यावरण सुधार के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति और ठोस निर्णय की अपेक्षा थी, लाख कोशिशों के बावजूद कुछ बिन्दुओं पर सहमति के अभाव के चलते कामयाबी बेमानी प्रतीत होती है।
चिंता तो इस बात की है कि यदि कार्बन उत्सर्जन वृद्धि की यही रफ्तार रही तो आने वाले नौ वर्षों में औद्योगिक पूर्व तापमान से 1.5 डिग्री सेल्सियस से ऊपर तापमान पहुंच जायेगा जो समूची मानवता के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। इसका मूल कारण कोयले की खपत में बेतहाशा बढ़ोतरी है। वह बढ़ोतरी वह चाहे यूरोप हो जहां गैस के अभाव में उर्जा की जरूरतें पूरी करने की ख़ातिर कोयले की खपत में बढ़ोतरी दर्ज हुयी है। यही नहीं यह बढ़ोतरी तेल की खपत में भी हुयी है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। भारत भी इस मामले में पीछे नहीं है जहां 2021 की तुलना में कोयले और तेल की खपत में अनुमानतः 6 फीसदी की वृद्धि हुयी है। जबकि सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जन देश चीन में बीते एक सफल में कार्बन उत्सर्जन की दर एक फीसदी घटी है। वहां कोयले की खपत में भी बढ़ोतरी नहीं हुयी है। इसमें दो राय नहीं कि जैसा कि दुनिया के वैज्ञानिक यह अनुमान लगा रहे थे कि कोयले के जलने से होने वाले उत्सर्जन में यदि एक फीसदी की भी बढ़ोतरी होती है तो यह विश्व का एक नया कीर्तिमान होगा।
यहां इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि समूची दुनिया अभी भी 80 फीसदी ऊर्जा के लिए जीवाश्म ईंधन पर ही निर्भर है। यह भी कड़वा सच है कि ऐसी दशा में उत्सर्जन तो बढ़ेगा ही, जिसके कम होने की उम्मीद ही बेमानी है। उस दशा में जबकि अक्षय ऊर्जा और स्वच्छ ऊर्जा अभी भी शुरूआती चरण में ही है। यहां इस अहम तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि जिन देशों की आबादी कम है वहां तो अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा दिया जा सकता है लेकिन जिन देशों की आबादी बहुत ज्यादा है, वहां अक्षय ऊर्जा का सपना अभी बहुत दूर की कौडी़ है। जहां तक भारत का सवाल है, दावे कुछ भी करें, असलियत में सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा के मामले में हम बहुत पीछे हैं। क्यों ? यह समझ से परे है जबकि इस क्षेत्र में हमें बहुत आगे होना चाहिए था। हां इस दिशा में यूरोप की प्रशंसा की जानी चाहिए जिसने अक्षय ऊर्जा के महत्व को समय रहते समझ लिया। गौर करने वाली बात यह भी है कि साल 2000 के दशक के शुरूआती दौर में यूरोप में कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि की दर तीन फीसदी सालाना थी लेकिन इस साल की एक फीसदी की अनुमानित बढ़ोतरी अपेक्षाकृत कम ही है। भले वहां यह बढ़ोतरी एक फीसदी से अनुमानित रूप से कम ही हो लेकिन इस सच्चाई को नकार नहीं सकते कि यह बढ़ोतरी उस दौरान हुयी जबकि यूक्रेन युद्ध से उपजे ऊर्जा संकट से समूची दुनिया जूझ रही है और यही नहीं कोबिड-19 जैसी भीषण महामारी के उस भयावह दौर से उबरने का दुनिया भरसक प्रयास कर रही है।
विडम्बना यह कि यू एन महासचिव अंटोनिओ गुटारेस का यह भरसक प्रयास रहा कि कॉप 27 यह जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में मौजूदा समस्याओं के स्तर के अनुरूप तथा यूक्रेन युद्ध के कारण उपजे ऊर्जा संकट और जलवायु समाधानों पर एकमुश्त सहमति बने ताकि इस संकट के समाधान की दिशा में कारगर प्रयास किये जा सकें। गौरतलब है कि कॉप 26 की बैठक में 193 देशों ने राष्ट्रीय कार्यवाही योजनाओं को अधिक महत्वपूर्ण बनाने, शून्य उत्सर्जन, वन संरक्षण और जलवायु वित्त पोषण सहित अनेक संकल्प लिए थे, लेकिन दुख की बात यह है कि अभी तक केवल 23 देशों ने ही यू एन को अपनी योजनाएं भेजी हैं। ऐसी स्थिति में धरातल पर पूर्ण, समावेशी, सामयिक व विस्तृत कार्यवाही की उम्मीद ही बेमानी है जिसकी आशा की गयी थी। साथ ही अनुकूलन वित्त पोषण के लिए विकसित देशों द्वारा निम्न आय वाले देशों के लिए हर वर्ष 100 अरब डॉलर की राशि मुहैया कराने का सवाल भी अनसुलझा रहा है। सबसे अहम सवाल तो यह है कि बड़े मुख्य उत्सर्जक देश खडे़ हों और कहें कि हमें कुछ करना होगा, हमें इन निर्बल देशों के लिये अपना योगदान देना होगा, तभी कुछ बात बनेगी अन्यथा ऐसी कवायद तो बरसों से देख रहे हैं और आगे भी की जाती रहेंगी, यही नहीं संपन्न देशों का पर्यावरण सुधार के लिए विकासशील देशों को धन मुहैय्या कराने के सवाल पर पूर्व में किये वादे पर मौन समस्या की विकरालता की ओर ही संकेत कर रहा है। ब्राजील, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका का यह आरोप कि इन हालात में नतीजा कुछ नहीं मिलेगा और कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य का सपना सपना ही रहेगा, इसमें कोई दो राय नहीं। कटु सत्य प्रतीत होता है और समस्या की भयावहता का संकेत भी। वह भी उस दशा में जबकि जलवायु से जुड़े मुद्दों पर कुछ भौतिक दृष्टिकोण को लेकर विचारों में भिन्नता के चलते प्रमुख मुद्दों पर प्रगति की जो आशा-आकांक्षा थी, वह धूमिल हुयी है। लेकिन 150 से अधिक देश मीथेन उत्सर्जन को कम करने के सवाल पर सहमत हुए हैं, यह एक अच्छा लक्षण है। असलियत में इस सम्मेलन का असली जोर बिजली उत्पादन बंद करने के उपाय पर ही ज्यादा रहा है।
निष्कर्ष यह कि यह सम्मेलन 2021 के ग्लासगो सम्मेलन के प्रस्ताव पर ही मुहर लगाने के अलावा कुछ अलग कर पाने में नाकाम रहा है। हां इतना जरूर हुआ कि जलवायु प्रभावों से होने वाले नुकसान की भरपाई के मुद्दे पर सदस्य देश एकमत दिखे। साथ ही क्षतिपूर्ति के लिए एक नये कोष हेतु नयी वित्तीय व्यवस्था बनाने के लिए 3 अफ्रीकी, 10 विकसित व 13 विकासशील देशों की एक नयी कमेटी बनाने पर सहमत हुए जो जलवायु कोष के संचालन व नियम-कानून का निर्माण करेगी।इससे आपदा प्रभावित लोगों की मदद का रास्ता खुल्ला। वह बात दीगर है कि आर्थिक सहायता और बढ़ रहे वायुमंडल के तापमान की जिम्मेदारी का सवाल आखिर तक अनसुलझा ही रहा। जबकि बढा़ये गए आखिरी दिन तक सदस्य देश एक संतुलित और महत्वाकांक्षी मसौदे के पक्ष में बने रहे। और जब भारत की बात आती है तो हमारे पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव की माने तो जलवायु परिवर्तन को लेकर कार्यवाही किसी भी क्षेत्र, ईंधन या गैस स्रोत तक सीमित नहीं की जा सकती। जरूरत यह है कि दुनिया के सभी देश पेरिस समझौते की मूल भावना के तहत अपनी- अपनी स्थानीय राष्ट्रीय परिस्थिति के अनुरूप कार्य करें। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार,पर्यावरणविद एवं राष्ट्रीय पर्यावरण सुरक्षा समिति के अध्यक्ष हैं।