– ज्ञानेन्द्र रावत*
ज़रूरत है प्राकृतिक जल संसाधनों, पारंपरिक जल स्रोतों की रक्षा व वर्षा जल संचय की
विश्व के सात अजूबों में शामिल ताज महल की नगरी आगरा के जल संकट का इतिहास काफी पुराना और गंभीर है। केवल आगरा शहर ही नहीं, बल्कि इसका ग्रामीण अंचल भी इस समस्या से त्रस्त है। यहाँ के लोग दशकों से पीने के पानी के संकट का सामना कर रहे हैं। यहाँ का भूमिगत जल खारा है, जलस्तर निरंतर गिरता जा रहा है और प्रदूषण के चलते भूजल की गुणवत्ता लगातार प्रभावित हो रही है।
कृषि कार्यों और घरेलू उपयोग हेतु भूजल पर अत्यधिक निर्भरता भूजल के अति-दोहन का प्रमुख कारण बनी है। साथ ही, यमुना नदी में भारी धातुओं और अन्य प्रदूषक तत्वों की मौजूदगी ने भी स्थिति को विकट बनाया है। भूजल में कुल घुलित ठोस पदार्थ (टी.डी.एस.) और क्लोराइड की मात्रा मानक सीमा से अधिक पहुँच चुकी है। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से मिट्टी और भूजल का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। इसका सीधा असर कृषि पर पड़ा है, और पीने के पानी की समस्या अब विकराल रूप ले चुकी है।
उटंगन नदी के मामले में सिविल सोसाइटी ऑफ आगरा का प्रयास और आगरा जिला पंचायत की अध्यक्षा डॉ. मंजू भदौरिया का सहयोग एवं समर्थन सराहनीय है। उन्होंने न केवल इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया, बल्कि प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भेंट कर इस दिशा में ठोस कदम उठाने का अनुरोध किया। मुख्यमंत्री ने इस पर कार्यवाही के आदेश भी जारी किए हैं।
इस समस्या का स्थायी समाधान यही है कि उटंगन नदी पर स्लूस गेट युक्त बाँध बनाया जाए, जिससे कृषि के साथ-साथ पीने के पानी की दशकों पुरानी समस्या का स्थायी हल निकल सके। यदि ऐसा हुआ, तभी जनता को राहत की साँस मिलेगी।
देश के दूरदराज और ग्रामीण क्षेत्रों की बात छोड़िए, राजधानी दिल्ली में भी लोग पीने के पानी के लिए तरस रहे हैं। राजधानी के नए इलाकों से लेकर पुराने मोहल्लों तक पानी की भारी किल्लत है। यह स्थिति तब है जबकि दिल्ली की भाजपा की रेखा गुप्ता सरकार बार-बार पर्याप्त जल आपूर्ति का दावा करती है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जल संकट लगातार बना हुआ है।
जब दिल्ली जल बोर्ड पर्याप्त आपूर्ति नहीं कर पाता, तो लोग सबमर्सिबल पंपों के माध्यम से बेहिसाब भूजल निकालते हैं। इसके अलावा निजी संस्थान, छोटे कारोबार, निजी अस्पताल, वर्कशॉप, ऑटोमोबाइल केंद्र, वाहन धुलाई केंद्र और भवन निर्माण कार्यों में भी भूजल का अत्यधिक दोहन किया जा रहा है।
एक अनुमान और दिल्ली जल बोर्ड द्वारा विधानसभा में प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार, दिल्ली में २२,००० से अधिक अवैध सबमर्सिबल पंप चल रहे हैं। ऐसे में भूजल स्तर में गिरावट होना स्वाभाविक है। राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एन.जी.टी.) ने कई बार लुप्त हो चुके जल निकायों की बहाली के निर्देश दिए हैं, लेकिन जिन संस्थाओं की जिम्मेदारी इसे लागू करने की है, उनकी नाकामी ने समस्या को और बढ़ा दिया है।
यह स्थिति केवल राजधानी की नहीं बल्कि पूरे देश की तस्वीर है। केवल सरकारों को दोष देना पर्याप्त नहीं। इसके लिए नागरिक भी जिम्मेदार हैं। हमारी जीवनशैली में आए बदलावों ने इस संकट को जन्म दिया है। समस्या की एक अहम वजह अधिक अन्न उत्पादन की लालसा में रासायनिक खादों का बढ़ता प्रयोग और साठ के दशक में डीज़ल पंपों के अत्यधिक उपयोग की प्रवृत्ति रही है। इसके परिणामस्वरूप ज़मीन की उर्वरा शक्ति घटती गई और भूजल भंडार निरंतर नीचे चला गया।
भारत की ३५ करोड़ से अधिक आबादी साफ पानी से वंचित है। नीति आयोग के अनुसार, यह संख्या ६० करोड़ से भी अधिक है। हम अक्सर परंपराओं और संस्कृति की दुहाई देते हैं — नदियों को “माँ” कहते हैं — लेकिन क्या हम वास्तव में उनकी रक्षा करते हैं? नदियाँ हमारे जीवन की आधार हैं, जिनके किनारे सभ्यता पनपी, पर उन्हें प्रदूषित करने वाले भी हम ही हैं।
सरकारें दावा करती हैं कि वे नदियों को स्वच्छ बनाने के लिए काम कर रही हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि चाहे गंगा, यमुना, या कोई और नदी हो — अधिकांश नदियाँ प्रदूषित हैं। अब तो पर्वतीय राज्यों की नदियाँ भी दूषित हो चुकी हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सी.पी.सी.बी.) और विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (सी.एस.ई.) के अनुसार, देश की २७१ नदियों में २९६ स्थानों पर पानी प्रदूषित है। यदि व्यापक रूप से देखा जाए तो देश की लगभग ४६५ नदियाँ किसी न किसी रूप में प्रदूषण से ग्रस्त हैं।
सरकारें अपने-अपने हिसाब से काम करती हैं, पर केवल उन पर निर्भर रहना उचित नहीं। समाज को भी आगे आना होगा। जलपुरुष राजेन्द्र सिंह ने जोहड़ और चेकडैम के माध्यम से मृतप्राय नदियों को पुनर्जीवित किया। पद्मश्री राजा लक्ष्मण सिंह ने राजस्थान में तालाबों और टांका प्रणाली को पुनर्जीवित किया। बुन्देलखण्ड में पद्मश्री उमाशंकर पाण्डेय ने “मेड का पानी मेड पर” और “खेत का पानी खेत में” यानी मेडबंदी के माध्यम से जल संरक्षण की मिसाल पेश की। इसी प्रकार पुष्पेन्द्र भाई की अपना तालाब योजना के अंतर्गत किसानों ने अपने खेतों में ६५,००० से अधिक तालाब बनाकर जल संकट से निजात पाने का उदाहरण प्रस्तुत किया।
हर क्षेत्र की परिस्थिति अलग होती है, पर प्रयास तो हर जगह किए जा सकते हैं। आप भी इन जल संरक्षणकर्ताओं से प्रेरणा लेकर अपने खेत में तालाब बना सकते हैं, जिससे वर्षा जल का संचयन होगा, भूजल स्तर में वृद्धि होगी, पीने के पानी की परेशानी दूर होगी और सिंचाई के लिए आत्मनिर्भरता बढ़ेगी।
अब आवश्यकता है कि विलुप्त हो चुके प्राकृतिक जल संसाधनों को पुनर्जीवित किया जाए, तालाबों, पोखरों और पारंपरिक जल स्रोतों की रक्षा की जाए। सरकारी संस्थाओं, निजी प्रतिष्ठानों, आवासीय समितियों और नागरिकों द्वारा वर्षा जल संचयन को अनिवार्य बनाया जाए। जल की बर्बादी पर नियंत्रण और जनजागरण से इस संकट में काफी राहत मिल सकती है।
यह सर्वविदित है कि जल का हमारे जीवन पर प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव पड़ता है। जल संकट से एक ओर कृषि उत्पादकता प्रभावित होती है, वहीं दूसरी ओर जैव विविधता, खाद्य सुरक्षा और मानव स्वास्थ्य पर खतरा बढ़ता जा रहा है।
पानी का संकट केवल भारत का नहीं, बल्कि पूरी दुनिया का है। स्विस संघीय जल विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान के अनुसार, दुनिया में ४.४ अरब लोग आज भी केवल पीने के साफ पानी से वंचित हैं। यह स्थिति अत्यंत भयावह है। अध्ययनकर्ता एस्टर ग्रीनबुड के अनुसार, इतनी बड़ी आबादी का साफ पानी से वंचित रहना अस्वीकार्य है, और इसे तुरंत बदलने की आवश्यकता है।
विडंबना यह है कि इसके बावजूद दुनिया की सरकारें पेयजल बचाने और जल संचयन के प्रति गंभीर नहीं दिखतीं। जबकि संयुक्त राष्ट्र वर्षों से चेतावनी दे रहा है कि जल संकट पूरी मानवता के लिए एक बड़ा खतरा बन जाएगा। यदि अभी से जल की बर्बादी पर अंकुश नहीं लगाया गया और जल संरक्षण के उपाय नहीं किए गए, तो हालात इतने खराब हो जाएंगे कि उनकी भरपाई असंभव होगी।
हम चाहे जो भी दावे करें, पर सच्चाई यह है कि दुनिया अपने सतत विकास लक्ष्यों (एस.डी.जी.) को पाने के मामले में काफी पीछे है। २०१५ में तय किए गए लक्ष्य के अनुसार, २०३० तक सभी को सुरक्षित और सस्ता पेयजल उपलब्ध कराना अब एक सपना बन गया है।
संयुक्त राष्ट्र के आँकड़ों के अनुसार, दक्षिण एशिया में १२०० मिलियन, उप-सहारा अफ्रीका में १००० मिलियन, दक्षिण-पूर्व एशिया में ५०० मिलियन और लैटिन अमेरिका में ४०० मिलियन लोग आज भी साफ पानी से वंचित हैं। यह वैश्विक जल संकट की शर्मनाक तस्वीर है।
आज की स्थिति यह है कि दुनिया की लगभग ६१ प्रतिशत आबादी एशिया में साफ पानी के संकट से जूझ रही है। इस वैश्विक संकट के लिए मानव की गतिविधियाँ ही जिम्मेदार हैं — उसका लोभ, स्वार्थ और भौतिकवादी जीवनशैली। वैश्विक स्तर पर अब भी दुनिया की २६ प्रतिशत आबादी सुरक्षित पेयजल से वंचित है।
भारत में १३.३८ करोड़ बच्चे हर दिन की जरूरतों के लिए पर्याप्त पानी से वंचित हैं। यूनिसेफ के अनुसार, २०५० तक भारत में उपलब्ध जल का ४० प्रतिशत हिस्सा समाप्त हो जाएगा। तब क्या होगा? यह प्रश्न हर जिम्मेदार नागरिक को झकझोरना चाहिए।
*वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद
(प्रस्तुत लेख लेखक द्वारा हाल ही में आगरा में आयोजित “ज़िला पत्रकार सम्मान एवं जल संचय पर संगोष्ठी” में दिए गए भाषण पर आधारित है।)

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