– सुरेश भाई
गंगा-यमुना और हिमालयी आपदा: प्राकृतिक संतुलन बनाम विकास
देहरादून: हिमालय आज कराह रहा है। उसकी नदियाँ, जंगल, पहाड़ और घाटियाँ मानो मनुष्य से कह रही हों, “बस करो — अब और नहीं।” पर हम हैं कि उसकी करुण पुकार को अनसुना कर, “विकास” के नाम पर विनाश की कथा लिखते जा रहे हैं। आज जो हिमालय में आपदा ने घाव पैदा किये है उसके जिम्मेदार हम लोग है। इस बार भीषण बाढ़ के कारण हिमाचल में बांधो से छोड़े गए जल ने पंजाब में लोगों को डूबो दिया। जून में ही भाखड़ा नागल बांध सहित अन्य बांधो में भारी जल भराव हो गया था जिसके कारण भारी बारिश के चलते बांधों के गेट खोलने पड़े, जिसने पूरे पंजाब में तबाही मचा दी। ऐसे ही संपूर्ण हिमालय में अनियोजित विकास के कारण आज हिमालय भारी संकट में आ गया। उत्तराखंड में भी हिमाचल के जैसे बाढ़ से भीषण तबाही हुई है।आज नदियों की आजादी, हिमालय की हरियाली दोनों ही विपदा से गुजर रही है।
हाल ही में देहरादून के दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र में उत्तराखंड जल बिरादरी एवं जल-जन जोड़ो अभियान के द्वारा आयोजित एक राष्ट्रीय संवाद – “हिमालयी आपदाः गंगा और यमुना का विकास या विनाश” – ने इस कराह को शब्दों में बदल दिया। यह स्पष्ट हो गया कि हिमालय अब उस मोड़ पर पहुँच चुका है, जहाँ से वापसी कठिन है। हिमालय की आपदाएँ अब केवल प्राकृतिक घटनाएँ नहीं हैं; वे हमारी नीतियों, योजनाओं और अनियंत्रित गतिविधियों का परिणाम हैं। सड़क चौड़ीकरण, सुरंग आधारित जलविद्युत परियोजनाएँ, तीर्थ पर्यटन का अनियंत्रित प्रसार और नदियों में मलवा डालना — इन सभी ने इस संवेदनशील भूभाग को घाव दिए हैं।
भूगर्भीय दृष्टि से हिमालय अत्यंत युवा और अस्थिर पर्वतमाला है। खड़ी ढलानों पर विस्फोट, जेसीबी मशीनों से पहाड़ काटना और मलवा नदियों में डालना केवल मिट्टी ही नहीं, बल्कि हमारे भविष्य की नींव हिला रहा है। 2023, 2024 और 2025 की आपदाएँ इसका प्रमाण हैं। सैकड़ों गांव विस्थापित हुए, हजारों परिवार उजड़ गए और कई जलस्रोत स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त हुए।
इस साल जून में हिमाचल में भाखड़ा नागल और अन्य बांधों में भारी जल भराव के कारण गेट खोलने पड़े, जिससे पंजाब में बाढ़ की तबाही हुई। उत्तराखंड में भी इसी तरह की भीषण बाढ़ ने जीवन और कृषि को तबाह कर दिया। आज नदियों की आजादी और हिमालय की हरियाली दोनों ही विपदा से गुजर रही हैं।
नदियों के उद्गम क्षेत्रों — गंगोत्री, यमुनोत्री, मंदाकिनी और अलकनंदा — अब निर्माण कार्यों से भर चुके हैं। सुरंगों के ऊपर बसे गांवों के घरों में दरारें पड़ रही हैं, जलस्रोत सूख रहे हैं और भू-स्खलन की घटनाएँ आम हो गई हैं। ऋषिकेश–कर्णप्रयाग रेल परियोजना के विस्फोटों ने कई गांवों को “कृत्रिम भूकंप” का शिकार बना दिया। यह सब हमारे ही हाथों रचा गया दुर्दशा है।

गंगा और यमुना केवल नदियाँ नहीं, बल्कि जीवनदायिनी शक्ति और नैतिक प्रश्न बन चुकी हैं। गंगा, जिसे “जननी” कहा गया, आज औद्योगिक कचरे और मानव मल-मूत्र से प्रदूषित है। यमुना, जो दिल्ली में पहुँचते-पहुँचते केवल 10 प्रतिशत मूल जल ही है, बाकी 90 प्रतिशत जल का स्रोत विभिन्न मानव हस्तक्षेपों से प्रभावित है। हम नदियों को देवत्व देने के बावजूद उन्हें अपनी लापरवाही का शिकार बना रहे हैं।
इस संवाद में समाज के विविध क्षेत्रों से जुड़े प्रमुख व्यक्तित्वों ने भाग लिया। जलपुरुष राजेंद्र सिंह ने हिमालय और नदियों के पुनर्जीवन पर ठोस दृष्टिकोण रखा, जबकि पूर्व राज्य मंत्री रविंद्र जुगरान ने सुझाव दिया कि हिमालय विकास के लिए अलग मंत्रालय हो ताकि विकास कार्य प्रकृति और लोकहित के अनुरूप हों।
भूवैज्ञानिक प्रो॰ एस॰ पी॰ सती ने बताया कि अनियंत्रित बारिश, चौड़ी सड़कें, वनों की कटाई और आग के कारण मिट्टी कमजोर हो रही है। उत्तराखंड और हिमाचल की नदियों में लकड़ी और मलवा बाढ़ के समय प्रलय के साथ बहते हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता सुशील कुमार त्यागी, संजय राणा, और वसुधा पंत ने स्थानीय समुदायों की उपेक्षा को हिमालय नीति की सबसे बड़ी विफलता बताया, पद्मश्री और मैती आंदोलन के प्रणेता कल्याण सिंह रावत ने कहा कि हमने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की लोक परंपरा भुला दी है। पर्यावरणविद् प्रो॰ वीरेंद्र पैन्यूली ने पहाड़ों के असंतुलित विकास और ग्लेशियरों के तेज पिघलने पर चिंता व्यक्त की। इतिहासकार डा॰ योगेश धस्माना और पत्रकार विजेंद्र सिंह रावत ने इसे सभ्यता की स्मृति से जुड़ी त्रासदी बताया। स्वामी शिवानंद ने गंगा संरक्षण और संतुलित विकास की संवेदनशीलता पर जोर दिया, यह बताते हुए कि सनातनी गुरुओं की चेतावनियों और आंदोलन को सरकार ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। लोक कलाकार नंदलाल भारती और कुंदन सिंह चौहान ने लोक–सांस्कृतिक दृष्टि से नदियों के साथ मानव के रिश्ते को रेखांकित किया। संवाद के अंतिम चरण में कवि डा॰ अतुल शर्मा ने अपनी कविताओं “अब नदियों पर संकट है, सारे गाँव इकट्ठा हो” और “नदी तू बहती रहना” का पाठ किया — जो हिमालय की व्यथा का स्वर बनकर गूंज उठा।
हिमालय में विकास केवल मानक मैदानी परियोजनाओं के आधार पर नहीं हो सकता। सड़क सुधार और चौड़ीकरण से निकलने वाले मलवे को यमुना और भागीरथी में नहीं फेंकने, डंपिंग जोन बनाकर मलवा निस्तारित करने और उसके ऊपर पौधारोपण करने की आवश्यकता है। गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर झाला से भैरव घाटी के बीच बड़े हरे देवदार और अन्य वृक्षों का कटान रोका जाना चाहिए।
ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। नदियों, ग्लेशियरों और झीलों के आस-पास जैव विविधता का संरक्षण किया जाना चाहिए। बायोडिग्रेडेबल कचरे का वैज्ञानिक निस्तारण, और ग्लेशियरों के आसपास मानवीय हस्तक्षेप पर नियंत्रण अब अनिवार्य हो गया है। नदियों के किनारे और मुहानों पर बन रही बस्तियों, अनियंत्रित पर्यटन, बहु-मंजिली इमारतें और भारी मशीनों के प्रयोग से बचना अनिवार्य है।हिमालय के उच्च क्षेत्रों में बुग्यालों की मानवीय आवाजाही को नियंत्रित करने और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के आदेशों का पालन सुनिश्चित करने की भी आवश्यकता है।
उच्च हिमालय में चौड़ी पत्ती वाले वृक्ष कम हो रहे हैं और चीड़ ने उनकी जगह ले ली है, जिससे आपदा की संभावना बढ़ रही है। विभिन्न वृक्षारोपण योजनाएँ बिना प्रयोजन के की जा रही हैं। इस सन्दर्भ में भागीरथी इको सेंसेटिव जोन-2012 कीशर्तों के अनुसार, यमुना और गंगा के उद्गम में रहने वाले छोटे और सीमांत किसानों के जीवन और आजीविका को सुरक्षित रखने के लिए जलवायु अनुकूल कार्यक्रम होनी चाहिए ताकि छोटे और सीमांत किसानों की आजीविका सुरक्षित रहे।
तीर्थयात्रा और पर्यटन की बढ़ती संख्या ने पर्यावरण पर दबाव बढ़ा दिया है। यात्रियों को सरकारी परिवहन का उपयोग करना, हवाई उड़ानों को नियंत्रित करना, अपशिष्ट प्रबंधन और जल निकासी की सख्त निगरानी अब अनिवार्य हो गई है। मौसम विभाग की चेतावनियों को समय पर लागू करना और स्थानीय लोगों को सुरक्षित स्थानों पर निर्देशित करना भी संवाद में प्रमुख चिंता का विषय है।
हिमालय में ब्लैक कार्बन, विस्फोट और निर्माण गतिविधियों से बढ़ते खतरे को कम करने के लिए वाहन नियंत्रण, सरकारी परिवहन का प्रयोग, हवाई उड़ानों पर रोक और तीर्थ यात्रियों की संख्या को नियंत्रित करना होगा।
सुरंग आधारित जल विद्युत परियोजनाओं और रेल सुरंगों के ऊपर बसे गांवों के मकानों में दरारें पड़ रही हैं और जल स्रोत सूख रहे हैं। मौजूदा सड़क मार्गों को सुदृढ़ और पर्यावरण समावेशी बनाना और छोटी जल विद्युत परियोजनाओं को प्राथमिकता देना अब अनिवार्य है।
2025 की आपदा के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने हिमालयी राज्यों को जो आदेश दिए हैं उसका पालन करना राज्य और केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है। आदेशों का पालन करते हुए हिमाचल, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में आपदा प्रबंधन के लिए तकनीकी एवं वैज्ञानिक संस्थानों से अध्ययन करवाना और रिपोर्ट सार्वजनिक करना आवश्यक है। इसके तहत 12 महत्वपूर्ण सुझाव शामिल हैं:
- यमुना–भागीरथी में मलवा न डालना और डंपिंग जोन बनाकर पौधारोपण करना।
- गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर देवदार और अन्य वृक्षों की कटाई रोकना।
- भागीरथी इको सेंसेटिव जोन-2012 लागू करना।
- नदियों और ग्लेशियरों के आसपास जैव विविधता संरक्षण।
- उद्गम से 150 किमी तक बड़े निर्माण न होने दें।
- पर्यटक और तीर्थ यात्रियों की संख्या नियंत्रित करना।
- वाहनों और हवाई उड़ानों पर नियंत्रण।
- बस्तियों के निर्माण और सुरंग परियोजनाओं को सीमित करना।
- मौजूदा सड़क मार्गों का पर्यावरण समावेशी निर्माण।
- उच्च हिमालयी बुग्यालों में मानवीय आवाजाही पर नियंत्रण।
- मौसम चेतावनी और तकनीकी अध्ययन का पालन।
- मृतकों के आश्रितों और कृषि भूमि क्षति के मुआवजे की व्यवस्था।
हिमालय के लिए अब पृथक विकास मॉडल अनिवार्य है — एक ऐसी “हिमालय नीति” जो भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भों पर आधारित हो। इसमें नदियों के उद्गम से डेढ़ सौ किलोमीटर क्षेत्र में बड़े निर्माण पर रोक, सड़क चौड़ाई की सीमा, तीर्थयात्रियों की संख्या का नियंत्रण, प्लास्टिक और अपशिष्ट प्रबंधन की सख्त व्यवस्था, और बुग्यालों में मानवीय हस्तक्षेप पर नियंत्रण शामिल होना चाहिए।
मुआवज़े और पुनर्वास की नीति भी सुधार की मांग करती है। मृतकों के आश्रितों को न्यूनतम दस लाख रुपये का मुआवज़ा दिया जाना चाहिए। कृषि योग्य भूमि के नुकसान का उचित मुआवज़ा प्रति हेक्टेयर निर्धारित करके दिया जाए। विस्थापितों को वैकल्पिक खेती योग्य भूमि उपलब्ध कराई जाए।
हिमालय की नदियों में बहता जल चेतावनी बन चुका है। यह चेतावनी कहती है — यदि हमने अभी नहीं संभला, तो अगली आपदा केवल घाटियों को नहीं, हमारी सभ्यता की आत्मा को भी बहा देगी। गंगा और यमुना अब भी बह रही हैं, पर उनका प्रश्न हमारे अस्तित्व का प्रश्न बन चुका है।
हिमालय की रक्षा, नदियों की सुरक्षा और स्थानीय समुदायों की आजीविका अब केवल सरकारी जिम्मेदारी नहीं रह गई है। जनता की भागीदारी, विशेषज्ञों की सलाह, वैज्ञानिक अध्ययन और समाज के हर स्तर की जागरूकता ही इस संकट से निपटने का मार्ग है। यही हिमालय को बचाने और हमारे भविष्य को सुरक्षित रखने का रास्ता है। इस सभी चर्चा का उद्देश्य एक सशक्त जन आयोग बनाने का सुझाव भी था, जिसमें पर्यावरणविद्, वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता और आम नागरिक सम्मिलित हों। यह आयोग समय-समय पर प्रभावित क्षेत्रों का भ्रमण कर रिपोर्ट तैयार करेगा और हिमालय और नदियों के संरक्षण के लिए मुखर आवाज़ सरकार और समाज तक पहुँचाएगा।
