बर्फ का अंत, धरती की आहें बाकी
जरा कल्पना करें, एक ऐसी दुनिया जहां नदियां सूख चुकी हों, खेत बंजर हो गए हों, और पानी की एक-एक बूंद के लिए लोग तरस रहे हों। यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं, बल्कि वह सच है जो हमारे ग्लेशियरों की चीखें सुना रही हैं। ये बर्फीले पहाड़, जो सदियों से धरती की सांसों को ठंडक देते आए हैं, अब तेजी से पिघल रहे हैं, खोखले हो रहे हैं, और कुछ तो पूरी तरह गायब हो चुके हैं। जलवायु परिवर्तन की प्रचंड आंधी इन्हें निगल रही है, और इसके साथ ही हमारी नदियों, खेतों, और जीवन की रगों में बहने वाला पानी खतरे में पड़ गया है।
वैज्ञानिकों की मानें तो साल 2000 से 2023 तक ग्लेशियरों ने 6.5 लाख करोड़ टन बर्फ खो दी है। यह आंकड़ा सिर्फ ठंडे नंबर नहीं, बल्कि एक भयावह चेतावनी है। वेनेजुएला वह पहला देश बन चुका है, जिसने जलवायु परिवर्तन की मार झेलते हुए अपने सारे ग्लेशियर खो दिए। पश्चिमी अमेरिका में 20वीं सदी के मध्य से 400 से ज्यादा ग्लेशियर लुप्त हो चुके हैं। चाहे अंटार्कटिका हो, आर्कटिक हो, ग्रीनलैंड हो, आल्प्स हो, रॉकीज हो, आइसलैंड हो, हिंदूकुश हो, स्विट्जरलैंड हो, या ब्रिटेन, हर जगह बर्फ की चादर सिकुड़ रही है। साल 2010 से पहले आर्कटिक और अंटार्कटिका में बिछी बर्फ की चादर में अब लाखों वर्ग किलोमीटर की कमी आ चुकी है। आर्कटिक में अब केवल 143 लाख वर्ग किलोमीटर बर्फ बची है। अंटार्कटिका का सबसे बड़ा हिमखंड A23, जो 3672 वर्ग किलोमीटर में फैला है, महासागरों की गर्म धाराओं में बहकर दक्षिण जॉर्जिया की ओर बढ़ रहा है। महीनों तक उत्तरी महासागर में फंसे रहने के बाद यह अब टूटकर पिघल रहा है। वैज्ञानिक कहते हैं कि यह जलवायु परिवर्तन का नतीजा है, जो समुद्र के जलस्तर को बढ़ाने का खतरा पैदा कर रहा है।
ग्रीनलैंड की कहानी तो और दिल दहला देने वाली है। पिछले 13 सालों में वहां 2,347 क्यूबिक किलोमीटर बर्फ गायब हो चुकी है—इतनी कि अफ्रीका की सबसे बड़ी झील विक्टोरिया को भर दे। इस पिघलन ने न सिर्फ समुद्र के जलस्तर को बढ़ाया, बल्कि मौसम के पैटर्न को भी बदल दिया। इसका असर दुनिया भर के पारिस्थितिकी तंत्र और समुदायों पर पड़ रहा है—बाढ़, भूस्खलन, और हिमस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ गया है। स्विट्जरलैंड के मशहूर रोन ग्लेशियर सहित आल्प्स पर्वत श्रृंखला के कई ग्लेशियरों के नीचे अब अजीबोगरीब सुरंगें और गड्ढे बन रहे हैं। ज्यूरिख के ईटीएच इंस्टीट्यूट के प्रोफेसर मैथिलस हुस, जो ग्लेशियर मॉनिटरिंग ग्रुप ग्लैमास के प्रमुख हैं, बताते हैं कि पहले छोटे-छोटे छेद बनते हैं, फिर वे विशाल गुफाओं में बदल जाते हैं। यह सिर्फ पिघलन नहीं, ग्लेशियरों का भीतर से खोखला होना है। हिंदूकुश में तो हालत और चिंताजनक है। नवंबर से मार्च तक बर्फबारी में 23.6 फीसदी की रिकॉर्ड गिरावट दर्ज हुई है, जो पिछले 23 सालों में सबसे कम है। नतीजा? पूरे दक्षिण एशिया में पानी का संकट गहराने लगा है।
हिमालय की बात करें तो वहां की हालत किसी त्रासदी से कम नहीं। मध्य हिमालय में एक ग्लेशियर तेजी से खिसक रहा है, जिसका उद्गम भारत में है और निकास तिब्बत की ओर। यह बाढ़ का खतरा लेकर आ रहा है, जो तिब्बत से धौलीगंगा तक तबाही मचा सकता है। वैज्ञानिक इसे ग्लोबल वार्मिंग, तापीय प्रभाव, और इलाके की भौगोलिक बनावट से जोड़ते हैं। पहले ऐसी घटनाएं अलास्का, कराकोरम, या नेपाल तक सीमित थीं, लेकिन अब हिमालय भी इसकी चपेट में है। हिमालय के 37,465 वर्ग किलोमीटर में फैले 9,575 ग्लेशियर, जो एशिया की ‘जल मीनार’ और दुनिया का तीसरा ध्रुव कहलाते हैं, तेजी से सिकुड़ रहे हैं। ये ग्लेशियर सिंधु, गंगा, और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों को पोषित करते हैं, जो 160 करोड़ लोगों की प्यास बुझाते हैं। लेकिन कश्मीर के कोलाहोई और तेजवान ग्लेशियर 2.5 किलोमीटर से ज्यादा सिकुड़ चुके हैं। इससे छोटी-छोटी झीलें बन रही हैं, जो हिमस्खलन की स्थिति में फट सकती हैं। इसरो की रिपोर्ट के मुताबिक, हिमालय की 2,432 ग्लेशियर झीलों में से 676 तेजी से बढ़ रही हैं, और भारत में मौजूद 130 झीलों के टूटने का खतरा बढ़ता जा रहा है। यह उत्तराखंड जैसे मध्य हिमालयी राज्यों के लिए खतरे की घंटी है।
ये ग्लेशियर सिर्फ बर्फ के ढेर नहीं, बल्कि जीवन के आधार हैं। सूखे के मौसम में ये नदियों को पानी देते हैं, लेकिन बर्फबारी में 23.6 फीसदी की कमी ने भारत और पड़ोसी देशों के दो अरब लोगों की जलापूर्ति को खतरे में डाल दिया है। नदियों का जलस्तर गिर रहा है, और खेती से लेकर जलीय और स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र तक सब कुछ प्रभावित हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय एकीकृत पर्वतीय विकास केंद्र की मानें तो कार्बन उत्सर्जन इस संकट की जड़ है। इसके लिए तत्काल विज्ञान आधारित नीतियों और सीमापार जल प्रबंधन की जरूरत है। यूनेस्को ने भी चेतावनी दी है कि अगर ग्लेशियरों की पिघलन की यह रफ्तार जारी रही, तो परिणाम अभूतपूर्व और विनाशकारी होंगे।
जलवायु कार्यकर्ता सोनम वांगचुक की आवाज इस सन्नाटे में गूंज रही है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपील की है कि ग्लेशियरों को बचाने के लिए तुरंत कदम उठाए जाएं। वे कहते हैं, “हमारी बारहमासी नदियों का स्रोत ये ग्लेशियर हैं। आर्कटिक और अंटार्कटिका के बाद हिमालय धरती का तीसरा सबसे बड़ा बर्फ का भंडार है। अगर इसे नहीं बचाया गया, तो 144 साल बाद शायद हमें रेत पर महाकुंभ मनाना पड़े।” यह सिर्फ एक चेतावनी नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता के सामने खड़ा एक सवाल है।
ग्लेशियरों की यह चीख सिर्फ बर्फ की नहीं, बल्कि हमारी धरती, हमारी नदियों, और हमारे भविष्य की पुकार है। अगर हमने इसे अनसुना किया, तो आने वाली पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करेंगी। कार्बन उत्सर्जन को कम करने, क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ाने, और जल प्रबंधन को मजबूत करने का वक्त अभी है। क्या हम अपनी धरती की इस मूक पुकार को सुन पाएंगे, या फिर बर्फ के साथ हमारा भविष्य भी पिघल जाएगा?
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरण प्रेमी हैं।

