जुलाई की बारिश शुरू होते ही देश में जैसे हरियाली का जश्न छा जाता है और गांव, शहर, स्कूल, खेत—हर जगह लोग पौधे रोपने में जुट जाते हैं। करोड़ों पौधों के साथ नए सपने बोए जाते हैं। यह नजारा ऐसा है, मानो धरती मां के चेहरे पर मुस्कान लाने की कोशिश हो रही हो। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये पौधे सिर्फ मिट्टी में रोपे जाते हैं, या हमारे दिलों में भी? सुप्रीम कोर्ट ने तो साफ-साफ कह दिया है कि संविधान का अनुच्छेद 51ए हर नागरिक को पेड़ों की रक्षा का जिम्मा देता है। कोर्ट ने अधिकारियों को भी हिदायत दी है कि पेड़ों को बचाना उनका पहला फर्ज है।
पेड़ लगाना आसान है, लेकिन उन्हें पालना? वो एक मां की तरह धैर्य और प्यार मांगता है। जुलाई में पेड़ लगाने की होड़ इसलिए मचती है क्योंकि यह महीना भारत में मानसून का समय होता है। देश में हर साल जुलाई माह की शुरुआत से वृहद स्तर पर वृक्षारोपण किया जाता है। हरेक राज्य इस अभियान में करोड़ों वृक्ष लगाने का कीर्तिमान स्थापित करने का प्रयास करता है।बारिश का मौसम पौधों के लिए सबसे मुफीद है—मिट्टी नम रहती है, पानी की कमी नहीं होती, और पौधों की जड़ें आसानी से जमीन पकड़ लेती हैं। सरकार और सामाजिक संगठन इस मौके को भुनाते हैं, क्योंकि मानसून में पौधों के जीवित रहने की संभावना सबसे ज्यादा होती है। साथ ही, जुलाई में पर्यावरण दिवस और वन महोत्सव जैसे आयोजन भी वृक्षारोपण को बढ़ावा देते हैं, जिससे पूरे देश में हरे-भरे अभियान की लहर दौड़ पड़ती है।हम अक्सर देखते हैं—पौधे लगाए जाते हैं, तस्वीरें खींची जाती हैं, सोशल मीडिया पर तारीफें बटोरी जाती हैं, और फिर? फिर वो नन्हे पौधे प्यासे रह जाते हैं, धूप में झुलस जाते हैं, और चुपके से मुरझा जाते हैं। सरकार का वृक्षारोपण अभियान तारीफ के काबिल है, लेकिन यह तभी रंग लाएगा जब हर पौधे को कोई अपना कहने वाला मिले। जरूरत है इसे जनांदोलन बनाने की। उस बच्चे को शामिल करो जो स्कूल में पेड़ की छांव में खेलता है, उस किसान को जो पेड़ों से अपनी फसल को सहारा देता है, उस बुजुर्ग को जो पेड़ की ठंडक में अपनी कहानियां सुनाता है। अगर हर पौधे की जिम्मेदारी किसी के कंधों पर होगी, तो शायद हमारी धरती फिर से हरी साड़ी पहन लेगी।
पेड़ सिर्फ लकड़ी या छाया नहीं देते। वे हमारी सांसों का आधार हैं। वे गर्मी की तपिश में ठंडक देते हैं, पक्षियों को घर, फसलों को ताकत, और हवा को साफ करने का जिम्मा उठाते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि पेड़ हर साल वैश्विक अर्थव्यवस्था में 1300 अरब डॉलर का योगदान देते हैं। फिर भी, हम हर मिनट 10 फुटबॉल मैदानों जितना जंगल काट डालते हैं। हर साल जर्मनी, आइसलैंड, या स्वीडन जैसे देशों के बराबर जंगल गायब हो रहे हैं। पर्यावरणविद् चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि अब हमारे पास वक्त बस थोड़ा सा बचा है। पुरानी हरियाली लौटाने की उम्मीद अब सिर्फ 5 फीसदी रह गई है। यह संकट सिर्फ जंगलों का नहीं—हमारी संस्कृति, हमारी सेहत, और हमारे बच्चों के भविष्य का है।
सुप्रीम कोर्ट ने तो पेड़ काटने को इंसान की हत्या से भी बड़ा गुनाह बताया। पिछले साल राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण और इस साल ताजमहल के पास 454 पेड़ काटने के मामले में कोर्ट ने सख्ती दिखाई। उसने कहा कि सरकारें पेड़ों की मां हैं, उनकी रक्षा करना उनका फर्ज है। यह सुनकर मन में सवाल उठता है—हम पेड़ों के साथ ऐसा सौतेला व्यवहार क्यों करते हैं?
2004 की नोबेल विजेता वंगारी मथाई की बात आज भी गूंजती है। उन्होंने कहा था, “जल, जंगल, और जमीन एक-दूसरे की जान हैं।” बिना इनके प्रबंधन के न शांति बचेगी, न सभ्यता। उनका संदेश साफ था—एक पेड़ लगाओ, क्योंकि यह पेड़ नहीं, जिंदगी का बीज है।
आज प्रदूषण हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है। गाड़ियों का धुआं, फैक्ट्रियों की चिमनियां, उर्वरकों की मार, और सुख-सुविधाओं की अंधी दौड़ ने हमारी हवा को बीमार कर दिया है। लेकिन एक सच यह भी है कि हम पर्यावरण के सच्चे दोस्त—नीम, पीपल, बरगद, जामुन, शीशम, अमलतास, बुरांस, चिनार—को भूल गए हैं। इनके बजाय सस्ते और तेजी से बढ़ने वाले पौधों को लगाया जा रहा है। क्यों न हम खैर, कचनार, सिल्क कॉटन ट्री, या हिमालय केदार जैसे पेड़ों को गले लगाएं? ये पेड़ न सिर्फ हवा को शुद्ध करते हैं, बल्कि हमारी धरती को जिंदादिल बनाते हैं।
आइए, इस बार पेड़ लगाने की रस्म को जिंदगी का उत्सव बनाएं। हर पौधे को पानी दो, उसे प्यार दो, और उसे बड़ा होने का मौका दो। क्योंकि जब ये पेड़ लहलहाएंगे, तभी हमारी धरती की सांसें लौटेंगी। पेड़ों की इस सिसकी को सुनो, क्योंकि ये सिर्फ पेड़ नहीं, हमारी जिंदगी की धड़कन हैं।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरण प्रेमी हैं।

