शंकर के गायन से, विष्णु पर पिघलकर बूंद बनी। ब्रह्मा ने उस बूंद को कमंडल में समेट कर कहा कि आप गंगा हो। आप मेरे कमंडल में आयी, इसलिए आपके भीतर ब्रह्म सर्जन की क्षमता हो गई। आपके अंदर विष्णु के पालन की और शिव के संहार की क्षमताएँ हैं। इसलिए आप इस ब्रह्मांड की ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं।
मां गंगा की स्मृतिछाया में सिर्फ लहलहाते खेत, माल से लदे जहाज ही नहीं बल्कि वाल्मीकि का काव्य, बुद्ध- महावीर के विहार, अशोक, अकबर व हर्ष जैसे सम्राटों के पराक्रम तथा तुलसी, कबीर और गुरुनानक की गुरुवाणी सब एक साथ जीवंत हो उठते हैं। जाहिर है कि गंगा किसी एक जाति, धर्म या वर्ग की नहीं, बल्कि पूरे भारत की अस्मिता और गौरव की पहचान है।
इतिहास गवाह है कि जिस देश संस्कृति और सभ्यता ने अपनी अस्मिता के प्रतीकों को याद नहीं रखा, वह देश मिट गया, उसकी संस्कृति और सभ्यताएँ मिट गई। क्या भारत इतने बड़े आघात के लिए तैयार है? यदि नहीं तो क्या करें?
ऐसा नहीं है कि बिगाड़ के इस पूरे दौर में गंगा को बचाने के प्रयास नहीं हुए। 1913 में भागीरथी को बचाने हेतु पंडित मदन मोहन मालवीय ने एक आंदोलन शुरू किया था। मालवीय जी हरिद्वार के घाटों पर स्नानार्थियों के लिए पर्याप्त जल की आपूर्ति सुनिश्चित कराना चाहते थे। वह इस बात को लेकर भी चिंतित थे कि हरिद्वार के घाटों को जल आपूर्ति करने वाली धारा को यदि नहर के नाम से पुकारा गया, तो गंगा के प्रति श्रद्धा भाव रखने वालों की प्रतिक्रिया विपरीत हो सकती है।
मालवीय जी की दृष्टि गंगा के प्रति लोगों की आस्था और उसके विज्ञान को ठीक से समझती थी। इसीलिए उनका आंदोलन परवान भी चढ़ा और अंग्रेजी हुकूमत गंगा संरक्षण समझौता करने को मजबूर भी हुई। यह मालवीय जी की दूरदृष्टि का आभास और भारत के लिए गंगा का महत्त्व ही है, जिसने कभी पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसे धार्मिक मान्यताओं विश्वासों और धारणाओं से ग्रस्त व्यक्ति को भी उस सत्याग्रह में शामिल होने के लिए मजबूर किया, जिसे गंगा की पवित्रता और श्रद्धालु स्नानार्थियो की भावना की दृष्टि से पंडित मदनमोहन मालवीय ने आहूत किया था।
1914 में सत्याग्रह के दौरान सुरक्षा की दृष्टि से कुंभ मेले में संगम पर स्नान करने को लेकर पुलिस ने प्रतिबंध लगा दिया था। उस दिन जब पहरा सख्त था, मालवीय जी जैसा वृद्ध व्यक्ति अचानक भीड़ में घुस गया और प्रतिबंध तोड़कर स्नान के लिए गंगा में कूद पड़ा। नेहरू अचंभित हुए। तब पंडित नेहरू ने भी उस दिन गंगा में स्नान किया और राष्ट्रीय ध्वज फहराया इतना ही नहीं, नेहरू जी ने बाकायदा इस घटना का अपनी लेखनी से उल्लेख भी किया। सोचिए वह कैसा अद्भुत् दृश्य रहा होगा, जब धार्मिक और राजनीतिक दृष्टि से एकदम भिन्न दो शिखर पुरुष भारत का तिरंगा थामे गंगा की धारा में खड़े होंगे!
अपनी पार्टी, अपने वाद, अपने धर्म, अपनी जाति एवं अपने वर्ग को छोड़कर गंगा को इसका गौरव लौटाने के लिए एकजुट होने का यह महान विचार आज कहाँ दिखाई देता है? कहीं नहीं। इसीलिए कालांतर में हमने विकास के नाम पर कई सीढ़ियाँ चढ़ी, कई सपनों को सच किया, राजनीतिक दलों और नेताओं ने भी कई पद और कई सत्ताएँ हासिल की… लेकिन भारत आज तक अपने पुराने गौरव को हासिल नहीं कर सका है, जिसके कारण कभी भारत दुनिया का आध्यात्मिक गुरु कहा गया था। जब सभी को सिर्फ अपने झंडे डन्डे की चिंता हो तो राष्ट्र के ध्वज की चिंता कौन करेगा? नदियों को उनका खोया गौरव कौन लौटाएगा?
1985-86 में एक और कोशिश हुई। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने गंगा में प्रदूषण निवारण के लक्ष्य के साथ वाराणसी में गंगा कार्य योजना का शुभारंभ किया था। उन्होंने उम्मीद जाहिर की थी कि गंगा कार्य योजना की कार्य योजना महज पी. डब्ल्यू डी. की कार्य योजना न होकर जन-जन की कार्य योजना बनेगी, लेकिन गंगा कार्य योजना के भावी कर्णधारों ने ऐसा नहीं होने दिया। गंगा कार्य योजना सिर्फ कुछ शहरों को प्रदूषण की दृष्टि से चिह्नित करने, कुछ ढांचे बनाने, बजट बढ़ाने और प्रदूषण बढ़ाने वाली ही साबित हुई। इसमें जनभागीदारी कभी नहीं हो सकी। कारण की जनता ने कभी गंगा कार्य योजना को अपना माना ही नहीं। माने भी कैसे? जिस गंगा को समाज अपना मानता था, उसे तो अंग्रेजी शासन ने ही समाज से छीनकर नहर और बांध निर्माण के इंजीनियरों ठेकेदारों को सौंप दिया था। आजाद भारत की सरकारों ने भी इसी बोध को आगे बढ़ाया।
स्पष्ट है कि जब तक गंगा राज-समाज और संत, तीनों की बनी रही, तब तक गंगा, गंगा थी। बाद में हर कोशिश बेकार हुई। गंगा को यदि सचमुच पुनर्जीवित करना है, तो उसे पुनः समाज के हाथों में सौंपना ही होगा। राज समाज और संत… तीनों को मिलकर गंगा के संरक्षण में अपने दायित्व की तलाश व उसके निर्वाह के लिए व्यवस्था और नीति बनानी होगी। कुंभ के मूल अभिप्राय सिद्धांतों की ओर वापस लौटे बगैर यह हासिल होने वाला नहीं। यह एक पक्के संकल्प के साथ ही संभव है। विकल्प तलाशने वाले गंगा की रक्षा नहीं कर सकते।
एक बड़ी आवाज प्रो जी. डी. अग्रवाल ने उठाई ।उन्होंने 2007 में उत्तरकाशी से यह काम शुरू किया और 2018 में हरिद्वार में 111 दिन आमरण अनशन करते हुए प्राणों का बलिदान कर दिया। सरकार ने अपनी पुलिस बल के द्वारा जबरदस्ती उठवाया। लेकिन उत्तराखंड के उच्च न्यायालय ने उन्हें फटकार लगाते हुए मुख्य सचिव को कहा अगले 12 घंटे में समस्या का समाधान निकालने को कहा था। उत्तराखंड सरकार ने उच्च न्यायालय की अवमानना करके समाधान नहीं निकाला था।
गंगा एक विलक्षण प्रदूषण नाशिनी शक्ति वाली हमारी मां गंगा है। इसकी अभी तक हुई शोध 1974-75 में आईआईटी कानपुर के काशी प्रसाद ने पाया की कानपुर से लगभग 20 किलोमीटर ऊपर बिठूर से लिए गंगाजल में कोलीफार्म नष्ट करने की सड़न विरोधी विलक्षण शक्ति, कानपुर की जलापूर्ति में आधी रह जाती है। उनका निष्कर्ष था कि यह गंगा जल में निलंबित सूक्ष्म कणों के कारण हैं।
1975-77 में आई. आई. टी. कानपुर के डॉक्टर डी एस भार्गव ने अपनी पीएचडी में पाया कि गंगाजल हरिद्वार में जैविक प्रदूषण को (बीओडी) को नष्ट कर देता है। वीओडी 6 का रेट कंटेंट सामान्य से 15 से 16 गुना अधिक था। यह हिमालय की वनस्पतियों से आए एक्स्ट्रा तत्त्वों के कारण था, पर तब गंगा नदी पर बांध नहीं बंधे थे। वर्ष 2008-10 के नीरी नागपुर (सीएसआईआर) के शोध कार्यों में पाया गया कि भागीरथी के जल में धातुओं का एक विशिष्ट मिश्रण है जो संसार में अभी तक कहीं नहीं पाया जाता।
टिहरी बांध के ऊपर गंगाजल में विशेष कोलाईटिस नाशक क्षमता थी। यह सब तत्व गाद के साथ बांध के पीछे बैठ गए और नीचे कॉलिफोर्म नाशक क्षमता शून्य बन गई। इसी प्रकार 2016-17 के आई एम बी टी चंडीगढ़ सीएसआईआर के शोध में डीएनए विश्लेषण से उस गाँव में विश्व के अनुपम तत्त्व पाए, जो बीसियों रोगों के रोगाणुओं को नष्ट कराने में सक्षम हैं। 18 रोगाणु प्रजातियां जिनमे टी.वी, हैजा, टाइफाइड व पेट की बहुत सी बीमारियां शामिल हैं, जो उन्होंने नाम ले कर गिनाई हैं, क्या फिर भी हम गंगा जी या गंगाजल को सामान्य नदियों के जल की तरह देखने के अधिकारी हैं?
गंगाजल दुनिया की सभी नदियों से उत्तम जल है, इसे विशिष्ट तरह से प्रबंधन करने की जरूरत है। इसीलिए गंगा के लिए एक विशिष्ट कानून की आवश्यकता है। हमें प्रोफेसर जी. डी. अग्रवाल की मांगों के अनुसार गंगा संरक्षण प्रबंधन कानून बनाएँ तथा कांग्रेस की पूर्व ने जिस प्रकार भागीरथी पर आधे से अधिक निर्मित लुहारी नागपाला, पलामनेरी तथा भैरो घाटी का निर्माण रोक कर हमेशा के लिए रद्द कर दिया था, गंगा की अन्य धाराओं पर प्रस्तावित 250 बांधों पर रोक लगा दी थी, गंगोत्री से लेकर उत्तरकाशी तक भागीरथी नदी को पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र घोषित करके भागीरथी की अविरलता निर्मलता सुनिश्चित की थी, वर्तमान सरकार उसी प्रकार मंदाकिनी, अलकनंदा, पिंडर नदी आदि गंगा की उपधाराओं पर बन रहे बांधों को रद्द कर दें। नए प्रस्तावित बांधों को बनने से रोक दे। गंगा के जल ग्रहण क्षेत्र को पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र घोषित कराके गंगा भक्त परिषद गंगा जी और केवल गंगा जी के हित में काम करने की शपथ गंगा जी में खड़े होकर ले। ऐसे गंगा भक्तों की गंगा परिषद का गठन करें। प्रस्तावित अधिनियम ड्राफ्ट 2012 पर तुरंत संसद द्वारा चर्चा कराकर पास कराए।
मां गंगा को राष्ट्रीय प्रतीक घोषित किए हुए 15 वर्ष हो गए लेकिन उसका राष्ट्रीय स्वरूप बनाने हेतु अभी तक जो काम करना चाहिए था, वह सरकारों ने नहीं किया। गंगा जी को राष्ट्रीय नदी घोषित करने के साथ-साथ उसको राष्ट्रीय संरक्षण व प्रबंधन हेतु कानून बनाने की जरूरत है जिससे स्वामी सानंद जी की आत्मा को शांति मिलेगी। उन्होंने चाहा था कि गंगा में कोई नया बांध नहीं बने, खनन रूके, क्योंकि उनके अध्ययन के अनुसार हिमालय की हरियाली और गंगा की पवित्रता हेतु अविरलता व निर्मलता जरूरी है। गंगा जी को राष्ट्रीय नदी घोषित होने के साथ-साथ उसको राष्ट्रीय संरक्षण व प्रबंधन हेतु गंगा भक्त परिषद् एवं कानून बनाने की जरूरत है जिससे भविष्य में गंगा पर कोई नया बांध न बने और खनन रूके। बस यही चाह सांनद स्वामी (प्रो. जी.डी. अग्रवाल) की पूरी नहीं होने पर उन्होनें अपनी मां गंगा के लिए 11 अक्टूबर 2018 को प्राण न्योछावर कर दिये थे।आज 16 जून 2024, गंगा अवतरण दिवस यानि गंगा दशहरा के अवसर हम सानंद स्वामी को भी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
*जल पुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक