प्रकृति और गांधी: समाधान का रास्ता
महात्मा गांधी ने ग्लोबल वार्मिंग के कारणों और समाधानों की ओर बहुत पहले संकेत दिया था। उनका जीवन पर्यावरण संतुलन, संयम और सादगी का जीवंत उदाहरण था। ग्लोबल वार्मिंग कोई स्थानीय समस्या नहीं, बल्कि एक वैश्विक संकट है। गांधी ने स्थानीय समाधानों पर जोर दिया, यानी हमारी जीवनशैली, परंपराएं और संस्कृति में ही इस संकट का हल छिपा है। आज हम भोगवादी और लालची हो गए हैं। संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, प्रकृति का शोषण और उपभोग की मानसिकता ने हमें इस मुकाम पर ला खड़ा किया, जहां प्रकृति अब अपना गुस्सा दिखा रही है। प्रकृति और संस्कृति का गहरा रिश्ता टूट गया है। इस टूटन ने मौसम को असंतुलित किया, धरती का तापमान बढ़ाया और प्राकृतिक आपदाओं को और तीव्र कर दिया। धरती को अब बुखार है, मौसम का मिजाज बदल गया है—यही ग्लोबल वार्मिंग है।
इस संकट से उबरने के लिए हमें ‘शिक्षा’ और ‘विद्या’ का अंतर समझना होगा। शिक्षा आज सिर्फ जानकारी देती है, लेकिन विद्या जीवन का दृष्टिकोण बनाती है। गांधीजी मानते थे कि सच्ची विद्या प्रकृति, समाज और जीवन के साथ तालमेल बिठाती है। आज की तकनीकी और आर्थिक दौड़ में हम नैतिक और पर्यावरणीय मूल्यों को भूल रहे हैं। गांधीजी की चेतावनी को समझना और अपनाना अब जरूरी है।
मैंने 52 साल पहले बापू की चेतावनी को गहराई से नहीं समझा था। उनकी आत्मकथा और 18 रचनात्मक कार्यों ने मेरे मन में उनके विचारों के बीज बोए। जब मुझे उनके रास्ते पर काम करने का मौका मिला, मैंने वही किया। गांधीजी कहते थे, जिनके साथ काम करना, उनके साथ निर्णय लो और समाज के लिए मिलकर काम करो। उनकी सीख ने मुझे रास्ता दिखाया। मांगू काका की प्रेरणा ने मुझे जल संरक्षण के लिए तैयार किया। स्थानीय देशज विद्या से सीखकर मैंने यह काम शुरू किया। तरुण भारत संघ ने जहां-जहां काम किया, वहां पर्यावरण संकट मिटा। धरती का बुखार उतरा, मौसम का मिजाज सुधरा और जलवायु परिवर्तन का असर कम हुआ। गांधीजी की चेतावनी ने हमें धरती की गर्मी को ठीक करने का रास्ता दिखाया। यही कारण है कि गांधी आज हमारे लिए एकमात्र मार्ग हैं, जो प्रकृति के प्रेम से वैश्विक समस्याओं का समाधान सिखाते हैं।
1909 में लिखे ‘हिंद स्वराज’ में गांधीजी ने चेताया था कि भोगवादी और लालची सभ्यता मानव जीवन और प्रकृति को संकट में डालेगी। उनका विरोध मशीनों से नहीं, बल्कि ऐसी मशीनों से था, जो इंसान पर हावी हों। वे ऐसी तकनीक के पक्षधर थे, जो इंसान के नियंत्रण में रहे और उसकी मदद करे। उदाहरण के लिए, गांधीजी घड़ी, चश्मा, टाइपराइटर और चरखा जैसी मशीनों का उपयोग करते थे। वे ऐसी तकनीक चाहते थे, जो इंसानियत के साथ तालमेल बनाए। मैंने 1974-75 में ‘हिंद स्वराज’ को कई बार पढ़ा और समझा कि गांधीजी का विरोध प्रकृति-विरोधी, भोगवादी विकास से था, न कि तकनीकी प्रगति से। उनकी प्रेरणा से मैंने जल और प्रकृति संरक्षण का काम शुरू किया। तरुण भारत संघ ने इस विचारधारा को अपनाकर जलवायु अनुकूलन और उन्मूलन के कार्य किए। इससे भूमि पर हरियाली बढ़ी, जल स्रोत पुनर्जनन हुए और जीवन समृद्ध हुआ।
जिन जगहों पर गांधीजी की चेतावनियों को समझा गया, वहां लोग आज भी प्रकृति के साथ संतुलित जीवन जी रहे हैं। यही गांधीजी का विधान था, जो हमें भविष्य की आपदाओं से बचा सकता है। प्रकृति से प्रेम करने पर ही उसे बचाने का विश्वास जागेगा। आज यह विश्वास कमजोर पड़ गया है। गांधीजी ने पेड़ लगाने, मिट्टी के संरक्षण, छोटे तालाब और जोहड़ बनाने जैसे कार्यों को प्रकृति संरक्षण का आधार बताया।
हमने तरुण भारत संघ के अंतर्गत गोपालपुरा में जल संरक्षण शुरू किया, लेकिन खदानों के कारण आसपास के गांवों में जलस्तर नहीं बढ़ा। गांव वालों ने खदानें बंद करने की मांग की। मैंने सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा लड़ा और सरिस्का की 470 खदानें बंद कराईं। अरावली की पहाड़ियों में भी खनन रोकने का अभियान चलाया। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से दिल्ली से हिम्मतनगर तक 28,000 खदानें बंद हुईं। इन खदानों में 12.5 लाख लोग काम करते थे, जो बेरोजगार हो गए। उन्हें जल संरक्षण से जोड़ने के लिए ‘जल बचाओ, जीवन बचाओ, पेड़ लगाओ, तालाब बनाओ’ जैसी यात्राएं की गईं। हिम्मतनगर से दिल्ली तक एक बड़ी यात्रा हुई। इन प्रयासों से बेरोजगार लोग जल संरक्षण से जुड़े और ‘पानीदार’ बने। मिसाल के तौर पर, रामेश्वर, एक पूर्व खदान मजदूर, ने अपने गांव में जोहड़ बनाया। आज उसका गांव हरा-भरा है, और वह दूसरों को जल संरक्षण सिखाता है।
पिछले 50 वर्षों में तरुण भारत संघ ने हरियाली, जल संरक्षण और सामुदायिक समृद्धि के नए रास्ते खोले। यह सिर्फ पर्यावरण या जल संरक्षण का काम नहीं, बल्कि मानवता और प्रकृति के बीच संतुलन का प्रतीक है। गांधीजी ने इसे बहुत पहले समझ लिया था। उनकी सीख आज भी हमें रास्ता दिखाती है। यह काम न केवल धरती को बचाता है, बल्कि उन लोगों की कहानियों को जीवित रखता है, जिन्होंने अपने गांवों, नदियों और जंगलों को प्यार से सींचा। जैसे चंबल की वह मां, जिसने अपने बेटे को डकैती छोड़कर जोहड़ बनाने के लिए प्रेरित किया। या वह किसान, जिसने अपनी बंजर जमीन को हरा-भरा बनाया। ये कहानियां गांधीवादी मूल्यों की ताकत हैं, जो हमें प्रकृति के साथ जीने का रास्ता सिखाती हैं। इन प्रयासों ने न केवल पर्यावरण को पुनर्जनन किया, बल्कि समुदायों में आशा और एकता की भावना भी जागृत की। जैसे गोपालपुरा के बुजुर्ग गोविंद, जिन्होंने अपने जीवन के अंतिम वर्ष तालाब बनाने में बिताए, ताकि उनकी पोती को पानी की कमी न झेलनी पड़े। यह गांधीवादी दृष्टिकोण ही है, जो हमें प्रकृति और मानवता के बीच संतुलन की ओर ले जाता है।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक
