यूरोप का महाद्वीप इस बार गर्मी की चपेट में तप रहा है, और इस तपिश ने 2300 से ज्यादा जिंदगियों को छीन लिया। 9 जुलाई को प्रकाशित एक वैज्ञानिक अध्ययन ने इस कड़वी हकीकत को सामने लाया। दक्षिणी यूरोप में पारा 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चढ़ रहा है, और यह वह यूरोप नहीं रहा, जो कभी हरियाली और ठंडी हवाओं का सपना दिखाता था। यह अध्ययन यूनाइटेड किंगडम, नीदरलैंड, डेनमार्क और स्विट्जरलैंड के पांच प्रमुख शोध संस्थानों—इंपीरियल कॉलेज लंदन, वर्ल्ड वेदर एट्रीब्यूशन, और लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन—के बारह से अधिक वैज्ञानिकों ने मिलकर किया।
यह पहला तेजी से किया गया अध्ययन है, जो जलवायु परिवर्तन के कारण लू और गर्मी से होने वाली मौतों की गहराई को समझने की कोशिश करता है। 2022 की गर्मियों में यूरोप में 61,000 से ज्यादा लोग गर्मी की चपेट में मरे, और 2023 में यह संख्या 47,000 से अधिक थी। 2024 में भीषण गर्मी ने सैकड़ों जिंदगियाँ छीनीं, और विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि यह संकट बढ़ सकता है। ये आंकड़े सिर्फ संख्याएँ नहीं, बल्कि टूटे परिवारों, बिखरे सपनों और छटपटाते समुदायों की कहानियाँ हैं।
पुर्तगाल का दो-तिहाई हिस्सा हाई अलर्ट पर है। इटली और ब्रिटेन भी उसी आग से जूझ रहे हैं। दक्षिणी स्पेन सबसे ज्यादा प्रभावित है, जहाँ एल ग्रेनेडो कस्बे में तापमान 46 डिग्री तक पहुंचा, जैसा कि स्पेन के नेशनल वेदर सर्विस ने बताया। जून में ऐसी गर्मी यहाँ के लोगों के लिए अनजानी थी। फ्रांस और इटली में लोग इस तपिश से हैरान हैं, क्योंकि सूरज उनकी ज़मीन को झुलसा रहा है। पचास साल पहले जून में ऐसी लू अनसुनी थी, मगर अब यह बार-बार लौट रही है। पिछले 25 सालों में स्पेन में नौ बार लू ने दस्तक दी।
यूरोप का नाम सुनते ही हरियाली, हल्की धूप और ठंडी हवाओं का चित्र उभरता था। अब वह चित्र धुंधला पड़ रहा है। यूरोप अब गर्म हो रहा है, और यह सिर्फ मौसम की बात नहीं—यह समय की करवट है। इस करवट में हमारी लापरवाही और चुप्पी छिपी है। यूरोप का आसमान तप रहा है, और उसकी ज़मीन प्यास से चटक रही है। 2024 की गर्मी ने रिकॉर्ड तोड़े, और विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि 2025 और खतरनाक हो सकता है।
विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन इसी तरह बढ़ा, तो अगली लू और जानलेवा होगी। लेकिन क्या हमें इसकी परवाह है?
भारत में कई लोग सोचते हैं कि यूरोप की गर्मी हमसे कोसों दूर है। हमारे यहाँ तो हर साल लू चलती है, तो क्या नया? मगर यही सोच हमें धोखा दे रही है। यूरोप का जलना हिमालय की बर्फ को पिघलाने का रास्ता खोल रहा है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं, नदियाँ सूख रही हैं, और व्यापार व भोजन की कड़ियाँ कमजोर हो रही हैं। यूरोप की आग की राख हमारे दरवाजे तक पहुंच सकती है। कभी यूरोप जलवायु परिवर्तन पर भाषण देता था, अब वह खुद इसकी प्रयोगशाला बन गया है। हर जंगल की आग, हर सूखती नदी, और गर्मी से मरता हर इंसान हमें चेतावनी दे रहा है: “हमने देर की, तुम अब संभल जाओ।”
यह सिर्फ पर्यावरण की बात नहीं, यह हमारी व्यवस्था के कमजोर पड़ने की कहानी है। यूरोप में बिजली की माँग बढ़ी, तो कोयले के पुराने प्लांट फिर शुरू हो गए। पानी की कमी हुई, तो भूमिगत स्रोतों को खींचा गया। यानी आग बुझाने के लिए हम उसी ईंधन का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसने यह संकट पैदा किया। क्या यह विडंबना नहीं? यूरोपियन यूनियन की ग्रीन डील कागजों पर भव्य है, लेकिन हकीकत में इसके कदम धीमे हैं। नेट ज़ीरो के वादे तारीखों में सिमटे हैं, मगर तापमान न कैलेंडर देखता है, न घोषणाएँ। पर्यावरण सम्मेलनों में शब्द बहुत, लेकिन इच्छाशक्ति कम। जब तक हर फैसले में आर्थिक फायदे-नुकसान का हिसाब पहले आएगा, बदलाव नहीं होगा। यह ज़िम्मेदारी सिर्फ सरकारों की नहीं, हम सबकी है।
सवाल यह नहीं कि यूरोप का महाद्वीप क्यों जल रहा है। सवाल यह है कि क्या हमारी संवेदनाएँ सुन्न हो चुकी हैं? जब ग्रीस में आग लगती है, फ्रांस में बुजुर्ग गर्मी से मरते हैं, इटली की नदियाँ सूखती हैं, तब हमारे यहाँ बहसें पेट्रोल के दाम, क्रिकेट, या टीवी शो पर होती हैं। यूरोप की गर्मी कोई प्राकृतिक हादसा नहीं, यह हमारी सामूहिक नाकामी है। अगर हम अब नहीं जागे, तो सिर्फ तापमान ही नहीं, हमारी उम्मीदें भी बुझ जाएँगी। यह कहानी सिर्फ यूरोप की नहीं, हम सबकी है। यह वक्त है जागने का, क्योंकि अगर अब चुप रहे, तो आने वाला कल हमें माफ नहीं करेगा।

