– ज्ञानेन्द्र रावत*
देश का भाल हिमालय का अस्तित्व आज संकट में है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि वह चाहे बांध हो या फिर पन बिजली परियोजनाओं का निर्माण या रेल लाइन के निर्माण हेतु सुरंग बनाने का सवाल, इससे हिमालय के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। विडम्बना तो यह है कि यह सिलसिला बरसों से जारी है और दुख की बात यह है कि बरसों से उत्तराखंड के लोग और पर्यावरण विज्ञानी इसके खिलाफ पुरजोर आवाज उठा रहे हैं लेकिन लगता है कि सरकार इस विषय पर कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है।
ऐसा लगता है कि सरकार इस बाबत आंदोलनकारियों की मांग को दरगुज़र करने का पूरी तरह ही मन बना चुकी है। जनता की आवाज को अनसुनी करने और सत्ताधारी नेताओं द्वारा जनता के अनवरत संघर्ष को नकारना उसके हठी रवैय्ये का जीता जागता सबूत है। असलियत यह है कि समूचा हिमालय वह चाहे देवभूमि उत्तराखंड में राष्ट्रीय नदी गंगा पर बांध निर्माण का मसला हो, समूचे राज्य मे पर्यटन की दृष्टि से आल वैदर रोड के निर्माण का मसला हो या ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक रेल लाइन के निर्माण का मसला हो, सरकार विकास के नाम पर सारे हिमालय को खण्ड- खण्ड करने पर तुली है। हाँ इस बाबत इतना जरूर हुआ कि राज्य के लोगों, समाज सेवियों और जल, जंगल, जमीन के हितों की रक्षा में लगे कार्यकर्ताओं ने हिमालय क्षेत्र में यहां की परिस्थिति अनुरूप कैसा विकास होना चाहिए, इस दृष्टिकोण के तहत तकरीबन 50 हजार लोगों के हस्ताक्षर युक्त एक ज्ञापन जिसे हिमालय लोकनीति का नाम दिया गया था, प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को भी भेजा था जिसके उपरांत इतना अवश्य हुआ कि देश की सर्वोच्च नागरिक संस्था संसद तक में इस विषय पर लम्बी बहस हुई और यह मसला सड़कों पर भी लम्बे समय तक हुए प्रदर्शनों का सबब बना।
वह बात दीगर है कि इन ज्वलंत विषयों पर आजतक कोई तार्किक परिणिति जनमानस को होती दिखाई नहीं दी। होना तो यह चाहिए था कि इस हिमालयी राज्य में बनी विकास नीति में ऐसे प्रावधान प्रमुखता से शामिल किये जाने चाहिए जो राज्य के लोगों के हित में हों, उनको वे सभी सुविधाएं हासिल हों जिनके वे हकदार हैं और वहां की जल, मिट्टी, वायु, जंगल सहित प्राकृतिक संसाधनों और जैव विविधता अक्षुण्ण बनी रहे। यह भी कि विकास का आधार और नीति-निर्माण स्थानीय परिस्थिति और भावी आपदाओं से बचाव को दृष्टिगत रखते हुए हो। साथ ही लोग अपनी आजीविका जिस भांति वह बरसों से चलाते आ रहे हैं, उसमें कोई व्यवधान न पैदा हो। चिपको आंदोलन इसका जीवंत प्रमाण है कि विकास की कार्य योजना का कथित वैज्ञानिक आधार यहां के लोगों के हित में कभी नहीं रहा और सरकारी वन प्रबंधन योजनाओं को साधारण लोगों के साथ महिलाओं तक ने न केवल अस्वीकारा बल्कि उसके विरोध में उनकी आवाज वन संरक्षण और वनाधिकारों की दिशा में समूची दुनिया की आवाज बनी और उसके आगे सरकार तक को झुकना पड़ा। असलियत में चिपको आंदोलन पर्यावरणीय चेतना का ऐसा आंदोलन है जिसने तथाकथित वन विशेषज्ञों और वन व्यवस्थापकों की गलत नीतियों को न केवल उजागर किया बल्कि प्रबल जनमत के बलबूते सरकार को अपनी नीतियों के बारे में नये सिरे से सोचने पर विवश किया।
आज जिस प्रकार का माहौल है और सरकार ने विकास के नशे में मदहोश होकर आल वैदर रोड के निर्माण की ख़ातिर राज्य में पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से देवदार के सवा लाख पेड़ों की जिस निर्ममता से हत्या की है और जैसी कि संभावना है और प्राप्त सूत्रों के मुताबिक तकरीब एक लाख पंद्रह हजार देवदार के पेड़ कटान के लिए चिन्हित किये जा चुके हैं, यह इसका सबूत है कि हमारी सरकार और उसके मुखिया हमारे प्रधानमंत्री दावा तो यह करते हैं कि विकास पर्यावरण आधारित होना चाहिए लेकिन हकीकत इसके बिलकुल उलट है। गौरतलब है कि आल वैदर रोड के निर्माण के दौरान स्थानीय लोगों, रक्षा सूत्र आंदोलन से जुड़े लोगों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने सरकार और अधिकारियों को दूसरे मार्ग का सुझाव दिया था जिसके चलते लाखों देवदार के पेड़ जो वन संपदा के प्रतीक तो हैं ही, जैव विविधता के संरक्षण और हिमालयी राज्य में भूस्खलन रोकने की दिशा में अपना अहम योगदान देते हैं, से वंचित न होना पड़ता। लेकिन राज्य के लोगों की लाख कोशिशों और अनुनय-विनय को दरगुज़र कर दिया गया और उनकी भावनाओं को अनसुना करते हुए देवदार के पेड़ों को तथाकथित विकास के यज्ञ की समिधा बना दिया गया। उस हालत में जबकि यह कटु सत्य है कि एक देवदार के पेड़ को समृद्ध होने में तकरीबन 40 बरसों का समय लगता है और पारिस्थितिकी संरक्षण में उनकी प्रमुख भूमिका है।
यहां हम इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते कि उत्तराखंड हिमालयी राज्य है और हिमालय पर्वत श्रृंखला न केवल भारत बल्कि दक्षिण एशिया के लिए मिट्टी, जल और वनस्पति के जनक के लिए जानी जाती है। यही नहीं हिमालय मौसम का नियंत्रक और धरती के तापमान को भी नियंत्रित करता है। हिमालय पर हुयी गतिविधि का सीधा-सीधा दुष्परिणाम भारत को भुगतना पड़ता है। वनों की प्रचुरता ने ही इसे भारतीय उप महाद्वीप में जल के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ता की भूमिका में रखा हुआ है। इस पर्वत राज्य में स्थित पर्वत श्रृंखला को भूसंरचना, जलवायु और मिट्टी की बनावट में भारी विविधता के लिए जाना जाता है। गंगा गंगोत्री, संतोपंथ भागीरथी कर्क आदि हिमानियों से भागीरथी एवं अलकनंदा के नाम से अपनी जीवन यात्रा शुरूकर सैकडो़ं छोटी बड़ी जल धाराओं को समेटे हुयी देवप्रयाग में गंगा बन जाती है जो आगे चलकर इसमें यमुना, रामगंगा, घाघरा, गंडक, कोसी आदि नदियां मिलती हैं और बंगाल की खाडी में समाहित हो जाती हैं। गौरतलब है कि गंगा बेसिन देश के संपूर्ण क्षेत्रफल का 26 फीसदी तथा गंगा देश की संपूर्ण जलराशि के 25.2 फीसदी भाग की स्वामिनी है। देश के बड़े हिस्से की जल से जुड़ी जरूरतों को पूरा करने वाला यह राज्य वनों, खनिजों और प्राकृतिक सौंदर्य का अकूत भंडार है। अधिकांश धर्मस्थल होने के कारण इस अंचल को देवभूमि भी कहा जाता है। यहां के वन औषधियां, वन्य पुष्पों व लघु वनस्पतियों से आच्छादित हैं। इनकी सही मायने में वर्षा जल को नियंत्रित कर धरती की सेहत पर वर्षा जल के प्रभाव को नियंत्रित करने में प्रभावी भूमिका है।
सच कहा जाये तो ये वन सुरक्षा प्रहरियों की भांति हिमालय की पारिस्थितिकी के आधार हैं। इसकी विविधता का सबसे बड़ा कारण इसकी स्थलाकृति की विविधता और वैचित्र्य है। अपने विशाल और विविधता पूर्ण स्वरूप के कारण ही हिमालय क्षेत्र में बसा समाज हजारों सालों से अस्तित्व में है। इसके पाद प्रदेश में मौजूद मैदानी उच्च तापमान और उच्च हिमालय क्षेत्र जिसका एक चौथाई इलाका जो सदा बर्फ से ढका रहता है, ऐसी विलक्षण जलवायु की विविधता के चलते यहां के समाज को विभिन्न प्रकार की जीवनचर्या अपनाने को प्रेरित किया है। यही नहीं सबसे बड़ी बात उस जीवनचर्या में जीवन का प्रमुख स्रोत प्रकृति ही रही है। यही अहम कारण है कि यहां के लोगों में प्रकृति संरक्षण की स्वाभाविक प्रवृत्ति सहज ही दृष्टिगोचर होती है। इसलिये जब जब प्रकृति के विरुद्ध कोई काम होता है तो यह उसका पुरजोर विरोध करते हैं।
ऐसे विलक्षण राज्य जिसे देवभूमि के दर्जे के साथ प्राकृतिक, पारिस्थितिक, औषधिक संसाधनों से युक्त सीमांत राज्य के रूप में जाना जाता है, वहां तथाकथित विकास के नाम पर विनाश के तांडव की प्रक्रिया अनवरत जारी हो, उससे तो यही परिलक्षित होता है कि एक सुनियोजित साजिश के तहत इतनी विशेषताओं-विलक्षणताओं वाले राज्य को आखिर क्यों तबाह किया जा रहा है। पन बिजली संयत्रों, आल वैदर रोड आदि विकास के नाम पर सुरंग आधारित परियोजनाओं के निर्माण से इस हिमालयी राज्य में ऐसी स्थितियों पैदा की जा रही हैं जो यहां के जंगल, जमीन की नमी को तो बर्बाद करेगी ही, बर्फ भी नहीं टिक पायेगी और नदियां सूख जायेंगीं। जल स्रोतों का सूखना भावी आपदा का संकेत दे ही रहे हैं। उस स्थिति में जबकि राज्य में तकरीबन सैकड़ों सुरंग आधारित परियोजनाओं पर काम जारी है। 600 से अधिक सुरंग आधारित बांध प्रस्तावित हैं जिसके लिए हजारों किलोमीटर लम्बी सुरंगें बनेगीं। इसके चलते तकरीब 500 से ज्यादा गांव तबाह हो जायेंगे। बांधों के लिए किये जाने वाले विस्फोटों से जहां पहाड़ अंग-भंग होंगे, वहीं उनका मलबा नदियों में जायेगा जो बाढ़ की भयावहता में बढ़ोतरी करेगा।
विकास के नाम पर पहाडो़ं को विस्फोट के जरिये ध्वस्त कर हिमालय के विनाश का जो सिलसिला जारी है यह वास्तव में जहां बाढ़, भूकंप आदि प्राकृतिक आपदाओं को तो आमंत्रण दे ही रहा है जबकि बीते बरस की आपदायें विकास के दुखद परिणामों की साक्षी हैं। ऋषिकेश से कर्ण प्रयाग रेल लाइन का 125 किलोमीटर का निर्माण जिसमें 105 किलोमीटर का ट्रैक सुरंगों से होकर जायेगा, गंगोत्री-यमुनोत्री के लिए भी प्रस्तावित 121 किलोमीटर की रेल लाइन जिसमें 70 फीसदी ट्रैक सुरंगों।में होकर ही गुजरेगा और देहरादून से टिहरी बांध के किनारे होती हुयी 32 किलोमीटर का सड़क मार्ग और देहरादून से मसूरी हेतु सुरंग से होकर सड़क मार्ग यह साबित करते हैं कि यदि ऐसे विकास पर अंकुश नहीं लगाया गया, उस स्थिति में वह दिन दूर नहीं जब देवभूमि उत्तराखंड को भीषण आपदाओं का सामना तो करना ही होगा, इसकी आंच से देश की राजधानी भी अछूता नहीं रह पायेगी।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।प्रस्तुत लेख उनके व्यक्तिगत विचार हैं।