दिल्ली, भारत का वह धड़कता दिल, जहाँ सत्ता की ऊँची इमारतें और बाजारों की चहल-पहल कभी थमती नहीं, आज एक ऐसी प्यास से तड़प रहा है जो हर गली, हर घर को छू रही है। यह प्यास साफ पानी की है, वह अमृत जिसके बिना जिंदगी अधूरी है।
देशभर में साढ़े तीन करोड़ लोग साफ पानी से वंचित हैं, और नीति आयोग की मानें तो यह आँकड़ा साठ करोड़ को भी पार करता है। लेकिन दिल्ली की कहानी सबसे कड़वी है। यहाँ नई कॉलोनियों से लेकर पुराने मोहल्लों तक, ग्रेटर कैलाश, छतरपुर, महरौली, पालम, बिजवासन, तिमारपुर, मॉडल टाउन, राजौरी गार्डन, जनकपुरी, पंजाबी बाग, मयूर विहार, विवेक विहार, प्रीत विहार, अलीपुर, दिल्ली कैंट, द्वारका, यमुना विहार, करावल नगर, गांधी नगर, और सीमापुरी—हर कोने में पानी की मारामारी है।
अम्बेडकर नगर की तंग गलियों में लोग धरनों पर बैठे हैं, अपनी आवाज़ उठा रहे हैं। देवली में जल बोर्ड के दफ्तर के सामने मटके टूटने की गूँज है—यह गुस्सा नहीं, वह बेबसी है जो रात-रात भर पानी की बूँदों का इंतज़ार करती है। यहाँ लोग निजी टैंकरों से पाँच सौ से आठ सौ रुपये प्रति टैंकर की कीमत चुकाने को मजबूर हैं। बदरपुर में लोग पूरी रात जागकर पानी की आस में आँखें गड़ाए रहते हैं। संगम विहार में तो पाइपलाइनें पिछले एक साल से खामोश हैं। महीने में एक बार, जब प्राइवेट पाइप से पानी आता है, लोग ड्रम, बाल्टियाँ, और जो कुछ मिले, उसमें पानी समेट लेते हैं। जिनके पास टैंक है, वे खुशकिस्मत; बाकी बोतलबंद पानी खरीदने को विवश हैं। तुगलकाबाद में टैंकरों की संख्या आधी हो चुकी है, और जल बोर्ड की शर्तें ऐसी कि लोग उन्हें पूरा नहीं कर पाते। बुराड़ी में पानी का कोई ठिकाना नहीं—कभी सुबह, कभी शाम, और कभी दो दिन बाद। महिलाएँ तड़के उठकर पानी भरती हैं, यह डर मन में कि कहीं सीवर-मिश्रित गंदा पानी तो नहीं आ रहा।
जनकपुरी में रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन ने एनजीटी का दरवाज़ा खटखटाया, शिकायत की कि जल बोर्ड बदबूदार, सीवर-मिश्रित पानी सप्लाई कर रहा है। यह पानी जानलेवा है—हेपेटाइटिस, हैजा, आंत्रशोध, यूरोसेप्सिस, टाइफाइड, और पीलिया जैसी बीमारियों का खतरा लिए हुए। सीपीसीबी के टेस्ट में यह पानी गुणवत्ता के मानकों पर खरा नहीं उतरा। जल बोर्ड ने एनजीटी को सुधार का भरोसा दिया, लेकिन महीनों से खराब पड़े बोरवेल और शिकायतों का कोई जवाब नहीं। अधिकारी टैंकर मँगाने की सलाह देकर पल्ला झाड़ लेते हैं।
दिल्ली जल बोर्ड हर दिन नब्बे मिलियन गैलन भूजल नलकूपों से खींचता है, ग्यारह सौ टैंकरों से पानी बाँटता है, फिर भी प्यास बुझती नहीं। लोग सबमर्सिबल पंपों से बेतहाशा भूजल निकाल रहे हैं। बाइस हज़ार से ज़्यादा अवैध पंप दिल्ली की धरती को खोखला कर रहे हैं। निजी अस्पताल, छोटे-छोटे धंधे, ऑटोमोबाइल वर्कशॉप, वाहन धुलाई केंद्र, और भवन निर्माण इस दोहन में सबसे आगे हैं। केंद्रीय भूजल बोर्ड की ताज़ा रिपोर्ट चीख-चीखकर चेतावनी दे रही है—दिल्ली के चौंतीस में से चौदह इलाके अति-दोहित हैं, तेरह गंभीर रूप से दोहित, दो अर्ध-गंभीर, और सिर्फ़ पाँच सुरक्षित। 2024 में 34,1905 क्यूबिक हेक्टेयर पानी रिचार्ज हुआ, लेकिन 34,453.6 क्यूबिक हेक्टेयर निकाला गया—निकासी की दर 100.77 फीसदी। नई दिल्ली, शाहदरा, उत्तर, दक्षिण, उत्तर-पूर्वी, नरेला, कपसहेड़ा, चाणक्यपुरी, हौज़ खास, कालकाजी, सरिता विहार, वसंत विहार, राजौरी गार्डन, करोलबाग, पटेल नगर, पंजाबी बाग, मयूर विहार, विवेक विहार, प्रीत विहार, मॉडल टाउन, अलीपुर, दिल्ली कैंट, द्वारका, यमुना विहार, करावल नगर, गांधी नगर, और सीमापुरी भूजल दोहन के शिकार हैं।
दिल्ली की नई भाजपा सरकार, रेखा गुप्ता के नेतृत्व में, दावा करती है कि पानी की आपूर्ति पूरी हो रही है, लेकिन हकीकत इन दावों को धो डालती है। एनजीटी ने लुप्त जल निकायों—तालाबों, पोखरों—को पुनर्जनन का आदेश दिया, लेकिन सरकार और दिल्ली प्राधिकरण की उदासीनता ने हालात सुधारने नहीं दिए। यह संकट सिर्फ़ दिल्ली की गलियों तक नहीं, बल्कि दुनिया की सड़कों तक फैला है। चार अरब चालीस करोड़ लोग साफ पानी से महरूम हैं। दक्षिण एशिया में एक सौ बीस करोड़, उप-सहारा अफ्रीका में एक सौ करोड़, दक्षिण-पूर्व एशिया में पचास करोड़, और लैटिन अमेरिका में चालीस करोड़ लोग इस त्रासदी से जूझ रहे हैं। एशिया की 61 फीसदी आबादी पानी की कमी से त्रस्त है। भारत में तेरह करोड़ अड़तीस लाख बच्चे हर दिन की ज़रूरत के लिए पानी को तरसते हैं, और दुनिया भर में तैंतालीस करोड़ साठ लाख बच्चे इस संकट में हैं। यूनिसेफ चेता रहा है कि 2050 तक भारत का चालीस फीसदी पानी खत्म हो जाएगा। स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट की शोधकर्ता एस्टर ग्रीनबुड इसे “अस्वीकार्य” बताती हैं। संयुक्त राष्ट्र बरसों से चेतावनी दे रहा है कि पानी की बर्बादी पर अंकुश और जल संरक्षण के उपाय न हुए, तो यह संकट दुनिया को निगल लेगा। 2030 तक हर व्यक्ति को साफ और किफायती पानी का संयुक्त राष्ट्र का सतत विकास लक्ष्य अब सपना ही लगता है।
यह प्यास सिर्फ़ गलों तक नहीं, खेतों, जंगलों, और रसोई तक फैली है। जल संकट से कृषि उत्पादकता ठप हो रही है, जैव विविधता खतरे में है, और खाद्य सुरक्षा पर तलवार लटक रही है। मानव की लालच, भौतिकवादी जीवनशैली, और जलवायु परिवर्तन इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। दुनिया के 37 अति संवेदनशील देशों में भारत शीर्ष पर है। रास्ता साफ है—वर्षा जल संचयन को सरकारी संस्थानों, निजी प्रतिष्ठानों, और नागरिकों के लिए अनिवार्य करना, तालाबों और पोखरों का पुनर्जनन, और जल की बर्बादी पर रोक। जनजागरण की चिंगारी ही इस संकट को मिटा सकती है। सवाल वही है—क्या हम मटके तोड़ने और टैंकरों के पीछे भागने से आगे बढ़कर पानी बचाने की ज़िम्मेदारी लेंगे, या सिर्फ़ प्यास की कहानियाँ सुनाते रहेंगे?
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।

