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खीरगंगा का प्रकोप, हरसिल का सबक
उत्तरकाशी: उत्तराखंड के धराली में 5 अगस्त 2025 को खीरगंगा नदी के उफान और भूस्खलन ने गंगोत्री मार्ग को मलबे के रेगिस्तान में बदल दिया। धराली, एक जीवंत तीर्थयात्रा पड़ाव, और नजदीकी पर्यटन केंद्र हरसिल अब वीरानी का दृश्य पेश करते हैं, जहां कभी होटल, दुकानें, और बस्तियां थीं। इस त्रासदी में कम से कम छह लोगों की जान गई, 50 से अधिक लापता हैं, और स्थानीय भूगोल हमेशा के लिए बदल गया।
धराली त्रासदी न होती अगर खीरगंगा नदी के रास्ते पर भारी रिहायश न बसी होती। धराली की अधिकांश रिहायशी यहां लैंडस्लाइड के पुराने मलबे पर बसी हुई है। खीरगंगा पहले भी इस तरह विकराल होती रही है और अपने साथ भारी मलबा लेकर आती रही है। भूवैज्ञानिकों के अनुसार, धराली की बस्तियां पुराने भूस्खलन मलबे और अस्थिर जलोढ़ पंखों पर बनी थीं, जहां 1835 में खीरगंगा ने कल्प केदार मंदिर और कई घरों को मिट्टी में दफन कर दिया था। बाद में इस मंदिर को खोद कर बाहर निकाला गया लेकिन उसके आसपास का इलाका आज भी उस लैंडस्लाइड में दबा हुआ है। ये ऐतिहासिक तथ्य बताता है कि धराली में खीरगंगा नदी के मुहाने पर बसना एक बहुत बड़ी ग़लती रही। अफ़सोस ये है कि ऐसी ग़लती हिमालय में कई रिहायशी इलाके में रहे हैं और नदियों के बिलकुल आसपास बने हुए हैं जो कभी भी ख़तरनाक हो सकता है।
नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) के 100 मीटर निर्माण-निषेध नियम की खुलेआम अनदेखी, बेलगाम पर्यटन, और जलवायु परिवर्तन ने धराली आपदा को भयावह बनाया। भारत, अमेरिका, और यूरोप के पर्यावरणविदों की बार-बार चेतावनियों को नजरअंदाज करने की कीमत अब हिमालय चुका रहा है। धराली का दर्द तत्काल सुधार और स्थायी विकास की मांग करता है।
खीरगंगा के किनारे बस्तियां बसाना धराली की सबसे बड़ी भूल थी। 1835 की तबाही, जब नदी ने मंदिर और घरों को मलबे में मिला दिया, एक स्पष्ट चेतावनी थी, फिर भी हरसिल और धराली में अनियंत्रित निर्माण और पर्यटन का विस्तार हुआ। एनजीटी का आदेश—नदियों के किनारे 100 मीटर तक कोई निर्माण नहीं—न केवल धराली में, बल्कि पूरे उत्तराखंड में तोड़ा गया। 2012 में भागीरथी को ईको-सेंसिटिव जोन घोषित किया गया, लेकिन सड़क चौड़ीकरण और 6,000 देवदार वृक्षों की कटाई की योजनाओं ने इसकी रक्षा को कमजोर किया। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की उपग्रह छवियों से पता चलता है कि धराली के ऊपर सात छोटी हिमनद झीलों का टूटना या दो किलोमीटर ऊपर पुराना भूस्खलन सक्रिय होना इस त्रासदी का कारण हो सकता है। भूवैज्ञानिकों ने चेताया कि जलोढ़ पंखे और खड़ी ढलानें जोखिम भरी हैं, फिर भी होटल और दुकानें नदी के मुहाने पर बनीं, जिसने आपदा को और घातक बनाया।
जलवायु परिवर्तन ने इस संकट को और बढ़ाया। अध्ययन बताते हैं कि हिमालय सहित हाई माउंटेन एशिया में पिछले 2000 से बाढ़ की घटनाएं लगातार बढ़ीं हैं, जिसमें तेज बारिश, हिमनद टूटना, भूस्खलन के कारण बनी झीलों के टूटने जैसे कारण प्रमुख हैं। जलवायु परिवर्तन से हिमालय में अनियमित और तीव्र मौसम पैटर्न बन रहे हैं, जिनमें हिंसक मानसूनी तूफान और अचानक भारी बारिश शामिल हैं। यह आपदाएं न केवल जन-धन को नुकसान पहुंचाती हैं, बल्कि बुनियादी ढांचे, पर्यटन और कृषि क्षेत्र को भी प्रभावित करती हैं। स्थिर ढलानों पर होती असामयिक निर्माण गतिविधियां और अव्यवस्थित पर्यटन पर्यावरणीय असंतुलन को और बढ़ा रहे हैं। इसके अतिरिक्त, हिमालयी क्षेत्र में “प्रतिबद्ध तापन” की वजह से पहले से अपरिवर्तनीय जलवायु परिणाम दिखाई दे रहे हैं, जिनसे आपदा जोखिम बढ़ता जा रहा है। पिछले 50 वर्षों में हिमालय का तापमान 1.8°सेल्सियस बढ़ा है, जो वैश्विक औसत से दोगुना है। इससे ग्लेशियर तेजी से पिघले, और ग्लेशियल झील विस्फोट का खतरा बढ़ा, जैसा 2023 में सिक्किम में देखा गया। वैज्ञानिक बताते हैं कि 1°सेल्सियस तापमान वृद्धि से बारिश 15% बढ़ सकती है, जिससे हिंसक मानसूनी तूफान और भूस्खलन आम हो रहे हैं। धराली में 5 अगस्त को 400 मिमी से अधिक बारिश और संभावित ग्लेशियल झील विस्फोट बाढ़ (ग्लोफ) ने तबाही मचाई, जिसमें सुखी टॉप पर बादल फटने की भी भूमिका थी।
2010 के बाद अनियमित वर्षा और वनों की कटाई ने हिमालय को और नाजुक बनाया है। 2022 से 2025 तक हिमालयी राज्यों में 2,863 मौतें दर्ज हुईं, जो अनियंत्रित विकास का परिणाम हैं। 2013 की केदारनाथ त्रासदी (5,700 मृत) और 2021 की चमोली बाढ़ इसकी मिसाल हैं।
यह त्रासदी स्थानीय आजीविका को भी कुचल रही है। धराली और हरसिल की आजीविका—पर्यटन, कृषि, पशुपालन, और वन उत्पाद—इस त्रासदी में चौपट हो गई। इस घटना से पहले जहां होटल, घर, दुकानें , जन-जीवन था। वहां अब चारों तरह दूर-दूर तक केवल मलबा नजर आ रहा है।
मृदा अपरदन और जैव विविधता हानि ने हिमालयी पारिस्थितिकी को अस्थिर किया है। हाशिए के समुदायों में मनोवैज्ञानिक और आर्थिक तनाव बढ़ा है। धराली और हरसिल में कइयों ने अपने परिवार जनों को तो खोया ही, साथ ही अपनी आजीविका खो दी, पर्यटन-निर्भर से भी हो रही आय रुक गई। स्थानीय लोग अब मलबे के बीच भविष्य तलाश रहे हैं। अनियंत्रित पर्यटन और अवैध निर्माण ने पर्यावरणीय असंतुलन को और उकसाया, खासकर गंगोत्री मार्ग पर, जहां तीन हालिया हिमस्खलनों ने क्षेत्र की नाजुकता को उजागर किया है।
यह त्रासदी हिमालय की पुकार है। इन समस्याओं से निपटने के लिए स्थायी विकास, पर्यावरण संरक्षण, प्रभावी आपदा प्रबंधन, और जलवायु अनुकूल आधारभूत संरचना जरूरी है उत्तराखंड की धराली की घटना हो या फिर केदारनाथ, की भारत हो या अमरीका और यूरोप , पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों ने हमेशा चेताया है कि अगर क़ुदरत के साथ हो रही छेड़छाड़ को रोका नहीं गया तो भारी नुक़सान उठाना पड़ सकता है।
केदारनाथ से लेकर वैश्विक मंचों तक, पर्यावरणविद् चेताते हैं कि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ घातक है। उत्तराखंड को अब स्थायी विकास, सख्त आपदा प्रबंधन, और जलवायु-अनुकूल बुनियादी ढांचे की जरूरत है। एनजीटी नियमों का पालन, हरसिल-धराली में पर्यटन नियंत्रण, ग्लेशियल निगरानी, और सेंसिटिव जोन की रक्षा अनिवार्य है। सरकारों को 2002 की वन नीति को मजबूत करना चाहिए। धराली का सबक साफ है—प्रकृति के साथ छेड़छाड़ बंद हो, वरना और विनाश अनिवार्य है।
यदि हम अब नहीं जागे, तो हिमालय का अगला प्रकोप और भयावह होगा।

