साइकिल से जोड़ो, भारत का हर कोना!
सुबह की ठंडी हवा में, जब दिल्ली की सड़कों पर साइकिलों का रेला निकलता था, उसमें शामिल होने का मज़ा ही कुछ और था। कार्यालय और बाज़ार के चहल-पहल भरे समय में साइकिल की घंटी की मधुर आवाज़ और टायरों की सरसराहट, जैसे शहर का संगीत बन जाती थी। साइकिल के सहारे न सिर्फ़ लोग अपनी मंज़िल तक पहुँचते, बल्कि संदेश और क्रांति की आवाज़ का बिगुल भी बजाते। उस दौर में दिल्ली साइकिलों का शहर थी, इसकी जीवन रेखा थी। बच्चे, जवान, बूढ़े—हर उम्र का इंसान साइकिल पर सवार होकर अपनी कहानी बुनता था। टोकन हो या न हो, साइकिलें सड़कों पर दौड़ती रहती थीं, जैसे दिल्ली की धड़कन हों।
पेडल पे प्यार, गलियों में संसार!
साइकिल सिर्फ़ आने-जाने का साधन नहीं थी; यह व्यापार की साथी थी, दोस्त थी। दूधवाले सुबह-सुबह साइकिल पर कैन लटकाए गलियों में घूमते, तो राशन की दुकानों तक सामान ढोने वाले साइकिल की सवारी करते। कम खर्च में स्वावलंबी, साइकिल एक ऐसी दोस्त थी, जो कभी धोखा नहीं देती। जब मन किया, पेडल मारा और चल पड़े—न नियम, न बंधन। फिर भी, न जाने कैसे यह दिल्ली की सड़कों से गायब-सी हो गई। क्यों? क्या हमने इसे भुला दिया, या शहर की भागमभाग में यह पीछे छूट गई?
जिनके पास अपनी साइकिल नहीं थी, उनके लिए दिल्ली की गलियों में किराए की साइकिलें थीं। गली-मोहल्लों में छोटी-सी दुकानें, जहाँ घंटे के हिसाब से साइकिल मिलती थी। जितना समय, उतना पैसा। छोटे बच्चों के लिए छोटी साइकिलें, जिन्हें देखकर उनकी आँखें चमक उठती थीं। बस, आसपास रहने की पहचान ही काफी थी। बच्चे किराए की साइकिल लेकर गलियों में चक्कर लगाते, हँसी-ठहाकों के बीच दोस्तों के साथ दौड़ लगाते। सड़क किनारे पंक्चर जोड़ने वाले, साइकिल की मरम्मत करने वाले चाचा बैठे रहते, जिनके पास हर साइकिल की कहानी होती थी। उनकी उँगलियों में मैल और चेहरे पर मुस्कान, जैसे साइकिलों को नया जीवन दे रहे हों।
मैंने तो साइकिल चलाना बचपन में गाँव में सीखा। गाँव में साइकिलें गिनी-चुनी थीं, लेकिन हमारी एक फिलिप्स की साइकिल थी, जिसका फ्राईवल बड़ा था। उसमें कम मेहनत में ज्यादा रफ़्तार मिलती थी। उसे चलाने का गर्व ही अलग था! दिल्ली में हम बच्चे जब साइकिल पर घूमने की योजना बनाते, तो कई दिन पहले से उत्साह शुरू हो जाता। नाश्ते की टोकरी, पानी की बोतल, हॉकी, डंडा, पंक्चर किट, हवा भरने का पंप—सब कुछ एक सूची में लिखा जाता। पुरानी दिल्ली की तंग गलियों से निकलकर चारदीवारी के बाहर का सुनसान, जहाँ दूर-दूर तक कुछ नज़र नहीं आता था। बसें कम थीं, वाहन कम थे। साइकिल की सवारी में वो आज़ादी थी, जैसे हवा से बातें कर रहे हों।
साइकिल की सैर, स्वतंत्रता की तैर!
कल ‘घोड़ा’ लेख पढ़ने के बाद भाई श्री एस.एस. नेहरा, सुप्रीम कोर्ट के वकील, का फोन आया। उनकी आवाज़ में जोश था, जब उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी बीजू पटनायक का एक मज़ेदार किस्सा सुनाया। बीजू साहब ने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ बगावत की थी। जब उन्हें लगा कि अब पकड़े जाएँगे, तो उन्होंने अपनी साइकिल उठाई और उड़ीसा से लाहौर की यात्रा शुरू कर दी। साइकिल के पेडल मारते हुए, रास्ते में दोस्तों से मुलाकात, बातचीत, देश की मिट्टी को करीब से देखा। जंगल, सुनसान रास्ते, खराब सड़कें—क्या नहीं झेला होगा! फिर भी, उनकी हिम्मत और साहस ने उन्हें मंज़िल तक पहुँचाया। यह सिर्फ़ यात्रा नहीं थी, यह देश के लिए जीने की मिसाल थी। सत्य, अहिंसा और समझदारी से बड़ा काम करने की हिम्मत थी। उनकी धुन थी—‘बिन सोचे परिणाम रे, कायर का नहीं काम रे।’ उनकी हिम्मत को सलाम!
साइकिल की बात हो, तो बाबा आमटे जी की कन्याकुमारी से कश्मीर और उत्तर-पूर्व से द्वारका तक की ‘भारत जोड़ो’ साइकिल यात्रा को कैसे भूलें? उसमें शामिल होने का सौभाग्य मुझे भी मिला। खासकर तमिलनाडु सर्वोदय मंडल की ओर से मदुराई से मद्रास (चेन्नई) तक की यात्रा, जिसमें भाई डॉ. अन्नामलाई और डॉ. राजा के साथ साइकिल चलाने का मौका मिला। पसीने से भीगे चेहरों पर मुस्कान, रास्ते में गाँव वालों की तालियाँ और बच्चों की उत्साहित आवाज़ें—वो यादें आज भी ताज़ा हैं।
भाईजी सुब्बाराव की सद्भावना रेल यात्रा में भी साइकिलों का जलवा था। रैली में, स्थानीय आवागमन में साइकिलें साथी बनती थीं। और हाँ, शाहदारा-सहारनपुर रेल का ज़माना! दूधवाले साइकिल पर दूध की कैन लटकाए स्टेशन पहुँचते, साइकिल रखते और दिल्ली दूध पहुँचाते। कभी-कभी ट्रेन छूट जाती, तो दूधवाले ट्रेन के साथ-साथ साइकिल दौड़ाते। ट्रेन की रफ़्तार धीमी होती थी, और मौका मिलते ही साइकिल छोड़कर ट्रेन पर लटक जाते। रेलवे कर्मचारी और दूधवाले एक-दूसरे का ख्याल रखते—दूध मुफ्त में, और बदले में थोड़ी मदद। यह रिश्ता साइकिल की तरह ही सादा और प्यारा था।
आज भी कई युवा साइकिल यात्राओं के ज़रिए दुनिया घूम रहे हैं। महाराष्ट्र के श्री द्यान येवतकर पिछले कुछ सालों से ‘शांति चक्र विश्व यात्रा’ पर हैं। कई देशों की सैर कर चुके हैं। रास्ते में साइकिल टूटी, सामान चोरी हुआ, दुर्घटनाएँ हुईं, मगर उनकी हिम्मत नहीं टूटी। यात्रा से पहले दिल्ली में मुझसे मिले, बातें कीं। उनकी आँखों में सपने और हौसले की चमक थी। मेरी शुभकामनाएँ, आशीर्वाद उनके साथ हैं। जैसा कि कहा जाता है—‘हिम्मत से पतवार संभालो, फिर क्या दूर किनारा!’


प्रिय दीपक भाई आभार धन्यवाद शुक्रिया अदा करता हूं।
आप ऐसा सजाते है कि पढ़ने में रुचि बढ़ जाती है।
रमेश चंद शर्मा